शादी का संयोग : जंवाईबाबू नहीं बना
लेखक : रामजी लाल जांगिड 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं विभिन्न मामलों के ज्ञाता 

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31 मई 1962 को मैंने राजस्थान विश्वविद्यालय की एम.ए. (इतिहास) (अंतिम वर्ष) की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। उसके साथ साथ वर्ष 1957 से स्वतंत्र पत्रकार के रूप में विभिन्न दैनिक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में अलग अलग विषयों पर लेख लिख रहा था। हिन्दी और अंग्रेजी में | 20 दिसम्बर 1962 को मैंने कोलकाता की प्रसिद्ध कला पत्रिका RHYTHM की सम्पादिका श्रीमती आशा मुखर्जी को पत्र लिख कर इस पत्रिका का राजस्थान में प्रतिनिधि बनने की इच्छा प्रकट की। 27 दिसम्बर १962 को उनकी स्वीकृति मिल गई। 14 जनवरी 1966 तक उनसे पत्र व्यवहार और टेलीफोन पर बातचीत चलती रही। इस अवधि में उनसे घनिष्टता बढ़ गई। मैं लिखता रहा और वह मेरे लेख छापती रही। वर्ष 1965 की अंतिम तिमाही में उन्होंने फोन पर पूछा "आप शादी में दहेज लेने के पक्ष में हैं या विरोध में ।" मैंने कहा - "विरोध में। मगर आप यह बात पूछ क्यों रही हैं?" उन्होंने कहा- "बंगाल में दहेज की बहुत मांग होती है। मेरे दफ्तर में काम करने वाली कई लड़‌कियों की हैसियत दहेज देने की नहीं है और उनकी उम्र बढ़ रही है।

वे पढ़ी लिखी हैं सुंदर हैं, अच्छे परिवारों की हैं। में सोच रही थी चार पांच युवतियों को जयपुर ले आती हूं। आपको उनमें से कोई पसंद आ जाए तो आपको बंगाल का जंवाई बाबू बना देती हूँ। उनके मां बाप की दहेज की चिंता दूर हो जाएगी। मैंने कहा- "मैं कट्टर शाकाहारी हूँ। अंडे, मछली, मांस, शराब, सिगरेट, गुटका से नफरत करने वाला।उन लड़‌कियों को सुबह शाम भात माछ खाने की आदत है। न मुझे न मेरे परिवार को उनका खानपीन बर्दाश्त होगा। हर व्यक्ति को अपना फैसला केवल दहेज की चिंता दूर करने के लिए ही नहीं करना चाहिए। भारत में शादी केवल दो व्यक्तियों के बीच नहीं होती बल्कि सम्बंध दो परिवारों के बीच होता है। खानपीन के अलावा भाषा, संस्कार, शिक्षा, सोच, संस्कृति का भी हर संबंध पर असर पड़ता है।"  इसके बाद उन्होंने मुझे बंगाल का जंवाई बाबू बनाने का विचार छोड़ दिया। ईश्वर ने मेरे लिए अलग व्यवस्था कर रखी थी।

अक्टूबर 1965 में अंग्रेजी दैनिक 'हिन्दुस्तान टाइम्स' में एक विज्ञापन छपा। "पी. एच. डी. कर रही युवती के लिए योग्य वर चाहिए।" मैंने पत्र भेज दिया। युवती के भाई डा. गोपाल कृष्ण विश्वकर्मा अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में हड्‌डी रोग विशेषज्ञ थे। उन्होंने मुझे नई दिल्ली आने का निमंत्रण दिया। वह अपने परिवार के खर्च पर लखनऊ स्थित किंग जार्ज मेडिकल कालेज से एम. एस. करने के बाद अमरीका, कनाडा और इंग्लैंड में अनुभव पाने के लिए चले गए थे। और 1963 से इस संस्थान में थे।। उनका परिवार गाज़ीपुर और काशी में रहता था। डाक्टरों का परिवार था। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं, जिन्हें हम अपने पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं)