लेखक : लोकपाल सेठी
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक)
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लगभग एक दशक पूर्व भारी वर्षा और बाढ़ से उत्तराखंड स्थित केदारनाथ मंदिर सहित इसके आस पास के इलाकों में भारी तबाही आई थी। इसके बाद इस सारे इलाके के पुनर्निर्माण की एक बड़ी योजना तैयार की गयी थी। इस मंदिर का निर्माण आदि शंकराचार्य ने करवाया था इसलिए केंद्र की वर्तमान सरकार ने यहाँ शंकराचार्य के एक बड़ी मूर्ति लगाये जाने का निर्णय किया था। जब इसके लिए मूर्तिकार की तलाश शुरू हुई तो मूर्तिकारों को एक लम्बी सूचि सामने आई। इनमें से कुछ का चयन कर उन्हें प्रस्तावित मूर्ति का एक छोटा रूप बना कर पेश करने के लिए कहा गया। यह तय किया गया था की मूर्ति बैठी मुद्रा में होगी तथा यह कम से कम 12 फुट ऊँची होगी। यह भी तय किया गया था की मूर्ति काले पत्थर की एक शिला से बनेगी। काले रंग का निर्णय इसलिए किया गया क्योंकि यह उर्जा का प्रतीक है। आखिर में जिस मूर्तिकार का चयन हुआ उसका नाम अरुण योगराज था। वह कर्नाटक के मैसूरू का रहने वाला है तथा उनका परिवार लगभग 300 सालों मंदिरों की मूर्तियाँ बनाता आ रहा है। परिवार को मैसूरू के पूर्व राज परिवार का सरंक्षण था तथा उनके पुरखों वहां के महाराजाओं की मूर्तियाँ बनाई थी जो आज भी आकर्षण का केंद्र है।
अरुण योगराज दवारा शंकराचार्य की ध्यानस्थ मुद्रा में बनाई गयी मूर्ति को सबने सराहा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्होंने पिछले वर्ष इस मूर्ति का अनावरण किया था, इस मूर्ति की प्रशंसा करने वालों में से एक थे।
इस साल जनवरी में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी कि देश की राजधानी दिल्ली में इंडिया गेट के पास खाली पडी एक छत्री में देश के इस नायक की 30 फुट ऊँची प्रतिमा लगाई जायेगी। इसके लिए इसी वर्ष 15 अगस्त के तारीख की भी घोषणा की गयी थी। मोदी की घोषणा के तुरंत बाद इस खाली पडी छत्री में नेता जी मूर्ति लगने तक उनकी थ्रीडी होलोग्राफिक मूर्ति लगा दी गई। मूर्ति के रूप तथा आकार सहित अन्य सभी कामों का जिम्मा केंद्रीय सांकृतिक मंत्रालय के अधीन आने वाली नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट को दिया गया। चूँकि समय अधिक नहीं था इसलिए इस योजना पर तुरंत कार्य आरंभ हो गया।
मूर्ति का प्रारूप इसी संस्था ने बनाना था, तथा इसके बाद ही इसके निर्माण के लिए मूर्तिकारों को आमंत्रित किया जाना था। जब यह तय हो गया की मूर्ति 30 फीट ऊँची होगी और काले पत्थर की होगी तो इसके साथ ही तेलंगाना और ओडिशा के उन इलाकों में इस मूर्ति को बनाने के लिए उपयुक्त एक शिला की तलाश हुई। इसके साथ-साथ इन कलाकारों की एक छोटी सूची बनाई गई जिसके आधार पर एक मूर्तिकार का चयन करना था जिसे यह मूर्ति बनाने का जिम्मा दिया जाये। इस सूची में अरुण योगराज भी एक थे। इन सबको प्रस्तावित मूर्ति के छोटे अकार, लगभग 2 फुट की मूर्ति पेश करने के लिए कहा गया था। अरुण योगराज को मूर्ति का सही चेहरा और उस व्यक्ति के हाव भाव, जिसके मूर्ति बननी है, उकेरने में महारत हासिल है। योगराज पढ़ाई से एमबीए कुछ साल नौकरी करने के बाद उन्होंने परिवार की परंपरा के अनुसार, मूर्तियां बनाने के पेशे में आने का निर्णय किया। सबसे पहली मूर्ति उन्होंने मैसुरु के दिवंगत महाराजा चामराज वदियर की संगमरमर की बनाई जिसे बहुत सराहा गया।
जब नेता जी की मूर्ति बनाने वाले का नाम तय हुआ तो वह अरुण योगराज ही था। नेता जी की मूर्ति के दो फुट के आकर की सराहना स्वयं प्रधानमत्री ने की। योगराज ने मूर्ति का छोटा आकार खुद उन्हें पेश भी किया। फिर यह तय होना था की मूर्ति को कहाँ बनाया जाये। मैसूरू में बना कर उसे बाद में दिल्ली लाया जाये या इसके निर्माण का काम दिल्ली में ही हो। आखिर इसे दिल्ली में ही बनाने का निर्णय हुआ। इसके लिए तेलगाना में में मिली काले पत्थर को शिला को दिल्ली में लाया गया। यहाँ योगराज ने अपनी वर्कशॉप बनाई। पिछले जून माह से उनके लगभग दो दर्ज़न साथी योगराज के साथ मूर्ति को बनाने में लगे गए ताकि सारा काम निर्धारित समय में पूरा हो जाये। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)