धरती के विनाश से बेखबर क्यों हैं हम : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद हैं।)

आज धरती विनाश के कगार पर है। लेकिन हम मौन हैं।  हम यह नहीं सोचते कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं और उसे किन हालात में छोड़कर जा रहे हैं। हम यह भी नहीं सोचते कि हम उसके सामने कैसी विषम परिस्थितियां खडी़ कर रहे हैं। इनका मुकाबला कर पाना हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए आसान नहीं होगा बल्कि वह बहुत ही दुष्कर होगा।  क्योंकि मानवीय स्वार्थ ने पृथ्वी,  प्रकृति और पर्यावरण पर जो दुष्प्रभाव डाला है, उससे पृथ्वी बची रह पायेगी, आज यह मुद्दा सर्वत्र चर्चा का विषय बना हुआ है जो चिंतनीय है। शोध और अध्ययन सबूत हैं कि अभी तक छह बार धरती का विनाश हो चुका है और अब धरती एक बार फिर सामूहिक विनाश की ओर बढ़ रही है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमने अपने स्वार्थ और सुख-सुविधाओं की अंधी चाहत के चलते इसे कबाड़खाने में तबदील कर दिया है। 

यदि हम धरती के बीते 500 सालों के इतिहास पर नजर डालें तो धरती पर तकरीब 13 फीसदी से ज्यादा प्रजातियां अभी तक विलुप्त हो चुकी हैं और हजारों की तादाद में प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं। यह जैव विविधता के गिरावट के भयावह संकट का संकेत है। इसका सबसे बडा़ कारण प्रकृति का बेतहाशा दोहन, शोषण और बढ़ता प्रदूषण है। जलवायु परिवर्तन ने इसमें अहम भूमिका निबाही है इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। यह भी कि जलवायु परिवर्तन ने पेड़-पौधों पर पानी का दबाव बढा़ दिया है।  इसका कारण बारिश के स्वरूपों में दिन-ब-दिन तेजी से आ रहा बदलाव है जिसके चलते बारिश पर निर्भर फसलों पर इसका ज्यादा असर पड़ा है। क्योंकि जब पेड़-पौधों की जड़ें पानी से अपना संपर्क गंवा देती हैं, उस दशा में वह अपनी शाखाएँ बढ़ाना तक बंद कर देती हैं। ब्रिटेन के वैज्ञानिकों के हालिया अध्ययन इसके जीते-जागते सबूत हैं। 

असलियत यह है कि जलवायु परिवर्तन के खतरे अब हर ओर दिखाई देने लगे हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि इसके दुष्प्रभावों से पर्वतों पर दिनोंदिन कम होती जा रही बर्फ की ओर कम ध्यान दिया जा रहा है। दुनिया में पानी के एकमात्र स्रोत ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। आने वाले दशकों में इन स्रोतों से पानी गायब हो सकता है, इसकी चिंता किसी को नहीं है। इन हालात में अगले लगभग छह दशकों में एक अनुमान के मुताबिक इनका या तो नामोनिशान मिट जायेगा या ना के बराबर रह जाएंगे। तात्पर्य यह कि ये पर्वत बर्फ विहीन हो जायेंगे। 

यही नहीं जलवायु परिवर्तन के कारण शुष्क मौसम के चलते दुनिया में गिटार, वायलिन और अन्य वाद्ययंत्र बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली दुर्लभ लकडी़ के फ्रांस और स्विट्ज़रलैंड के पर्वतीय इलाका में फैले 20 से 60 मीटर तक की ऊंचाई के स्प्रूस ट्री के जंगल हमेशा-हमेशा के लिए सूख जायेंगे। असलियत यह है कि जीव - जंतुओं की हजारों प्रजातियों, प्राकृतिक स्रोतों और वनस्पतियों की तेजी से हो रही विलुप्ति के चलते पृथ्वी दिन-ब-दिन असंतुलित हो रही है। 

आधुनिकीकरण के मोहपाश के बंधन के चलते दिनोंदिन बढ़ता तापमान, बेतहाशा हो रही प्रदूषण वृद्धि, पर्यावरण और ओजोन परत का बढ़ता ह्वास, प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन, ग्रीन हाउस गैसों का दुष्प्रभाव, तेजी से जहरीली और बंजर होती जा रही जमीन, वनस्पतियों की बढ़ती विषाक्तता आदि यह सब हमारी जीवनशैली में हो रहे बदलाव का भीषण दुष्परिणाम है। सच कहा जाये तो इसमें जनसंख्या वृद्धि के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। इसने पर्यावरण, प्रकृति और हमारी धरती के लिए भीषण खतरा पैदा कर दिया है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)