लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
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आग से उठने वाला धुंआ सेहत के लिए जानलेवा होता जा रहा है। दुनियाभर के शोध और अध्ययन इसके प्रमाण है। वह चाहे जंगल की आग हो या घर की आग, दोनों ही खतरनाक हैं। आस्ट्रेलिया के नेतृत्व मे किए गए एक अंतरराष्ट्रीय शोध में खुलासा हुआ है कि हर साल समूची दुनिया में 15 लाख से ज्यादा मौतें जंगल की आग से होने वाले प्रदूषण से होती हैं। शोध में वैज्ञानिकों का मानना है कि जले हुए पदार्थ से कार्बन कार्बन डाई आक्साइड का रूप ले सकता है। धुंए में मौजूद कार्बन डाई आक्साइड मोनो आक्साइड के संपर्क में लम्बे समय तक रहने से दम घुटने जैसी स्थिति हो सकती है।
मोनाश यूनिवर्सिटी के शोध के अनुसार सन 2000 से 2019 के बीच दुनिया भर के 204 देशों में हर साल 15 लाख 30 हजार मौतें जंगल में लगी आग से होने वाले वायु प्रदूषण से हुईं हैं। यह अमेरिका के वाशिंग्टन यूनिवर्सिटी के इंस्टीटयूट आफ हैल्थ मैट्रिक्स के सहयोग से किया गया है। देखा जाये तो यह समय के साथ दुनियाभर में स्वास्थ्य के नुकसान का सबसे बड़ा और सबसे व्यापक अनुमान है। दरअसल जंगल में लगी आग से होने वाले वायु प्रदूषण के कारण होने वाली 90 फीसदी से ज्यादा मौतें निम्न और मध्यम आय वाले देशों खासकर उप सहारा अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व, दक्षिण, पूर्वी एशिया, चीन और इंडोनेशिया में हुईं। देखा जाये तो वैश्विक स्तर पर होने वाली 15 लाख 30 हजार मौतों में से 4 लाख 50 हजार हृदय रोग से, 2 लाख 20 हजार श्वसन रोग से होती हैं। जंगल में लगी आग से निकलने वाले सूक्ष्म कणों ने 77.6 फीसदी मौतों में योगदान दिया और सतही ओजोन ने 22.4 फीसदी मौतों में योगदान दिया।
जबकि नेशनल साइंस फांउडेशन सेंटर फार एटमास्फेरिक रिसर्च के वैज्ञानिकों के शोध में इस तथ्य का खुलासा हुआ है कि शहरी इलाकों में लगने वाली आग से उठने वाला धुंआ जंगल में लगी आग की तुलना में अधिक जानलेवा और खतरनाक है। यह सेहत के लिए बेहद हानिकारक है। वन्य भूमि-शहरी इंटरफेस आग के डाटा और उन्नत कंप्यूटर मॉडलिंग तकनीक के उपयोग के माध्यम से किए गए अध्ययन से इस बात के प्रमाण मिले है कि जंगलो से सटे शहरी इलाकों मे लगने वाली आग से निकलने वाले धुंए से होने वाली समय से पहले मौतों की संभावना सामान्य जंगल की आग की तुलना में लगभग तीन गुणा अधिक होती है। इसका कारण ऐसी आग और उससे निकलने वाले प्रदूषक सीधे आबादी वाले क्षेत्र के करीब होते हैं।
भले वन्य भूमि-शहरी इंटरफेस जहां जंगल और शहरी क्षेत्र आपस में मिलते हैं यानी डब्ल्यू यू आई आग से वैश्विक स्तर पर कम प्रदूषण फैलता हो, लेकिन इसका प्रभाव बेहद गंभीर होता है। कारण यह है कि ये घनी आबादी को गहरे तक प्रभावित करता है।असलियत में वन्य भूमि-शहरी इंटरफेस इलाके पहले की तुलना में आजकल तेजी से लगातार बढ़ रहे हैं। ये बढ़कर आज दुनियाभर की कुल भूमि का लगभग पांच फीसदी हिस्सा हो चुके हैं। गौरतलब है कि अंटार्कटिका को छोड़कर सभी महाद्वीप में फैले इन इलाकों में आग भयावह रूप ले रही है। सच्चाई यह है कि डब्ल्यूयूआई आग से निकलने वाले धुंए में विश्लेषण तत्व अधिक होते हैं क्योंकि इसमें पेडो़ं और वनस्पतियों के साथ-साथ इमारतों,घरों और दूसरी संरचनाओं की सामग्री भी जलती है। ये जलती हुयी संरचनाएं कई हानिकारक रसायन छोड़ती हैं। ये रसायन हवा में मिलकर अधिक जहरीला धुंआ बनाते हैं। अध्ययन में पाया गया कि आग से होने वाले उत्सर्जन में डब्ल्यूयूआई आग की हिस्सेदारी केवल 3.1 फीसदी है। लेकिन इसकी वजह से समय से पहले होने वाली मौतों में इनका योगदान 8.8 फीसदी है। क्योंकि इस तरह की आग से निकलने वाले धुंए का सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है।
चीन की हेफेई यूनिवर्सिटी में दुनिया के 20 देशों के करीब 3,000 शहरों के बढ़ते तापमान के आंकड़ों के हुए अध्ययन में वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि आग लगने की यही रफ्तार रही और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन ऐसे ही जारी रहा और धरती इसी तरह गर्म होती रही तो ये आंकड़ा तेजी से बढ़ेगा। इसके काफी बुरे परिणाम होंगे और सदी के आखिर तक लाखों लोगों की मौत की वजह आग बन जायेगी। भारत में जंगल की आग खासकर हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण और जलस्रोतों दोनों के लिए गंभीर चिंता का विषय है।भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 21 फीसदी हिस्सा वन क्षेत्र है। इनमें से कई इलाके सूखे जंगलों वाले हैं। ये इलाके आग के लिए बेहद संवेदनशील होते हैं।भारत सरकार के फॉरेस्ट सर्वे आफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 30,000 से ज्यादा घटनायें जंगल की आग की दर्ज की जाती हैं। इन घटनाओं का अधिकांश एक बड़ा हिस्सा हिमालय, जम्मू-कश्मीर, भारत और दक्षिण भारत में होता है। हिमालयी इलाके सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। यहां ढलान और कठिन भूगोल के कारण आग तेजी से फैलती है जिसे बुझा पाना आसान नहीं होता है। यहां देवदार, चीड जैसे पेड होते हैं जिनकी पत्तियां और रेजिन जल्दी आग पकड़ती हैं। हकीकत यह है कि कम वर्षा होने से इस इलाके को बहुत बड़ा खामियाजा उठाना पड़ रहा है जिससे यह इलाका और सूखा होता जा रहा है।
वैज्ञानिक इस आग की वजह जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को मानते हैं। असलियत यह है कि चूंकि जंगल में लगने वाली आग गर्म होती जलवायु में बड़ा योगदान दे रही है और गंभीर होती जा रही है, इसलिए जलवायु से संबंधित मृत्युदर और उससे जुड़े पर्यावरणीय अन्याय पर इस तरह के बडे प्रभाव को दूर करने के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है ताकि कमजोर विकासशील देशों को जंगल की आग से होने वाले वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य प्रभावों का प्रबंधन करने और मृत्युदर में सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने में मदद मिल सके। मैदानी इलाकों में आग से संबंधित वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य प्रभावों को प्रबंधित करने के लिए इन प्रयासों को जलवायु शांत करने और अनुकूल नीतियों के साथ जोड़ना होगा तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)