संसदीय गरिमा तब और अब...

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

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संविधान निर्माताओ ने उत्कृष्ट संविधान की संरचाना की है। भारतीय संविधान की उद्देश्यिका में कहा गया कि “हम भारत के लोग दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत करते है। संविधान द्वारा प्रदत्त संसदीय लोकतंत्र में मूल बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति जाति, धर्म, रंग व लिंग चाहे वह किसी भी पृष्ठभूमि और स्तर को हो, समान अवसर प्राप्त करने का अधिकारी है। लोकतंत्र में जनता सर्वोपरी है। जीते हुए जनप्रतिनिधि शासक नहीं सेवक है। शासन संबंधी फैसले लोकतंत्र में जनता की इच्छाओं और आवश्यकताओं को देखते हुए किये जाने की आवश्यकता है।

भारत की संसद में अनेक वरिष्ठ, वाक्-कुशल, उच्च चरित्र व शालीनता के लिए प्रसिद्ध सांसद हुए है, उनका स्वभाव बहुत विनम्र था एवं गरिमा रखते थे। ऐसे सांसद प्रत्येक समय संसद में बोलते थे, पक्ष-विपक्ष की आलोचनाओं को सहन करते थे। कही गई अच्छी बातों को ग्रहण करने का प्रयास करते थे। अब कुछ वर्षो से  उच्च शिक्षा प्राप्त सदस्यों की संसद में पहुंच के बावजूद, विचार विमर्श, वाद विवाद का स्तर और सदस्यों की रूची कम होती गई। सदस्यों पर कारपोरेट जगत का प्रभाव बढ़ता गया। जातिवाद से ग्रसित सदस्य चुने जाने लगे। क्षेत्रवाद, जातिवाद, निजी हित हावी हो गये है एवं धनबल, बाहुबल के कारण अपराध एवं भ्रष्टाचार में लिप्त सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी। 

कुछ वर्षो में जनता में राजनीतिज्ञों, संसद और चुने हुए जनप्रतिनिधियों में आस्था और सम्मान में भारी कमी आई है। राजनीति के स्तर में गिरावट आयी है। कार्यपालिका ने विधायिका की स्थिति का लाभ उठाया। अब न्यायपालिका की भी परस्पर गुनाहों में शामिल होने की बातें देश की जनता के सामने आ रही है। देश की जनता अपने प्रतिनिधियों के काले कारनामों और कारस्तानियों से अनजान नहीं हैं। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व प्रेस के दागदार होने के कारण देश के विकास व अन्य क्षेत्रों पर व्यापक दुष्प्रभाव पड़ रहा हैं। महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, सामाजिक कुरीतियां, अपराध, भुखमरी, गैर कानूनी घटनाएं, आतंकवाद, नक्सलवाद व अपराधिक वारदातों का ग्राफ बढ़ रहा हैं।

यदि हम लोकसभा के इतिहास का अवलोकन करें तो पहले अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय विषयों पर बहुत सतर्क एवं सार्थक बहस होती थी। राष्ट्रीय समस्याओं पर क्षे़त्रीयता, जातिगत एवं संकुचित हितों से उपर उठकर विचार विमर्श होता था। आज सदस्यों के कार्य व्यवहार एवं चरित्र पर प्रश्न चिन्ह खुलेआम लगने लगे है। हमारे जनप्रतिनिधियों की सोच राष्ट्र को देने के स्थान पर ज्यादा से ज्यादा लेने में सम्मिलित हो गई है। गुणात्मकता, उपादेयता और मौलिकता समाप्त होती जा रही है। बुनियादी नियमों की अवहेलना से संघीय राजव्यवस्था खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है। राजकीय व्यवस्था के मूल सिद्धांत व मौलिक आदर्शो से हमारे जनप्रतिनिधि भटक रहे है। स्वेच्छाचारिता सत्तावाद बढ़ता जा रहा है। 

संविधान सभा में डा. अम्बेडकर ने कहा था कि ‘‘मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना ही इच्छा हो, वे लोग जिनकों संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जा रहा है, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब ही सिद्ध होगा। दूसरी ओर चाहे संविधान कितना ही खराब हो, यदि वे लोग जिनकों इसे अमल में लाने का काम सौंपा जाय तो संविधान अच्छा हो सकता है।’’

संविधान में संसद के प्रति संसदीय उत्तरदायी शासन प्रणाली, अल्पसंख्यकों के लिए रक्षा उपायों की व्यवस्था, प्रत्येक नागरिक के मूलाधिकार और कर्तव्यों, सरकारों के लिए नीति निदेशक तत्वों का स्पष्टतया अंकन किया है। अब जातिवाद व संप्रदायवाद के रूप में पारस्परिक विवाद, विचारधारा रखने वाले राजनैतिक दल बन गये है। भारतवासी यदि देश को पंथ से उपर रखेंगे तो एक स्थिति होगी और यदि पंथ को देश से उपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता खतरे में पड़ जायेगी। हमको दृढ़ निश्चिय के साथ आजादी की रक्षा करने का संकल्प करना चाहिए। कार्यपालिका, विधायिका, न्यायालय के पृथक अंग है, इन अंगों का संतुलन जनआकांक्षाओं की आपूर्ति के लिए राजनैतिक दलों पर निर्भर करता है।

हमारे संविधान निर्माताओं जिनमें स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद्, बुद्धिमान न्यायविद, देशभक्तिपूर्ण प्रतिष्ठित लोग थे, महसूस किया था कि हमारे प्रतिनिधि अगर देश व राष्ट्र हित को सर्वोपरी मानकर नहीं चले तो वयस्क मताधिकार बेहतर साबित नहीं होगा। इसीलिए उन्होंने तीनों संस्थाओं का सुविचारित ढंग से निर्माण किया। इससे न्यायिक निर्वाचन, संवैधानिक संशोधन तथा निर्माण और विकास की प्रक्रिया जारी रही और महत्वपूर्ण कार्य हुए। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में अपने समापन भाषण में कहा था कि ‘‘यदि जो लोग चुनकर आये, योग्य, ईमानदार व चरित्रवान हुए तो वे दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम बना देंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव है तो संविधान व देश कोई उम्मीद नहीं कर सकता। संविधान में प्राणों का संचालन उन व्यक्तियों द्वारा होगा जो उसे चलायेंगे। भारत को ऐसे लोगों की जरूरत है जो ईमानदार हो और देश हित को सर्वोपरी रखें। हममे विघटनकारी प्रवृतियां है। सांप्रदायि, जातिगत अंतर है, भाषागत अंतर है, प्रांतीय अंतर है। इसलिए दृढ़ चरित्र वाले दूरदर्शी लोगों की जरूरत है जो छोटे-छोटे समूहों और क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान नहीं करें और पूर्वाग्रहों से उपर उठकर देश को विकास की ओर ले जाये।’’

संवैधानिक सार्वजनिक वयस्क मताधिकार प्रणाली में अधिकांश भारतीय पढ़े लिखे नहीं है। उनका दर्जा उठाने और भेदभाव समाप्त करने के लिए यह अधिकार प्रदत्त किया था। संविधान में निहित मूलाधिकार के प्रावधान शासन तंत्र और उनके क्रियान्वयन पर निर्भर है। निदेशक तत्वों के साथ नागरिकों के मूल कर्तव्य भी अंकित किये गये है।

हमारे नवनिर्वाचित प्रतिनिधियों व राजनैतिक दलों को यह स्वीकार करना होगा और अमल करना होगा कि संसद में अपराधी प्रवृति के लोग नहीं आये। जिन लोगों पर गंभीर अपराध एवं भ्रष्टाचार के आरोप हो, उनको टिकट नहीं दे। दलीय हितों को छोड़कर राष्ट्र की सोचें। संविधान व संसद में देश की शासन व्यवस्था में अपने उत्तरदायित्वों का ध्यान रखकर व्यवहार करें। हमारी संवैधानिक परम्परायें संसदीय हो गई है, हमें उनका पालना करना होगा। 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अनेक देशों में राजनैतिक परिवर्तन हुए, संविधानों में बदलाव हुए अथवा उन्हें समाप्त किया गया। हमारे देश ने अनेक संकटों का सामना किया, संसदीय प्रभुत्व और न्यायिक सर्वोच्यता हमारे देश में कायम है। इसकी सफलता के लिए हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों व सांसदों को, जो संविधान की शपथ लेकर सत्तासीन होते है, देश के संवैधानिक उद्देश्यों के अनुसार अंतनिरपेक्ष होना पड़ेगा। समानता, व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता व अखण्डता आदि असमानताओं को मिटाकर सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध होना होगा। संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने वाले व शासनकर्ता यदि उपयुक्त नहीं रहे तो संविधन की अच्छाईयों एवं उच्चता का कोई अर्थ नहीं होगा। लोकतंत्रीय संस्थाओं व प्रणाली से आम जनता का विश्वास डगमगा जायेगा जिसके परिणाम सुखद नहीं होंगे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)