हमारा संविधान एवं धर्मनिरपेक्षता : डा.सत्यनारायण सिंह

संविधान दिवस  (26 नवम्बर) 

लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

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संविधान निर्माताओं ने भारतीय लोकतंत्र का जो सपना संजोया था वह धर्म, जाति, पंथ व सभी विविधताओं से पृथक था। संविधान में एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना की गई थी जो साम्प्रदायिक संघर्ष से मुक्त हो तथा सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय पर आधारित हो। ऐसी राज्य व्यवस्था का निरूपण किया गया था जिसके अन्तर्गत धर्म, जाति के आधारपर नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं किया जाये। 

संविधान के अनुच्छेद 16 में सभी नागरिकों को अवसर की समानता की गांरटी दी गई और स्पष्ट रूप से अंकित किया गया कि किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्म स्थान या निवास के आधार पर विभेद नहीं किया जा सकगा, अपात्र नहीं ठहराया जा सकेगा। अनुच्छेद 17 के द्वारा अस्पृश्यता उन्नमूलन किया गया, अनुच्छेद 18 के द्वारा उपाधियों का अंत किया गया, अनुच्छेद 19 के तहत प्रत्येक भूभाग के नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी दी गई। अनुच्छेद 25 में उपबंध है कि सभी व्यक्तियों को अंतकरण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने में बराबरी का अधिकार होगा। धार्मिक स्वतंत्रता का यह अधिकार लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रखी गई। राज्य को  छूट दी गई कि वह धार्मिक आचरण से जुड़ी किसी भी लौकिक गतिविधि को विधि द्वारा विरूपित करेगा। 

धर्म का प्रचार करने के अधिकार में बलात धर्म परिवर्तन का अधिकार सम्मिलित नहीं है। सभी धर्म, सम्प्रदाय धार्मिक और मूर्त प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना व उनका पोषण कर सकते है, धार्मिक प्रबंध कर सकते हैं। उन संपत्तियों के स्वामित्व से धन अर्जित करने और प्रबंध का अधिकार हैं। अनुच्छेद 27 में धर्म की अभिवृद्धि के लिए कर अदा करने की स्वतंत्रता व अनुच्छेद28 में धार्मिक शिक्षा में उपस्थित नहीं होने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। 

महात्मा गांधी ने धर्म निरपेक्षता को सर्व धर्म समभाव के रूप में परिभाषित किया था। महात्मा गांधी के अनुसार ‘‘धर्म केवल व्यक्तिक शुद्धता का साधन नहीं है बल्कि सामाजिक एकता का प्रभावशाली माध्यम है।’’ महात्मा गांधी धार्मिक पक्षपात का विरोध करने वाले व्यक्ति थे। पं. जवाहर लाल नेहरू धर्म को नीति के रूप में मानते थे और उन्होंने धर्म को राज्य से अलग रखने की अवधारणा को अपनाया था। सरदार पटेल व डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसे नेता धर्म निरपेक्षता को वैयक्तिकता का तकाजा मानते थे। स्वतंत्रता आन्दोलन व उसके बाद धर्म निरपेक्षतावाद, मानववाद, समाजवाद व जनतंत्र को नरेन्द्र देव, पंडित नेहरू, डा.अम्बेडकर, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, श्रीपद अमृतराव डांगे आदि सभी महान मानववादियों ने मजबूत किया। 

1975 में 42वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में गणतंत्र के बाद ‘‘धर्मनिरपेक्ष व समाजवाद’’ शब्दों को जोड़ा। संशोधन के समय श्रीमती इन्दिरा गांधी ने संसद में कहा था कि ‘‘कुछ निहित स्वार्थी तत्व जनहित के विरोध में अपने स्वार्थो को आगे बढ़ाने की कोशिश कर हे है, इसलिए संविधान की प्रस्तावना में ही यह संशोधन लाया जाकर धर्मनिरपेक्ष व समाजवाद को जोड़ा गया है।’’

भारत में अनेक धर्म, पंथ, सम्प्रदाय, भाषा व बोलियां हैं परन्तु धर्मनिरपेक्षता हमारे राष्ट्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय एवं अंग है। धर्मनिरपेक्षता में सहिष्णुता, समानता और धार्मिकता निहित है। पूर्व से पश्चिम तक कहीं भी इसका कोई सानी नहीं है। इसको सारी खूबियों और खामियों के साथ स्वीकार किया गया है। 

हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘‘हिन्द का मतलब हिन्दू ही नहीं है, स्वराज का मतलब हिन्दुओं की हुकूमत से नहीं बल्कि विश्वस्तर पर सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था से है जिससे इंसान स्वयं अपने भीतर ऐसे विजय रथ को उभारने में समर्थ हो।’’ इसे ही गांधी जी ने राम राज्य कहा था। सन् 1958 में फ्रांसिसी समाजवादी बुद्धिजीवि आन्द्र माला ने प्रधानमंत्री नेहरू से पूछा कि ‘‘प्रधानमंत्री होने पर सबसे बड़ी चुनौती क्या लगी?’’ पं. नेहरू ने बेहिचक जबाब दिया कि ‘‘सबसे बड़ी चुनौती न्यायसंगत प्रजातंत्र की स्थापना करना।’’ उसके बाद थोड़ा रूककर उन्होंने कहा कि ‘‘शायद एक धार्मिक देश में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना भी उतनी ही बड़ी चुनौती है।’’ धर्मनिरपेक्षतावादियों काकहना है कि राष्ट्रपति एवं आम छोटे नागरिकों की अंतिम परीक्षा संविधान का समान रूप से पालना करने में है। 

भारत दस्तावेजों में बेशक धर्मनिरेपक्ष राज्य है। सभी नागरिकों को संविधान द्वारा सुरक्षा प्रदान की गई है मगर सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर देखे तो धर्मनिरपेक्षता अभी भी एक आकर्षक विचार है तो कभी-कभी विचित्र रहस्य। भारत में धर्मनिरपेक्षता सामाजिक व धार्मिक आधार पर बंटी हुई है। कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना देखा। पाकिस्तान द्वारा अपने को मजहबी मुल्क घोषित कियेजाने के उलट भारत ने अपने को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया, जो अब जमीनी हकीकत में अस्पष्ट रह गया है। आज धर्मनिरपेक्षता को छलावा वउसके स्थान पर पंथनिरेपक्षता की बात की जारही है जबकि अनुच्छेद 16 में धर्म शब्द का स्पष्ट अंकन है। 

आध्यात्म हिन्दू धर्म की अवधारणा है लेकिन वर्तमान समय में अब यह खत्म होती जा रही है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि ‘‘हिन्दू समाज को गौरवान्वित बनाना होगा लेकिन गलत तरीकों और दूसरे धर्मो से जुझने व टक्कर से नहीं बल्कि पूरी जनसंख्या का मनोबल बढ़ाने से होगा।’’ स्वामी विवेकानन्द ने 1893 में शिकागो में हिन्दू सभ्यता और विभिन्न धर्मो के बीच शांति का बिगुल बजाया था और कहा था यदि हिंसा प्रेम एवं शांति का विनाश करती है तो हिंसा व आतंक को भी केवल प्रेम और भाईचारे से समाप्त किया जा सकता है। विभिन्न धर्मावलम्बियों को अपने अहं का त्यागना होगा। हिन्दू होना ईसलाम या ईसाईयत से टक्कर नहीं है। 

जैसे-जैसे हिन्दूवादी विचारधारा और संगठन फैला गांधीवादी राम राज्य कीहार होती गई। अब ऐतिहासिक संस्कृति, मजहबी दावों और सियासी तिकड़मों के चलते ऐसी सांप्रदायिक विचारधारा पनप रही है जो भारत को खुरच रही है और आमतौर पर शांतिप्रिय लोगों में असहिष्णुता का जहर फैल रहा है। राष्ट्रीयता का नारा बड़े जोर से लगाया जाता है परन्तु क्या उपद्रव, तोड़फोड़, हिंसा में राष्ट्रीयता है? क्या आग लगाने, निर्दोशों का कत्ल करने, सम्पत्ति नष्ट करने में राष्ट्रीयता है? क्या बाजारों को लूट लेना राष्ट्रीयता है? इस प्रकार तो हम केवल राष्ट्रीयता की तौहीन कर रहे है। 

अल्पसंख्यक समुदाय भी हिन्दुओं को आरोपित करने वाले नेताओं के हाथों कठपूतली बनने की भूल कर रहे है। अल्पसंख्यक समुदाय को भी यह समझना होगा कि उनकी असली सुरक्षा बहुसंख्यक समुदाय की की सद्भावना में ही है। उनको भी यह समझना होगा कि वे उस संस्कृति व विरासत से नाता नहीं तोड़ सकते जो इस देश की जड़ें है और जिसे गांधी व नेहरू ने अपनाया था। सामाजिक समरसता के आगे बुनियादी नियमों में अल्पसंख्यकवाद को अलग से राष्ट्रीय स्वरूप लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती। 

हत्याओं व जघन्य अपराध जैसे कार्यो द्वारा देश की सहिष्णुता व सद्भावना को चुनौती दी जा रही है। आज आत्मा भ्रष्ट होती जा रही है और आत्मा के भ्रष्ट होने पर एक नया रूप ऊभर आया है जिसे धार्मिक कट्टरता कहा जाता हैं। इस विचारधारा में दक्षिणपंथी लोग यह भूल रहे हे कि बहुमत से सरकार तो चलाई जासकती है पर देश नहीं चलाया जा सकता। 

धर्मनिरपेक्ष भारत के निर्माणका सपना बिखर सा गया दिखाई देने लगा तो देश के धर्म निरपेक्षता का आदर्श झूंठा साबित होने लगा है। भारत की धर्मनिरपेक्षता व्यवहारिक स्तर पर हस्तक्षेप, तटस्थता और धार्मिक उदासीनता के पचडे में फंस रही है। इस वर्ष रेप एवं धर्मान्तरणों की कहानी ने एक नया धार्मिक मुद्दा खड़ा कर दिया। लड़का-लड़की यदि प्रेम संबंधी मामलों में अलग-अलग समुदाय से हो तो दंगे भड़काने वाले कोई कसर नहीं छोड़ते। 

इन्दिरा गांधी ने धर्म निरपेक्षता जताने वाले कई फैसले किये। प्रतिक्रियावादी और साम्प्रदायवादी ताकतों पर प्रहार किया। उन्होंने राजनीति से इस पर काट बनाये रखे परन्तु 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस से धर्मनिरपेक्षता छिन्न भिन्न हो गई। राम मंदिर आन्दोलन ने हिन्दूवादी शाखाओं को एकत्रित कर दिया। अतीत में मुस्लिम शासकों द्वारा मंदिर ढहाये जाने की स्मृति के आधार पर उनका मकसद राजनैतिक रहा है। इन सबके कारण साम्प्रदायिक ताकतों का ध्रुवीकरण हुआ। इससे हिन्दुओं में संवयवाद ही नहीं बढ़ाबल्कि इस्लामी कट्टरता भी बढ़ती गई। इनलोगों को भी अपनी पहचान कायम रखने और बहादुरी दिखाने का मौका इस्लामी कट्टरता में ही नजर आने लगा।

कुछ हिन्दू संगठन हिन्दुओं को लामबंद कर रहे है। कुछ अल्पसंख्यक संगठन व राजनैतिक पार्टियां अल्पसंख्यकों को लामबंद करने में लगी रहती है। आपस में प्रतिशोध की भावना प्रतिकात्मक रूप से दिखाई पड़ रही है। उनकी पहचान चाहे संख्या बल में नहीं है परन्तु तकनीकी रूप से यदाकदा कहर बरपाती रहती है। 

वस्तुतः अब भारत में प्रतिक्रियाादी सांप्रदायिक ताकतों के कारण सामाजिक अलगाव, राजनैतिक विघटन हो रहा है। धर्मान्धतावादी कट्टरपंथियों को तरजीह मिल रही है और कट्टरता बढ़ती जा रही है। संवैधानिक व महत्वपूर्ण राजकीय, अर्धराजकीय संगठनों में उनका प्रवेश बढ़ रहा है। असहिष्णुता बढ़ रही है। आज दंगे फैलाने के लिए एक चिंगारी काफी है। राजनैतिक दल व सांप्रदायिक ताकतें मासूम व बेगुनाह लोगों के जरिये अपने स्वार्थ की रोटियां सेंक रहे है। कुछ लोग यह कहने लगे है कि इस देश में आज अल्पसंख्यक होना खौप में जीने वाली बात हो गई है। भारत की धर्मनिरपेक्षता व्यवहारिक स्तर पर हस्तक्षेप, तटस्थता और धार्मिक उदासीनता के पचडे में फंस गई है। भाजपा द्वारा अप्लसंख्यकों के लिए चलाई गई विशेष योजनाओं को तुष्टिकरण की नीति कहा जा रहा है। 

आज के हालात में जब हम वैश्वीकरण की बात करते हैं, हमें देश में फैल रही दुर्भावनाओं को दूर करने की जिम्मेदारी लेनी होगी। कानून, संवैधानिक प्रावधानों, न्याय व्यवस्था व समंवित विकास द्वारा हिन्दू हो या मुसलमान सभी समुदायों का विश्वास अर्जित करना होगा। सांप्रदायिकता फैलाने वाले समाज व देश के दुश्मन है, चाहे किसी समुदाय, राजनैतिक पार्टी से संबंधित क्यों न हो, उन्हें देश हित में नहीं बख्शा जाना चाहिए तभी देश में शांति, समानता व आर्थिक सामाजिक जनतंत्र व न्याय की स्थापना होगी। आचार्य तुलसी के शब्दों में ‘‘नेता के मन में राष्ट्र का स्थान प्रथम होना चाहिए, पार्टी का स्थान दूसरे नम्बर पर।’’ (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)