पुण्यतिथि (27 नवम्बर) पर विशेष
लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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19 वीं शताब्दी में महाराष्ट्र में जब अनपढ़ दलित पिछड़ा मजदूर किसान, कठिन एवं नारकीय जीवन भोगता था, कर्मकाण्ड के नाम पर उसे ठगा जाता था, अनेक निर्योग्यताओं और निषेधों के चलते जीवनभर गुलामी व मजदूरी करने पर मजबूर था। उस समय महात्मा ज्योतिबा फुले ने जातिय भेदभाव को समाप्त कर सामाजिक सुधार एवं महिला शिक्षा पर अत्यधिक जोर देते हुए शोषण विहिन समाज की परिकल्पना की। उन्होंने उंच नीच, जातीय भेदभाव, सामाजिक व आर्थिक असमानता के उन्मूलन एवं समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए संघर्ष किया।
महात्मा फुले के जीवन में कभी बसंत नहीं आया। उन्होंने केवल पतझड़ देखे थे। उन्होंने रूढ़ीवादिता, जाति व्यवस्था, अस्पृश्यता, संकीर्णता, उंच नीच के विरूद्ध जमकर संघर्ष किया व महिला जागृति व शिक्षा के लिये अपने आपको झौंक दिया जिससे उनका ‘‘सत्य शोधक समाज’’ एक जन आन्दोलन बन गया। विधवा विवाह का समर्थन, बाल विवाह का विरोध, धर्ममूलक विषमताओं का उन्मूलन, जमीदारों से पीड़ित किसानों की हर संभव सहायता, यह सब कार्य उन्होंने तब शुरू किये जब कोई इस सम्बन्ध में उठ खड़े होने को तैयार नहीं था।
महात्मा फुले मानव-मानव के बीच उंच नीच के पक्षधर नहीं थे और उन्होंने कहा था कि ‘‘हर मनुष्य धार्मिक विधियां स्वयं कर सकता है। मनुष्य जाति से नहीं कर्म से श्रेष्ठ बनता है’’ और इस तरह उन्होंने समग्र क्रान्ति का शंख फूंखा।
उन्होंने कहा था ‘‘अछूत मन्दिर बना सकता है परन्तु उसमें बैठे भगवान के दर्शन नहीं कर सकता। क्या यही न्याय है? महिला बच्चा पैदा कर सकती है, उसे दूध पिलाकर बड़ा कर सकती है परन्तु स्वयं अपवित्र है, पढ़ नहीं सकती। उसे जबरन चिता में धकेला जाता है। क्या यही हमारी संस्कृति एवं सभ्यता है?’’ उन्होंने पारम्परिक मध्ययुगीन व्यवस्था को उखाड फैंकने के लिए क्रान्तिकारी विचार प्रस्तुत ही नहीं किये अपितु इस दिशा में ठोस कार्य किये।
उन्होंने कहा था शिक्षा धर्म में बाधा नहीं है। उन्हें ईसाई धर्म से मानवतावाद की प्रेरणा मिली। उन्होंने आर्थिक और सामाजिक गुलामी से शूद्रों की मुक्ति और नारी के दास्य विमोचन हेतु जीवनभर कार्य किया।
महात्मा फुले ने उस समय समता व समानता के लिए लड़ाई छेडी जब वे अकेले थे। उन्होंने ईसाई धर्म नहीं अपनाया और न धर्म परिवर्तन की वकालत की। उन्होंने स्पष्ट कहा कि हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में क्या व कैसा सुधार किया जाय। जाति प्रथा को कैसे समाप्त किया जाय, उपजातियों को कैसे समाप्त किया जाय, कैसे जीवन के ऐसे पुराने नियम जो भेदभाव पैदा करते है, समाप्त कर दिया जाये।
सर्वप्रथम उन्होंने जोर दिया कि शिक्षा पुरूष एवं नारी दोनों के लिए समान रूप से आवष्यक है। धर्म का उएद्देश्य मानवता की सेवा करना है। वे जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि के नाम पर होने वाले भेदभाव के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने 1948 में बालिका विद्यालय की स्थापना की और अपनी धर्मपत्नी को पहली शिक्षिका बनाया। उन्होंने दीनबन्धु नाम का एक साप्ताहित अखबार प्रारम्भ किया। गरीबों, पिछड़ों व मजदूरों को संघर्ष करने के लिये प्रेरित किया। महात्मा फुले मूर्ति स्थापना, पूजा व आडम्बर के विरूद्ध थे।
महात्मा फुले आपसी विभाजन, मतभेद व दुराभाव को भी समाप्त करना चाहते थे। परन्तु उनके अनुयायी उसके विपरीत आचरण करते है। अपने हितों के लिये येन-केन-प्रकारेण उनके नाम का दुरूपयोग कर अधिकाधिक लाभ प्राप्त करना ही सच्चे अनुयायी होने की परिभाषा बन गई। उनकी जय जयकार करने वाले लोग उनके वास्तविक संदेश को भूल गये। चाहे दलित हो अथवा पिछड़ा वर्ग, केवल छद्म जातिवाद चलाते है।
1882 में अपनी पुस्तक ‘‘किसान का कोड़ा’’ में महात्मा ज्योतिराव फुले ने यह खुलासा करने का प्रयास किया है कि किस-किस प्रकार के व कैसे-कैसे ढोंग, पाखण्ड, झूंठ, अन्धविश्वास, ग्रह नक्षत्र आदि के माध्यम से कुछ लोग दलित व पिछड़ा वर्ग को जन्म से लेकर मरने के बाद तक भ्रमित कर शोषण करते हैं। किस प्रकार किसान वर्ग की आर्थिक, शैक्षणिक उन्नति में बाधायें उत्पन्न की जाती है। निर्योग्यताओं और निषेधों के चलते वे जीवनभर गुलामी एवं परिश्रम करते रहते हैं। किसान कठिन और नारकीय जीवन भोगते हैं, कर्मकाण्ड के नाम पर उसे ठगा जाता था। महात्मा फुले ने कृषि, किसान व उनसे जुड़े हुए मजदूर वर्ग की सम्पूर्ण मुक्ति का आव्हान किया था।
एक ओर ‘‘किसान का कोड़ा’’ में कर्मकाण्डों का जमकर विरोध किया है, दूसरी ओर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार पर भी कोड़े लगाने से नहीं चूके। उन्होंने किसान के, कृषि उत्पादन में वृद्धि हेतु, नई टेक्नोलाजी अपनाने, उनके लिए मंडियों में उपयुक्त व्यवस्था करने, देश से बाहर उच्च शिक्षा हेतु भिजवाये जाने की वकालत की। 1872 में लिखी महान कृति ‘‘गुलाम गिरी’’ किसानों की मुक्ति की जीवन्त पुस्तक है। उन्हों कहा था ‘‘विद्या बिना मति गई, मति गई तो नीति गई, नीति गई तो गति नहीं रही, गति नहीं रही तो वित्त गया, वित्त बिना शूद्र घंसे घंसाये, अतने अनर्थ अकेली अविद्या ने दाये।’’
उन्होंने कहा था कि ‘‘शूद्र किसान जिस दीन-हीन दशा को जा पहुंचा था उसके अनेक सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक कारण थे। उन कारणों की विस्तृत विवेचना करने के लिए ‘‘किसान का कोडा’’ लिखा गया है।’’ उस समय शूद्र खेतिहर किसान, उच्च वर्ग के कर्मचारियों, यूरोपीयन कर्मचारियों द्वारा सताये हुए थे। अटकाव व अडंगों में फंसाकर सताये जाते थे। अधिकतर किसान निरक्षर, देव धर्म के प्रति भावुक, भूखे, कंगाल, नंगे, उघडे, घास फूस, लकड़ी का व्यापार करने वाले रहे। जमीनें गिरवी रखकर या बेचान कर कर्ज में डूबे, कईयों को रोटी के लाले पड़ते रहे, आत्म हत्या करते रहे। कितना ही माथा पीट लिया व्यर्थ ही होता था, कोई फरियाद नहीं सुनता था। इस पुस्तक को पढ़कर अपना बचाव कर सके, यही इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)