लेखक: नवीन जैन
स्वतंत्र पत्रकार, इंदौर (मध्य प्रदेश)
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कविता, गीत, गज़ल, नज्म के बारे में कहा जाता है कि इनका ख़्याल एकदम से दिल में किसी भी कारण से हलचल करने लगता है, और मिनटों में बात बन जाती है। भवभूति ने वैसे भी कहा है कि आत्मा की आवाज़ को कविता कहते हैं। जहां तक कहानी या उपन्यास का सवाल है, तो इनका कथानक, तथा अन्य ज़रूरी उपकरण दिलो_ओ_दिमाग की सिगड़ी में पहले अच्छी तरह से पकते हैं, और फिर कागज़ पर उतरने हैं। ख़ैर ।
फिल्मी, और मंचीय गीतकार संतोष आनंद काफ़ी बुजर्ग हो चुके हैं। उन्होने सौ से कुछ ही ज्यादा गीत लिखे, लेकिन एक नई भाषा, शैली, उपमा, प्रतीक आदि के कारण वे आज भी बड़े ठाठ से सुने जाते हैं। जब वे फिल्मों में अपनी कलम का हुनर दिखाने मुंबई आए थे, तो सबसे पहले उन्हें फिल्मकार, तथा अभिनेता मनोज कुमार ने मौका दिया था। सहज_सरल शब्दावली में लिखे उनके गीतों ने बालीवुड का एक तरह से माहौल ही बदल दिया था, लेकिन फिल्मी दुनिया में भी तब खेमेबाजी के चलते उन्हें मनोज कुमार घराने का ही गीतकार मान लिया गया।
इसी बीच ग्रेट शो मैन स्व. राजकपूर ने प्रेम रोग फिल्म (1982) पर काम शुरू किया। इसमें उन्होंने अपने बेटे स्व.ऋषि कपूर के साथ पद्मिनी कोल्हापुरी को लीड रोल में लिया था फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया था। फिल्म से अच्छा उसका एक गाना चला। अभी गाने के बोल बता देने से सारा मज़ा किरकिरा भी हो सकता है। संतोष आनंद साहब के साथ यह दिक्कत भी थी कि वे मनोज कुमार का ग्रुप छोड़कर राजकपूर के साथ जाएं भी तो कैसे?मनोज कुमार को बुरा लग गया तो? मगर आखिरकार हिम्मत की। राजकपूर भी समाज सुधार के भाव_बोध से ओत_प्रोत सिनेमा बनाते थे। उन्होंने संतोष आनंद को उक्त गाने का दृश्य समझाया।
संतोष आनंद ने खूब मेहनत की हाथ_पैर मारे, कागज़ फाड़े, लेकिन आखिर बात बने, तो बने कैसे ? आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वे अगली उड़ान पकड़कर वापस दिल्ली आ धमके। पत्नी ने कहा_यह क्या बात हुई? कल गए, और आज वापस। काम हो गया शायद? नहीं। मुझे जो दृश्य दिया गया है, उस पर मैंने बहुत सोचा, लेकिन जब मुझे ही मेरा गाना पसंद नहीं आ रहा,तो कपूर साहब, और लोगों को, तो पसंद आने से रहा। इसीलिए मैं लौट आया। दोतीन बाद ही जैसे करिश्मा हो गया।
संतोष आनंद अपनी बेटी को गोद में लेकर खिला रहे थे। अचानक उनके दिल में बिजली की तरह भावना कौंधी कि जब मेरी यह बेटी विवाह के पश्चात बिदा होगी ,तब मुझे कैसा लगेगा? कैसा माहौल बनेगा? बस। उन्होंने बेटी को पत्नी के हवाले किया, और सामने रखे कागज़ पर उक्त महा हिट गीत के अंतरे लिख लिए। सुबह की फ्लाइट से मुंबई आए, और राजकपूर को गाना सौप दिया। कपूर साहब ने पढ़ा। बोले_हो गया काम। वो गाना यदि ऊंची आवाज़ (स्व. लता मंगेशकर)में सुना जाए तो एक साथ हंसाता भी है, नचाता भी है, और फिर खूब_खूब रुलाता भी है। वैसे भी अच्छी शायरी उदासी में ही जाकर खत्म होती है । उक्त गाने के बोल हैं_ये गलियां ये चौबारा, यहां आना न दोबारा, कि हम तो चले परदेस, कि तेरा यहां कोई नहीं...
दुनिया भर में नाम कमा चुके पद्म अलंकरण से सम्मानित शायर डॉ. बशीर बद्र काफी समय से डिमेंशिया नामक मनोरोग से ग्रस्त होकर भोपाल में आराम कर रहे हैं। अपने ज़माने में उनकी एक गजल बड़ी चर्चित हुई थी। बात कहने का अंदाज़ इतना निराला था कि इन्दौर में एक मुशायरे के पहले मैं उनसे उक्त गजल की पीठिका या बुनियाद के बारे में पूछे (इंटरव्यू के दौरान) बिना नहीं रह सका।
उन्होंने बताया कि मेरी ट्रेन गंगा के ऊपर पुल से गुजर रही थी। सुबह ने रात की सभी बेमुरुवतें जैसे भुला दी थीं। हर तरफ उजाले के रूप में जैसे खुदा हंस रहा था। मैंने (डॉ. बशीर बद्र ने) गजल का पहला शेर उर्फ मतला लिखा, और कुछ मिनटों में पांच शेरों की गजल कागज़ पर उतर आई ,जिसे मशहूर गजल गायक चंदन दास ने गाया। पहला शेर है न जी भर के देखा न कुछ बात की, बड़ी आरजू थी मुलाकात की। शेर, तो जनाब दूसरा सुनें_उजालों की परियां नहाने लगीं नदी गुनागनाई ख्यालात की।