जातीय कल्याण निगमों का भविष्य अधर में : लोकपाल सेठी
लेखक : लोकपाल सेठी

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक 

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दक्षिण के राज्य कर्नाटक में दशकों से विभिन्न जातियों के कल्याण के लिए निगमें अस्तित्व में हैं। इनको काफी बड़ी राशियों का आवंटन भी होता रहा है। इनकी  संख्या लगभग एक दर्जन के आसपास थी। लेकिन 2023 के वर्ष में इनकी संख्या में बड़ा इजाफा हुआ। उस समय राज्य मेंबीजेपी की सरकार थी तथा येदियुरप्पा  मुख्यमंत्री थे।  उनके काल में इनकी संख्या बढ़कर 25 हो गई थी। यह इजाफा तब किया गया तब राज्य में विधानसभा चुनाव केवल कुछ महीने दूर थे। उन पर विभिन्न जातीय नेताओं और धर्म गुरुयों का दवाब था। उनको यह कहा गया कि ऐसी निगमें गठित करने से बीजेपी को विधानसभा चुनावों में लाभ मिलेगा।   इसलिए पुरानी और नव गठित निगमों की दी जाने वाली राशियों का आवंटन भी बढ़ा दिया गया। येदियुरप्पा लिंगायत समाज से आते है। यह  समुदाय का  राजनीतिक तथा सामाजिक रूप से राज्य का सबसे अधिक प्रभावशाली समुदाय है। इस जाति के कल्याण के लिए गठित निगम को सबसे अधिक– 500 करो  रूपये का आवंटन किया गया। इसको लेकर येद्दियुरप्पा की बड़ी आलोचना भी हुई थी। 

2023 के विधानसभा चुनावों में  बीजेपी हार गई तथा कांग्रेस फिर सत्ता में लौट आई। नए मुख्यमंत्री सिद्धारामिय , जो राज्य के वित्त मंत्री भी है, ने अपने पहले  बजट में इन निगमों की आवंटन राशि  घटा दी। हालाँकि अधिकारिक रूप से यह नहीं  बताया गया कि ऐसा क्यों किया गया लेकिन राजनीतिक क्षेत्रों  यह बात  पहले से ही कही जा रही है कि इन निगमों में  भ्रष्टाचार है। आवंटित राशि का अधिकतर हिस्सा प्रशासनिक कार्यों पर खर्च हो जाता है तथा जातीय के कल्याण के लिए अधिक राशि नहीं बचती। यह बात भी किसी से नहीं छिपी की इस तरह का निगमों का गठन सत्तारूढ़ पार्टी के विधायकों और नेताओं को अध्यक्ष  बनाने के लिए किया जाता है। वे ऐसे विधायक होते है जिन्हें मंत्री पद नहीं  मिला होता। इन निगमों में घोटाले और वित्तीय अनिमित्तायें आम है लेकिन किसी के खिलाफ कोई  कार्यवाही शायद ही हुई हो। 

इसका सबसे ताज़ा उदाहरण हाल में वाल्मिकी कल्याण निगम में  लगभग 90 करोड़ का  घोटला है। तब विभाग के मंत्री नागेन्द्र के दवाब में  निगम की यह राशि निजी खातों में भेज दी गई। इसका पता तब चला जब निगम के एक लेखा अधिकारी ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या से पूर्व  लिखे   अपने पत्र में उन्होंने कहा था कि ऊपर के दवाब के चलते उन्हें ऐसा करने के लिए मज़बूर होना पड़ा। निगम के अध्यक्ष को इसकी खबर ही नहीं थी। पार्टी के  केन्द्रीय नेतृत्व के निदेश पर सिद्धारामिया ने नागेन्द्र को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया। इसी बीच मामला सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय ने अपने हाथ में ले लिया। हाल ही में प्रवर्तन निदेशालय ने अदालत में आरोप पत्र भी दाखिल कर दिया है। 140 पन्ने ने आरोप पत्र में कहा गया कि गबन की गई राशि का उपयोग  मई -जून के लोकसभा चुनावों में शराब खरीदने के लिए तथा मतदातायों के बीच बांटने के लिए किया गया। 

इस समय सरकार के पास ऐसी 21और जातीय निगमें गठित किये जाने का प्रस्ताव है। सिद्धारामिया पर पार्टी विधायकों के एक वर्ग का दवाब  है कि ये निगमें  जल्द से जल्द गठित की जाएँ। उनका कहना है कि निगमें बनेगी तो ही उन्हें इनका अध्यक्ष बनाया जा सकता है। उधर मुख्यमंत्री की सोच कुछ दूसरी ही है.  वे चाहते है कि या तो कुछ निगमों को बंद कर दिया जाये या विकल्प के रूप वे कुछ निगमों को अन्य निगमों में विलय करना चाहते है। उनका लक्ष्य है सरकार के खर्चों को कम किया जाना जरूरी है, इसका कारण यह है कि सरकार का इस समय बड़ा लक्ष्य चुनावों के दौरान मतदाताओं को दी गई पांच गारंटियों को हर हालत में  जारी रखना है। राज्य सरकार का चालू वित्त वर्ष को बजट 3.2 लाख करोड़ है। इसमें से लगभग 60 हज़ार करोड़ इन पांच गारंटियों पर खर्च हो रहा है जो  कुल बजट का पाँचवाँ हिस्सा है। इसके चलते विभिन्न योजनाओं के लिए समुचित राशि का आवंटन भी नहीं हो पा रहा है। विधायकों को मिलने वाले  विकास कोष की राशि भी नहीं मिल रही है। सिद्धारामिया वित्त्तीय मामलों के विशेषज्ञ माने जाते है। विभिन्न सरकारों में वित्त मंत्री के रूप उन्हें 15 बजट बनाने और पेश करने का अनुभव है। इसलिए वे सरकार के फालतू खर्चे कम करने में लगे है। इनकी गाज जातीय कल्याण निगमों  पर गिर सकती है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)