आत्मनिर्भर होने के मायने : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं 

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महात्मा गांधी का उदय और अहिंसा के साथ स्वदेशी न्यासिता व विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, खादी के प्रति समर्थन के विचार से उपभोक्ता संस्कृति में बदलाव आया परन्तु भारत को जब 1947 में आजादी मिली तब राजनीतिक और आर्थिक स्थितियां पूर्णतया अस्थिर थी, खजाना खाली था, विदेशी मुद्रा नहीं थी, पूंजीगत वस्तुएं आयात पर निर्भर थी, आयात पर सख्त नियंत्रण आवश्यक था। उस समय बढ़ती हुई आबादी के लिए बुनियादी खाद्य पदार्थो की कमी, अमेरिका से गेंहू आयात करने का विवश थे। पूंजीगत वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए औद्योगिक क्षेत्र पर जोर देना आवश्यक था, निजी क्षेत्र में उत्पादन सरकार के निर्देशों के अनुसार होना आवश्यक था। औद्योगिकरण के प्रति निष्क्रिय बने रहने के परिणामस्वरूप देश गरीब था। कुल जनसंख्या का छठे भाग से भी कम साक्षरता थी। विश्व आय में भारत का हिस्सा अत्यन्त कम था, प्रति व्यक्ति आय के मुकाबले में दुनिया में पिछड़ गया था। राजनीतिक आम सहमति के साथ आर्थिक विकास की योजना बनाना था। सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र में अनिवार्य रूप से अधिक प्रगति में अग्रणी भूमिका निभा सकते थे। योजनाबद्ध विकास का माडल अपनाया गया।

पहली पंचवर्षीय योजना कृषि व सिंचाई पर केन्द्रित थी। पांच भारतीय प्रोद्योगिक प्रतिष्ठान आईटीआई शुरू की गई। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना, उच्च शिक्षा को मजबूत करने व वित्तिय पोषण हेतु की गई। पांच इस्पात संयत्रों को अस्तित्व में लाया गया, सार्वजनिक क्षेत्र के विकास का मार्ग प्रशस्त किया गया। औद्योगिकरण, बुनियादी पूंजीगत माल उद्योगों की स्थापना पर जोर दिया गया।

अमेरिका और ब्रिटेन जैसी आर्थिक शक्तियों के साथ भारत के राजनैतिक संबंध अच्छे नहीं थे। सोवियत संघ के साथ बरीबी संबंध बने। विदेशी मुद्रा बचाने के लिए खपत वाली वस्तुओं के आयात पर नियंत्रण रखना पड़ा, उत्पादन बढाने की रणनीति अपनायी गई। 1962 व 1965 के युद्धों से संसाधनों की कमी हुई, खाद्यान्नों की कमी दूर करने के लिए ओएल 480 कार्यक्रम के तहत अमेरिका से गेंहू का आयात किया गया। पंचवर्षीय योजनाओं से स्पष्ट था निजी क्षेत्र में उत्पादन सरकार के निर्देश पर होगा। सार्वजनिक क्षेत्र में वृहत संस्थान कायम हुए। 1970 के दशक में बैंका का राष्ट्रीयकरण किया गया। हरित क्रान्ति व दुग्ध क्रान्ति की सफलता से कृषि क्षेत्र आगे बढ़ा। 1982 की औद्योगिक नीति से आयात में ढील प्रारम्भ हुई, विदेशी कर्ज बढ़ा।

1991 में आर्थिक उदारीकरण का माडल अपनाया गया, स्वतंत्र बाजार नियामको की प्रणाली अपनाई गई। 1993 के पश्चात देश में एफडीआई बढाने के लिए नीतियों में परिवर्तन किया, 1990 के दशक में भारत खाद्यान्न का निर्यातक बन गया। 1960 के दशक में 9 करोड टन खाद्यान्न उत्पादन करने वाले देश में 20 करोड टन होने लगा, जीडीपी में वृद्धि हुई परन्तु भारत कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था से आधुनिक औद्योगिक अर्थिव्यवस्था में नहीं पंहुच सका। यद्यपि भारत खाद्यान्न का बड़ा निर्यातक बनकर उभर गया, एमएसएमई प्रतिस्पर्धा में बढ नहीं सकी। 1990 के बाद समूचा जोर बाजारों को खोलने तथा शेयर बाजारों, प्रतिस्पर्धा नीति, स्वतंत्र बाजार नियामकों की प्रणाली के जरिये दिया गया। औद्योगिक आधार के लिए मजबूत नींव पड़ी।

वर्तमान सरकार ने उदारीकरण से आगे बढ़कर निजीकरण की नीति अपना ली। मोद्रीकरण व विनेशीकरण की नीति अपनाई, जीएसटी लागू की गई। मानटाइजेशन के साथ सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों का विक्रय कर, निजीकरण कर, उद्योगपतियों की भागेदारी बढ़ाकर आर्थिक दृश्य को बदलने का प्रयास किया जा रहा है। आज का आर्थिक सिद्धांत स्पष्ट है कि कारोबार में बने रहना सरकार का काम नहीं है। नागर विमानन, आतिथ्य जैसे क्षेत्रों में सरकार की भागेदारी समाप्त की जा रही है।

आज अर्थव्यवस्था कोविड-19 से असरदोज है इसलिए डीजल व पैट्रोल पर कृषि ढांचागत उपक रनाम से नया कर लगाया गया है। बीमा क्षेत्र में एफडीआई की उपरी सीमा 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत कर दी गई। 2021 में राजकोषीय घाटा 9.3 प्रतिशत पंहुच गया। सरकार 2022 के राजकोषीय घाटे को मौद्रीकरण से पाटना चाहती है। मौद्रीकरण सड़क, रेलवे मार्ग, हवाई अड्डो जैसे परियोजनाओं को पट्टे पर देकर स्वामित्व वाली जमीन व अन्य परिसंपत्तियों की बिक्री कर पैसा जुटाने का तरीका अपनाया जा रहा है। वित्तीय वर्ष 2022 में सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों को निजी हाथों में सौंप रही है, बीमा कंपनी में हिस्सेदारी कम कर रही है। बीपीसीएल को आईसी और एससीआई की विनेशीकरण किया जा रहा है। नई रेलवे लाई पीपीपी माडल पर डाली जायेंगी। चरणबद्ध तरीके से सुचारू रूप से चलने वाली पब्लिक सेक्टर यूनिट्स को बीमारू उपक्रम बनाकर निजी हाथों में बेच रही है। एक ओर आत्मनिर्भर बनाने की बात की जा रही है वहीं सौ फीसदी एफडीआई का फार्मूला तैयार किया गया है। इस वर्ष 1.75 लाख करोड का विनिवेश लक्ष्य है।

महामारी के चलते जो क्षति पंहुची उसकी भरपाई मुश्किल लग रही है। कीमतें बढ़ रही है, गरीबी बढ़ रही है, बेरोजगारी बढ़ रही है, असमानता बढ़ रही है। वर्तमान सरकार ने अर्थव्यवस्था को संकट से उभारने के लिए जो पैकेज दिये है वे नाकाफी है, राजकोषीय घाटा सीमायें लांघ रहा है। ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में अपेक्षित सुधार और बदलाव नहीं दिखता उसके मूल में अनियोजित विकास बढ़ रहा है। आधारभूत ढांचा चरमराता दिख रहा है। राजनीति साख के संकट से जूझ रही है। चुनौती भरे समय का सामना सकारात्मक सोच से संभव है जिसका स्पष्ट अभाव है। सुरपर रीच (अमीरों) पर टैक्स लगाने से सरकार बच रही है, कल्याणकारी योजनाओं पर व्यय घट रहा है। गरीबों पर खर्च घट रहा है, गरीबी का संकट गहरा रहा है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की विदाई स्पष्ट दिखाई पड़ रही है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)