धर्म को धर्म ही रहने दो : डा.सत्यनारायण सिंह

देश हित में :

लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

www.daylife.page 

‘‘इस देश में धर्म तो सनातन है, हजारों वर्षो से चला आ रहा है। उसको ही आज हिन्दु धर्म का जामा पहना दिया गया। नया शब्द चल पड़ा ‘‘हिन्दुत्व‘‘। धर्म की आड में हिन्दुत्व राजनीति का अखाडा बन गया। प्रत्येक धर्म समुदाय में राजनीति प्रवेश कर गई, जहां हजारों वर्षो में धार्मिक पर्वों, परम्पराओं को लेकर राजनीति नहीं हुई, वहीं घुस गई। धार्मिक सहिष्णुता द्वैष में बदल गई।’’ राजस्थान पत्रिका के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी ने अपने उक्त विचारों के साथ स्पष्ट कहा है कि ‘‘देश हित में धर्म को धर्म ही रहने दिया जाय।‘‘ राजनेता और राजनीतिज्ञ अवसरवादी होते हंै। इनको न हिन्दुओं से मोह है, न मुस्लिमों से, न ही आदिवासियों से। ये तो सत्ता में रहना चाहते है जनता को बांटकर। एक ही तरीका है कि जनता अपने कानों में अंगुली डाल ले। नेताओं की भाषा से प्रभावित होने की बजाय भाई-चारे के रास्ते शांति से जीते चले जायें। ’’धर्म के किसी भी सिद्धांत के पालन के लिए बल का प्रयोग स्वयं में एक हिंसा है। धर्म स्वैच्छिक है, उसे किसी पर लादना नहीं चाहिए।’’

साम्प्रदायिकता का अर्थ है अपने सम्प्रदाय को बढ़ाने के लिए दूसरे सम्प्रदाय पर आक्षेप करना तथा उसे बुरा बताना। गाँधी जी एक आदर्श, धार्मिक, महात्मा थे जो वाणी और कर्म में एक रूप है, वही महात्मा है। यदि हमारा साध्य पवित्र है तो उसके साधन भी पवित्र होने चाहिए। अशुद्ध साधन से प्राप्त साध्य स्थायी नहीं होता। उनके आचार विचार को देखकर तो कोई साम्प्रदायिकता का आक्षेप लगा ही नहीं सकता। 

आज धार्मिकों की स्थिति बड़ी दयनीय है। जैसे तैसे शोषण से पैसे का अर्जन करते हैं फिर उससे किसी मंदिर का फर्श और धर्मशाला बनाकर या सदाव्रत खोलकर मन से सोचते हैं कि हमने धर्म किया। यदि धर्म भावना जागृत करनी है तो अस्पृश्यता की भावना खत्म करनी होगी। यजुर्वेद के अनुसार घृणा हिंसा है। मुहम्मद साहब ने भी रंग-नस्ल, ऊंच-नीच की खाई को पाटने व प्रेम, सहानुभूति को ही इंसानियत की पहचान बताया है। सूफी, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई सभी धर्मो में सार्वभौम धर्म, सहिष्णुता का भाव सर्वोपरी है। सद्भावना, मैत्री, निष्कपट वृत्ति अमर वरदान है, असहिष्णुता सामन्जस्य के दुश्मन हैं। 

जातीय और साम्प्रदायिक आधारों पर होने वाले मतदान मतदाता और उम्मीदवार दोनों की अर्हता पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं। भारत जैसा महान देश आज संस्कृतियों, मजहबों, कौमों और स्वार्थ प्रेरित राजनीति के आधार पर उभरने वाली पार्टियों में बंटा है। आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र अर्थ और सत्ता में बन गया है। लोकतंत्र की न तो कोई जाति है और न कोई सम्प्रदाय, फिर भी उसे जातिवाद और सम्प्रदायवाद के साथ जोड़ने का दुष्प्रयास हो रहा है। जिस राष्ट्र में जाति सम्प्रदाय और अर्थबल के आधार पर चुनाव होगा वह राष्ट्र लोकतंत्र की विडम्बना करता रहेगा। लोकतंत्र से उपर स्वार्थतंत्र का बोलबाला है। 

डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के शब्दों में ‘‘लोकतंत्र एक राजनीतिक व्यवस्था है जो सब लोगों को समान मानती है। जो इस देश और इस दुनिया के सर्वमान्य लोगों की सामाजिक और आर्थिक दशा सुधारने की, ऊपर उठाने की मांग करती है। इसमें सभी लोगों के प्रति मित्रवत व्यवहार करने की आशा हमसे करती है फिर भले ही वे लोग हमारे शत्रु ही क्यों नहीं हों। जब तक हमारे देश में ऐसे लोग हैं जो दिन में एक बार भी भरपेट भोजन नहीं पाते, जिनके सिर पर कोई छत या छाया नहीं है, जो हमारे नगरों की पटरियों पर सोते है, तब तक समभाव व सद्भाव पैदा नहीं हो सकता’’। लोकतंत्र आदर्श तभी हो सकता है जब उसमें सामाजिक और आर्थिक सामग्री डाली जाये। 

जेम्स ब्राइस के शब्दों में लोकतंत्र की शासन प्रणाली में कानून की दृष्टि से राज्य की नियामक सत्ता किसी विशेष वर्ग या वर्गो के हाथों में नहीं रहती बल्कि समुदाय के सभी सदस्यों में निहित होती है। लोकतंत्र जनसाधारण का शासन है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को शिखर तक पंहुचने का अवसर मिलता है। राजनीति और धर्म की एक आचार संहिता हो। अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक शब्द का प्रयोग राष्ट्रीय मंच पर न हो। राजनीति आत्मनीति और आध्यात्मनीति से अनुप्रमाणित हो, साम्प्रदायिक आधार पर नहीं। 

आज देश में साम्प्रदायिकता की समस्या बढ़ रही है। स्थान-स्थान पर जातिवाद या सम्प्रदायवाद के नाम पर अशांति का वातावरण उत्पन्न हो रहा है। यदि सभी धर्मो के लोग इंसानियत को महत्व दें तो साम्प्रदायिकता की समस्या का समाधान हो सकता है। जहां जाति और सम्प्रदाय का व्यामोह हो जाता है वहां समस्यायें उत्पन्न हो जाती है। 

आज राष्ट्रहित गौण हो रहा है। व्यक्ति व पार्टी का हित प्रमुख हो रहा है। हम संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित सिद्धांतों को भूल रहे हैं जिसमें स्पष्ट कहा गया है ‘‘एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाया जायेगा जिसमें धर्म और उपासना की स्वतंत्रता व समानता होगी।’’ 

लोकतंत्रीय राष्ट्र का सम्प्रदाय अथवा पंथनिरपेक्ष होना अनिवार्य है। सम्प्रदाय निरपेक्ष होने का तात्पर्य धर्म निरपेक्ष, धर्महीन अथवा धर्म विरोधी होना नहीं है। कोई भी राष्ट्र किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के द्वारा शासित होता है तो सम्पूर्ण जनता के साथ न्याय नहीं हो सकता, प्रतिपक्षी धर्मो के साथ अन्याय होता है। साम्प्रदायिक कट्टरता में सहिष्णुता नहीं होती। राजनीति किसी सम्प्रदाय विशेष की अवधारणा से संचालित नहीं होनी चाहिए। 

अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक शब्दों का राजनीतिक संदर्भ में उपयोग त्रुटिपूर्ण है, उत्तेजना फैलाने और हिंसा भडकाने में ये शब्द वाहक बने है। राष्ट्रीयता की दृष्टि से न कोई अल्पसंख्यक है न बहुसंख्यक। राष्ट्रहित में यह प्रयोग हित में नहीं है। वैचारिक असहिष्णुता ही साम्प्रदायिक झगड़ांे को उत्पन्न करती है। सर्वधर्म सहिष्णुता का भाव श्रेयस्कर है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)