लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
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हमारी सभ्यता और संस्कृति के आधार कहे जाने वाले पेड़ आज संकट में हैं। वैसे तो हमारे यहां पेड़ों की पूजा होती है और पर्यावरण, जलवायु और संपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र को संतुलित करने में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। जीवन के लिए प्राण वायु प्रदान करने में इनके महत्व को समूची दुनिया ने न केवल माना है बल्कि कोरोना काल में इनकी उपादेयता को स्वीकार भी किया है। लेकिन खेद है कि यह सब जानते-समझते हुये भी हम इनके अस्तित्व को ही मिटाने पर तुले हुये हैं। दुनियाभर में विकास के नाम पर पेड़ों का हो रहा अंधाधुंध कटान इस बात का जीता-जागता सबूत है। इसके अलावा जो सबसे बड़ी समस्या है, वह यह कि आपदायें पेड़ों की सबसे बड़ी दुश्मन बन कर सामने आ रही हैं। बादल फटने, भूस्खलन और बाढ़ की दिनोंदिन बढ़ती घटनायें तो पेड़ों के विनाश में अहम भूमिका निबाहती हैं हीं, इसके चलते हर साल लाखों-करोड़ों पेड़ों का इनकी विनाश लीला की चपेट में आकर अस्तित्व ही मिट जाता है। लेकिन हकीकत यह है कि आसमान से आफत बनकर गिरने वाली बिजली भी हर साल 32 करोड़ पेड़ों को भस्म कर रही है। इसका खुलासा म्यूनिख की टैक्निकल यूनिवर्सिटी के अध्ययन में हुआ है। इस अध्ययन की रिपोर्ट बीते दिनों ग्लोबल चेंज बायोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई है जिसमें कहा गया है कि हर साल बिजली गिरने से जितने पेड़ मरते हैं, वो संख्या दुनिया भर के कुल पेड़ों के नुकसान का 2.9 फीसदी है। ये पेड़ जब जलते हैं तो ये 1.09 अरब टन कार्बन आक्साइड छोड़ते हैं जिससे वातावरण को काफी नुकसान पहुंचता है। अध्ययन के अनुसार हर साल 28.6 से 32.8 करोड़ बार बिजली जमीन पर गिरती है और इससे 30 से 34 करोड़ से ज्यादा पेड़ मर जाते हैं। एक बार बिजली की चपेट में आकर औसतन 3.5 पेड़ों की मौत हो जाती है। कारण बिजली एक पेड़ से दूसरे पेड़ों तक फैल जाती है।
असलियत में बिजली गिरने से अक्सर बड़े पेड़ों को काफी नुकसान होता है। वे काफी तादाद में मर जाते हैं। हर साल 2.4 से 3.6 करोड़ बड़े पेड़ इसकी चपेट में आते हैं जो अमूमन 60 सेंटीमीटर से ज्यादा मोटे तने वाले होते हैं। ये बड़े पेड़ ज्यादातर खुले मैदानों और पहाड़ी इलाकों में होते हैं। चूंकि खेतों, जंगलों, पहाड़ और तटीय इलाकों में बिजली ज्यादा गिरती है, इसलिए बिजली की चपेट में ये ज्यादा आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में पेड़ों के अंदर का पानी तेजी से गर्म होकर भाप बनने लग जाता है और जब भाप फैलने लगती है तब पेड़ों के तनों में आग लगने लगती है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से अब बिजली गिरने की घटनायें उत्तरी और ठंडी जगहों पर ज्यादातर होगीं। नतीजतन आने वाले दिनों में बड़े पेड़ों की मौत का आंकड़ा 9 से बढ़ कर 18 फीसदी तक हो सकता है।
देखा जाये तो भारत में पूर्वोत्तर के इलाके,मध्य भारत और तटीय इलाकों में बिजली गिरने की घटनायें आम हैं। फॉरेस्ट सर्वे आफ इंडिया की मानें तो देश में कुल वन क्षेत्र लगभग आठ लाख वर्ग किलोमीटर से ज्यादा है। हमारे देश ने साल 2000 से 2020 के बीच पेड़ों की कटाई और आग की वजह से तकरीब 1.98 हैक्टेयर जंगल खोया है। दुनिया में जिस तेजी से पेड़ों की तादाद कम होती जा रही है, उससे पर्यावरण तो प्रभावित हो ही रहा है, पारिस्थितिकी, जैव विविधता, कृषि और मानवीय जीवन ही नहीं, बल्कि भूमि की दीर्घकालिक स्थिरता पर भी भीषण खतरा पैदा हो गया है। जहां तक जंगलों के खत्म होने का सवाल है, उसकी गति देखते हुए ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब दुनिया से जंगलों का नामोनिशान तक मिट जायेगा और वह किताबों की वस्तु बनकर रह जायेंगे। हकीकत यह है कि हर साल दुनिया में एक करोड़ हेक्टेयर जंगल लुप्त होते जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र भी इसकी पुष्टि करता है।
यदि अपने देश की बात करें तो विकास यज्ञ में समिधा बने लाखों पेड़ों को छोड़ भी दें तो भी उसके अलावा बीते पांच सालों में देश में नीम, जामुन, शीशम, महुआ, पीपल, बरगद और पाकड़ सहित करीब पांच लाख से भी ज्यादा छायादार पेडो़ं का अस्तित्व ही खत्म कर दिया गया है। कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने इसका खुलासा किया है। दुनिया के वैज्ञानिक बार-बार कह रहे हैं कि इंसान जैव विविधता के खात्मे पर आमादा है। जबकि जैव विविधता का संरक्षण ही हमें बीमारियों से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहता है। इसीलिए जैव विविधता का संरक्षण बेहद जरूरी है। सबसे बड़ी बात यह कि पेड़ों का होना हमारे जीवन के लिए महत्वपूर्ण ही नहीं, बेहद जरूरी है। यह न केवल हमें गर्मी से राहत प्रदान करते हैं बल्कि जैव विविधता को बनाये रखने, कृषि की स्थिरता सुदृढ़ करने, सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करने और जलवायु को स्थिरता प्रदान करने में भी अहम योगदान देते हैं। विडम्बना यह है कि यह सब जानते समझते हुए भी हम पेड़ों के दुश्मन क्यों बने हुए हैं,यह समझ से परे है।
इसके बारे में बीते कई बरसों से दुनिया के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और वनस्पति व जीव विज्ञानी चेता रहे हैं कि अब हमारे पास पुरानी परिस्थिति को वापस लाने के लिए समय बहुत ही कम बचा है। यह भी कि हम जहां पहुंच चुके हैं वहां से वापस आना आसान नहीं, बहुत ही टेडा़ काम है। कारण वहां से हमारी वापसी की उम्मीद केवल और केवल पांच फीसदी से भी कम ही बची है।
दुनिया के स्तर पर जैव विविधता की बात करें तो अमरीका की ए एण्ड एम यूनिवर्सिटी स्कूल आफ पब्लिक हैल्थ के एक अध्ययन में खुलासा हुआ है कि पेड़-पौधों की मौजूदगी लोगों को मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाने में सहायक होती है। 6.13 करोड़ मानसिक रोगियों पर किये गये अध्ययन में कहा गया है कि हरियाली के बीच रहने वाले लोगों में अवसाद की आशंका बहुत कम पायी गयी है। जिन लोगों के घरों के आसपास 100 मीटर के दायरे में पेड़-पौधों की संख्या अधिकाधिक पायी गयी, उन लोगों को अवसाद की दवा लेने की जरूरत ही नहीं रही है। इस बारे में मानसिक स्वास्थ्य की जानी मानी प्रोफेसर एंड्रिया मेचली का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में हम वैश्विक स्तर पर जैव विविधता में तेजी से गिरावट को देख रहे हैं। जैव विविधता न सिर्फ हमारे प्राकृतिक वातावरण के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि इन वातावरण में रहने वाले लोगों के मानसिक कल्याण के लिए भी उतनी ही अहम है। क्योंकि जैव विविधता धरती और मानव स्वास्थ्य के लिए सह-लाभ के तत्व हैं और इसे महत्वपूर्ण बुनियादी मान कर इसकी रक्षा करनी चाहिए। पर्यावरण विज्ञानी बर्नार्डों फ्लोर्स की मानें तो एक बार यदि हम खतरे के दायरे में पहुंच गये तो हमारे पास करने को कुछ नहीं रहेगा। हम यह क्यों नहीं समझते कि यदि अब भी हम नहीं चेते तो हमारा यह मौन हमें कहां ले जायेगा और क्या मानव सभ्यता बची रह पायेगी ? चिंता की असली वजह तो यही है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)