बीजेपी से टकराव कम करती नज़र आ रही है द्रमुक पार्टी

लेखक : लोकपाल सेठी

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक)

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लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व जब द्रमुक सत्ता में आई थी तब यह लगभग तय माना जा रहा कि तमिलनाडु की नयी सरकार और केंद्र में बीजेपी नीत एनडीए सरकार के बीच राज्य और केंद्र के बीच कई मुद्दों को लेकर टकराव बढेगा। इसका एक कारण यह भी था कि दक्षिण के इस राज्य में लगातार दो बार सत्ता में आई  अन्नाद्रमुक और बीजेपी में गठबंधन है जबकि कांग्रेस यहाँ द्रमुक का सहयोगी दल है। वैसे भी तमिल अस्मिता को लेकर दक्षिण के इस बड़े क्षेत्रीय दल का केंद्र से टकराव पहले भी होता रहा है।

अपने पिता करुणानिधि के मृत्यु के चलते उनके  बेटे एम के स्टालिन को पार्टी की कमान मिली थी और चुनाव जीतने के बाद वे पहली बार राज्य के मुख्यमत्री बने थे। उनके नेतृत्व में द्रमुक को पहले लोकसभा तथा फिर विधानसभा चुनावों में भारी जीत मिली थी। स्टालिन को यह लगने लगा था कि अब समय आ गया है कि वे अपने आपको राष्ट्रीय राजनीति में भी स्थापित करें। उन्होंने अखिल भारतीय सामाजिक न्याय महासंघ नाम का एक संगठन कहा   किया जिसका मुख्य उद्देश्य राज्यों के अधिकारों का लेकर केंद्र पर दवाब बनाना था। 

उनको उम्मीद थी कि सभी विपक्षी दल इसको लेकर उनका साथ देंगे .गैर बीजेपी राज्यों की सरकारो के मुख्यमंत्री भी इससे जुडेगें। पद सभालने के कुछ समय बाद ही उन्होंने कांग्रेस सहित 37 विपक्षी दलों के नेताओं को पत्र लिख  इस महासंघ का हिस्सा बनने का आग्रह किया।  गैर बीजेपी सरकारों के मुख्यमंत्रियों को भी इसी आशय का पत्र लिखा। स्टालिन को लगता था कि देश में बीजेपी के बढ़ते प्रभाव को देख महासंघ ऐसा मजबूत बन जायेगा जो केंद्र पर पूरा दवाब बना सकेंगा तथा राज्य सरकारों को वे सब अधिकार भी मिलेंगे जिससे एनडीए सरकार ने उन्हें वंचित कर रखा है। 

उन्होंने कई विपक्षी दलों के नेताओं से दिल्ली में जाकर बात की लेकिन किसी भी दल इस महासंघ के साथ जुड़ने में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं दिखाई। यहाँ तक कि तमिलनाडु के दो पड़ोसी राज्यों तेलंगाना और आंध्र प्रद्रेश, जहाँ गैर बीजेपी सरकारें हैं, ने भी इससे जुड़ने के लिए कोई उत्साह नहीं दिखाया। विपक्ष ने अधिकतर नेताओं का नजरिया यह था कि इस संगठन के नाम पर स्टालिन अपनी राष्ट्रीय छवि बनाना चाहते है। 

इसके बावजूद स्टालिन और उनकी सरकार ने कुछ मुद्दों को केंद्र से टकराव का अपना रुख जारी रखा। सबसे बड़ा मुद्दा नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के जरिये त्रि  भाषी फार्मूले के नाम पर गैर हिंदी भाषी राज्यों में हींदी को थोपने का था। इसी प्रकार नीट के जरिये मेडिकल कोलेजों में दाखिले में राज्य सरकारों के अधिकारों को कम करना था। ऐसे और भी कई मुद्दे थे। उन्हें उम्मीद थी कि इनको लेकर विपक्षी दलों के मुख्यमंत्री उनको साथ देंगे लेकिन एक आध को छोड़ किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने उनको साथ नहीं दिया।

धीरे-धीरे स्टालिन और उनके करीबी  नेताओं ने महसूस किया कि मुद्दों पर टकराव लेकर केंद्र से सभी बातें नहीं मनवाई जा सकती। इनको लेकर केंद्र के प्रति  रुख नर्म करने की नीति अपनाई जाएँ ताकि राज्य सरकार की योजनाओं आदि के स्वीकार होने में अधिक विलम्ब नहीं है। हालाँकि द्रमुक के सत्ता में आने के बाद स्टालिन को प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के साथ कई बार मंच साझा करने का मौका मिला लेकिन किसी एक भी उन्होंने प्रधानमंत्री या केंद्र सरकार को सराहा  नहीं। 

लेकिन पिछले कुछ दिनों में उन्होंने दोअवसरों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खुल कर प्रशंसा  की। पहला मौका था चेन्नई में शतरंज ओलंपियाड के उद्घाटन का जिसके लिए मोदी वहा गए थे। अपने भाषण में स्टालिन ने मोदी को खेलों को प्रोत्साहन देने वाले प्रधानमंत्री के रूप सराहा। उन्होंने कहा कि  जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने सबसे से बड़ी और सबसे सफल अंतररार्ष्ट्रीय शंतरज प्रतियोगिता का योजना किया था। उसी दिन एक     विश्वविद्यालय के समारोह में दोनों नेता एक बार फिर एक ही मंच पर थे जहाँ दोनों ने एक दूसरे की खुलकर प्रशसा की। 

केवल इतना ही नहीं शंतरज ओलंपियाड के योजना स्थल को बीजेपी के स्थानीय नेताओं ने मोदी के पोस्टरों से पाट रखा था। गुस्से में आये द्रमुक के नेताओं ने जब इनको फाड़ना शुरू किया तो पुलिस ने उनको खदेड़ने के लिया लाठीचार्ज भी किया। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है यह घटना सत्तारूढ़ दल का  बीजेपी के प्रति बदलते रुख का संकेत है। द्रमुक की नीति अबकेंद्र से लड़ कर नहीं बल्कि मिलकर कुछ पाने की है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)