न कोई थकन है, न कोई ऊबन है, बड़ा ही सुहाना हमारा ये सफर है
लेखक : नवीन जैन 

स्वतंत्र पत्रकार, इंदौर (एमपी)

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उक्त तमाम सफल पारसी व्यक्तियों के व्यक्तित्व विश्लेषण से पता चलता है कि इन सभी ने अपने पारिवारिक कारोबार को जवानी या युवावस्था में ही सम्हाल लिया था। भले ही उनकी शिक्षा विदेशों में हुई हो, लेकिन देश के प्रति प्रतिबद्धता की वजह से वे अपने वतन को लौट आए। जैसे–रतन टाटा। जिन्हे भारत रत्न दिए जाने से सम्मानीत की जाने की मांग की जा रही है। वे 80 पार हो चुके हैं। लेकिन अविवाहत हैं। आमतौर पर देखा जाता है कि उक्त समुदाय दिखावटी या नकली जीवन यापन से पर्याप्त फासला बनाए रखता है । एयर इंडिया  अधिग्रहण पहले सरकार ने कर दिया, लेकिन कुछ महीनों पहले ही उसे रतन टाटा को वापस कर दिया। जान लें कि इस एयर सर्विस की शुरुआत दादा भाई नौरोजी ने की थी। उन्होंने ही एशिया के सबसे बड़े स्टॉक एक्सचेंज की नींव डाली थी।

जिन सायरस मिस्त्री का पिछले दिनों सड़क दुर्घटना में आकस्मिक निधन हो गया, वे उस पारसी या ईरानी समुदाय वे आते थे, जिनका भारत की प्रगति में योगदान ऐसा है कि जिसकी मिसाल नहीं मिलती। ऐसा कोई रिकार्ड कहीं नहीं मिलता कि जिससे मालूम हो सके कि पारसियों के समान अन्य किसी मुट्ठी भर समुदाय ने इतने बड़े देश भारत में चौतरफा विकास में इतनी अहम भूमिका दर्ज की हो।

सबसे पहले उद्योग जगत के पितामह माने जाने वाले दादा भाई नौरोजी का नाम याद पड़ता है, फिर विभिन्न कम्पनियों के मालिक रतन टाटा के नाम का हवाला दिया जा सकता है। इसी टाटा ग्रुप के सायरस मिस्त्री पूर्व चेयरमेन थे । बाम्बे डाइंग के मालिक नुस्ली वाडिया, पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी, अभिनेता जॉन इब्राहम, पूर्व फिल्म स्क्रिप्ट राइटर हनी ईरानी (प्रसिद्ध फिल्म स्क्रिप्ट राइटर एवं गीतकार जावेद अख्तर की पूर्व पत्नी), चिंतक और अमेरिका में भारत के पूर्व राजदूत नानी पालखीवाला, पूर्व महान क्रिकेटर सुनील गावस्कर के सबसे विश्वस्त ओपनर साथी माने गए फारुख इंजीनियर, गोदरेज समूह, नरीमन समूह आदि सभी पारसी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। खास बात यह है कि यह समुदाय कभी भारत में शरणार्थ बनकर आया था, लेकिन अन्य शरणार्थियों की तरह इन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और राजनीति व्यवस्था का शोषण नहीं किया, बल्कि उसमें अपना योगदान देते हुए परोपकार, मानव हित के काम किए,जिसके उदाहरण आज भी हैं, जैसे– टाटा मेमोरियल कैंसर हॉस्पिटल, नैरोजी की याद में बनाया गया मुम्बई में बनाई गई पहली यूनिवर्सिटी, बॉम्बे डाइंग की आज भी पुरानी विश्वसनियता कायम है। 

उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार सातवीं से लेकर आठवीं शताब्दी में ईरान में पारसी या ईरानी समुदाय को विभिन्न मुस्लिम राजा–महाराजाओं द्वारा हर तरह से सताया जाने लगा। पारसी समुदाय जुरासियम धर्म में विश्वास रखता है, जो दुनिया के तमाम पुराने धर्मों  में से एक है। इसका मूल सिद्धांत है अच्छा सोचो–अच्छा करो और ऐसे ही जीओ। इसीलिए पारसी समुदाय की परोपकार में आज भी मिसाल नहीं है। यह धर्म एक ही भगवान में विश्वास रखा है, जिसे वे सुप्रीम मानते हैं।

भारत में लगभग सवा सौ साल पहले पारसियों में प्रजनन की दर सबसे अधिक थी। सन् 1941 की जनगणना के अनुसार यह समुदाय 1,14,890 की संख्या में था, लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि पूरी दुनिया में पारसी समुदाय की जनसंख्या सिमटती जा रही है और यह सबसे ज्यादा भारत में ही है, जिनकी संख्या 56 या 57 हजार ही बताई जाती है। करीब तीन हजार पारसी पाकिस्तान में भी निवास करते हैं, लेकिन भारत में मुख्य रूप से मुम्बई, पुणे, नवसारी (गुजरात) और अन्यत्र यह समुदाय फैला हुआ है।

जब यह समुदाय नावों और जहाजों में बैठकर ईरान से खानाबदोशों की तरह चला था, तो उसने भारत को एक सही ठिकाना माना था। माना जाता है कि उक्त टोली गुजरात के संजान शहर में रूकी। वहां एक रोचक घटना घटी। कुछ पारसियों ने वहां के शासक राणा से कहा कि देखिए हम विभिन्न राजाओं से उत्पीडित हैं। आप हमें भारत में ही रहने का अवसर दे दीजिए। हम आपकी सारी शर्तें मानने को तैयार हैं। राणा साहब ने अरूचि बताते हुए कहा कि भाई हमारे यहां तो जगह नहीं है और एक दूध से भरा गिलास उनके सामने कर दिया। कहा जाता है कि उस टोली के मुखिया ने कुछ शक्कर उस दूध में मिला दी और राणा साहब से कहा कि हुजूर यह शक्कर जिस तरह से दूध में घुल–मिल गई है, उसी तरह हम भी भारतीय समाज में तत्काल घुल–मिल जाएंगे। राणा को उक्त टोली की बुद्धिमत्ता और ईमानदारी भा गई और उन्होंने उन्हें बसने के लिए जगह दे दी, लेकिन कुछ शर्तें रख दी, जैसे–आपको गुजराती भाषा सीखनी पड़ेगी। आप शर्ते नहीं रख सकेंगे वगैरह। पारसियों ने इसे मान लिया। 

आगे के सालों में उक्त समुदाय अफीम की खेती करने लगा। साथ ही उनको कपास की फसल से भी बहुत आय होने लगी। तत्कालीन शासकों ने कहा कि आप कपास की खेती कर रहे हैं तो आपकी महिलाओं को भारतीय सभ्यता के अनुसार साड़ी पहननी होगी। माना जाता है कि सबसे पहले उक्त पारसियों ने चीन से व्यावसायिक सम्बन्ध स्थापित किए। जान लें कि तब भारत सोने की चिड़िया कहा जाता था और भारत की कुल जीडीपी दुनिया की जीडीपी का 27 फीसद थी। अगर इसमें चीन की भी जीडीपी मिला दी जाती, तो यह प्रतिशत दुनिया की कुल जीडीपी का आधे से ज्यादा हो जाता। इस अवसर को उक्त पारसियों ने भरपूर भुनाया। उन्होंने अफीम का निर्यात चीन को किया। कपास भी चीन को भेजा जाने लगा। अब दिक्कत यह आ गई कि अफीम के कारण चीन की नई नस्लें शारीरिक, मानसिक रूप से बर्बाद होने लगी, तो चीनी प्रशासन ने अफीम के आयात पर तो रोक लगा दी, लेकिन कपास से जो रेशम चीन में बनती थी, उसकी साड़ियां भारत के राजा–महाराजाओं की बहू–बेटियां और सामान्य महिलाएँ भी बड़े शौक से पहनने लगी।

18वीं शताब्दी तक पारसियों ने धार्मिक अल्पसंख्यकों की भांति एकांतवाद भोगा। ये लोग सिर्फ अफीम और कपास की खेती में ही लगे रहे। 18वीं शताब्दी के बाद यह समुदाय देश के छोटे–बड़े शहरों में फैलने लगा और दिलचस्प तथ्य यह भी रहा कि सन् 1780 में मुम्बई में केवल 33,444 लोग निवास करते थे, जिनमें कम से कम 3,087 (9.2 प्रतिशत) पारसी थे। सन् 1857 में मुम्बई में विश्वविद्यालय की स्थापना करके पारसियों ने अपने सामाजिक दायित्व का पहला परिचय दिया। सन् 1952 में दादा भाई नौरोजी और एल्फिंस्टन कॉलेज के गणित के पहले प्रोफेसर पारसी व्यक्ति ही नियुक्त किए गए। उसी दौरान मुम्बई में जग प्रसिद्ध कॉलेज आफ आर्ट्स पारसी समुदाय ने स्थापित किया। आगे के सालों में मुम्बई में पहले 100 योग्य भारतीय वकीलों में 46 तथा 73 भारतीय अटार्न में 40 पारसी थे। इसी दौरान मुम्बई प्रांत के सेकेण्ड्री स्कूल में7 प्रिंसिपल पारसी थे। पूरे प्रांत में 7 सर्जन थे, जिनमें से 6 पारसी थे। 

52 मेडिकल असिस्टेंट थे जिनमें पारसियों की संख्या 23 थी। नानी पालखीवाला उस व्यक्ति का नाम है, जो अमेरिका में करीब दो साल भारत के राजदूत तो रहे ही, वे नामी अधिवक्ता भी थे। सन् 1848 में दादा भाई नौरोजी के नेतृत्व में युवा समाजसुधारकों ने एक स्टूटेंड लिटररी सोसायटी की स्थापना की। इस सोसायटी का उद्देश्य जनता के शिक्षा स्तर को ऊपर उठाने के लिए स्कूल की सुविधा तथा स्वयंसेवी अध्यापकों का प्रबंध करना था। उक्त संस्था नारी शिक्षा को विशिष्ट स्थान प्रदान करती थी, जिसके लिए आज भी भारतीय समाज में रस्साकशी चलती रहती है। उन दिनों की बालिकाओं की शिक्षा में पारसी समुदाय दूसरे समुदायों से एक दशक आगे माना जाता था। जमशेदजी टाटा तथा उनके उद्यमों में नये–नये श्रमिक सुधार लागू किए जो आज कानून बन चुके हैं। जैसे फैक्ट्री अधिनियम, कर्मचारी भविष्य निधि नियम, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, श्रमिक मुआवजा अधिनियम, बोनस भुगतान अधिनियम तथा ग्रेज्युटी भुगतान अधिनियम।

कर निर्धारण वर्ष 1905–05 मेंएक लाख रुपए से अधिक वार्षिक आय वाले करदाताओं में 7 हिन्दू, 6 पारसी तथा 4 मुसलमान थे। प्रथम वाष्प चलित मिल्क डावर नाम के एक पारसी द्वारा स्थापित की गई। पारसी खुद तो समृद्ध रहे ही, उन्होंने अन्य को भी समृद्ध बनाया। 1864 की जनगणना के अनुसार मुम्बई में एक भी पारसी भिक्षुक नहीं था। जमशेदजी टाटा भारत में टेक्नोलॉजी युग के अग्रदूत हैं। जवाहरलाल नेहरू उन्हें वन मेन प्लानिंग कमीशन कहते थे। तकनीकी रूप से भारत के विकास की जितनी गहरी संकल्पना जमशेदजी टाटा ने की थी, माना जाता है कि उनकी संकल्पना आज तक कोई भारतीय नहीं कर पाया। बैंगलुरू स्थित इंडियन स्टूडेंट आ°फ साइंस उनकी स्मृति में स्थापित किए गए कीर्ति स्तम्भों में से एक है। खास बात यह है कि जमशेदजी टाटा ने अकेले अपने हाथों से उस कर्ज से कई गुना अधिक भारत को वापस कर दिया जो उनके पूर्वजों को हजारों वर्ष पहले पश्चिमी भारत में शरण देकर प्रदान किया गया था। संयोगवश 1980 से पहले केवल 3 भारतीय ब्रिटिश सांसद में निर्वाचित हुए थे तथा वे तीनों पारसी थे– दादा भाई नौरोजी, मनछेड़जी भावनागरी एवं सकलातवाला। पारसी समुदाय ने कभी कोई विशेषाधिकार या आरक्षण की मांग नहीं की।

दादा भाई नौरोजी ने एक बार कहा था कि मैं चाहे हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई या किसी अन्य जाति का हूं, मगर सबसे पहले मैं भारतीय हूं। हमारा राष्ट्रीयता भारतीय है। फिरोजशाह मेहता ने कहा था कि मैं समझता हूं कि एक पारसी भी वैसा ही अच्छा तथा स सच्चा पारसी है, जैसे मुसलमान, हिन्दू अच्छा मुसलमान या हिन्दू है। वह उतना ही अपनी मातृभूमि से जुड़ा हुआ महसूस करता है, उतना ही देशवासियों के साथ बंधुत्व तथा स्नेह की डोरी में बंध जाता है। इसका साक्षात उदाहरण देश के पहले फिल्ड मार्शल स्व. जनरल सेम बहादुर मानेक शॉ थे, जिनके नेतृत्व में 1971 में भारत–पाक युद्ध के दौरान मात्र 14 दिनों में 93 हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों को हथियार डालने पड़े थे और अब बात की जाए विज्ञान की। भारत के परमाणु शक्ति के कार्यक्रम के जनक डॉ. होमी जहांगीर भाभा। जिस व्यक्ति ने भारत के जरिए पूरी दुनिया को कोविड के सभी टीके उपलब्ध करवाए, उसका भी नाम है अदार पूना वाला, मतलब पारसी। संगीत के द्वारा ब्रह्म के दर्शन करवाने वाले प्रसिद्ध संगीतज्ञ थे जुबिन मेहता।

ये प्रश्न हरदम अनुत्तरित रहेगा कि पारसी समुदाय की जनसंख्या सिमटती क्यों जा रही है? माना जाता है कि गरीबी में ही व्यक्ति संतानें ज्यादा पैदा करता है। एक अमीर व्यक्ति ऐसा नहीं करता। फिर भी प्रश्न उठता है कि क्या पारसी अपना स्वर्ण युग अपने अतीत के इतिहास में खोजते हैं अथवा उसे अपने अनदेखे भविष्य में खोजेंगे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)