पानी को रेंगना ना सिखाएं, भूल जाता है चलना - राम भरोस मीणा

लेखक : राम भरोस मीणा 

पर्यावरणविद् एवं स्वतंत्र लेखक हैं।

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वर्षा ऋतु और  मानसून की सक्रियता अच्छी वर्षा होने पर भी बहुत से बांधों, जोहड़ों में पानी नहीं पहुंच पाना चिंतनीय है। हालत यह है कि अनेकों नदियों के कंठ आज भी प्यासे हैं, कल भी प्यासें थे, शायद आगे भी वह प्यासे रह सकते हैं।  लेकिन आगे वह मानसून पर निर्भर करता है कि वह रास्ता भूल चुके जल को चलना सिखाता है या दौड़ना, क्योंकि सब कुछ प्रकृति स्वमं कंट्रोल करतीं है। मानव केवल उसके रास्ते में विकास के नाम पर, खेत का पानी खेत में के नाम पर, जल संरक्षण के नाम पर या विद्युत उत्पादन आदि आदि नामों से उसे रोक सकता है, रास्ता भटका सकता है, लेकिन हमेशा के लिए कैदी नहीं बना सकता। पानी का अपना स्वाभिमान है, वो क़ैद क्यों होगा ? और हो भी जाए तो कुछेक दिनों, महीनों, सालों के लिए रुक कर चल सकता है, रैंग सकता है, इकट्ठा हो सकता है, जिसके भी परिणाम मानव, वनस्पतियों, वन्यजीवों और स्वमं प्रकृति के हानिकारक होते हैं।  इसका यह मजार हर उस बड़े बांध से देख सकते हैं, जहां वो बना है, उस नदी से देख सकते हैं, जहां उसे रोका गया, टोका गया या बांधा गया हो। जहां भी ऐसा हुआ उसके अगल बगल, उपर नीचे जरुर प्रकृति ने कहर बरपाया, मतलब यह कि पानी को टोकने का विपरीत प्रभाव पड़ा।

पानी को दौड़ने ना दें, चलने ना दें, रेंगने ना दें, आखिर क्यों? पानी का  स्वभाव,  मिजाज, प्रकृति है। हम चाहें जो कहें, चाहें जो नारा दें, चाहें जो कानून कायदे बनाएं, पानी पानी है। प्राकृतिक संसाधन  ( नदी, पहाड़, पेड़, वनस्पतियों ) इन सब की अपनी तासीर होती है। इनके स्वभाव को बदलने के लिए बड़े जोश के साथ पिछले दो तीन दशकों से विशेष अभियान चलाया जा रहा है, विकास के नाम पर जंगलों को साफ़ किया जा रहा है, निर्माण व रा मेटेरियल के नाम पर पहाड़ों को ब्लास्ट कर नष्ट कर रहे हैं। भूगर्भीय जल स्तर बढ़ा ने के लिए जल को बांधा जा रहा है, नदियों के रास्ते में कंक्रीट के बांध बनाये गये, छोटे नालों की अनदेखी कर उन्हें मिटा दिया गया, ऊंची सड़कें बना दी गयीं, शहर बसा दिये गये। यह सब कार्य हमारे वर्तमान के जल वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, ठेकेदारों, कुछ पानें की लालसा रखने वाले व्यक्तियों की देन हैं, जिन्हें जल का व्यवहारिक ज्ञान नहीं है। उसकी तासीर का पता नहीं है।वहां की भौगोलिक आंतरिक व बाहरी संरचनाओं के बारे में जानकारी नहीं है। एक दौर था जब हमारी संस्कृति, समाज, समाज विज्ञानी जल प्रबंधन की जानकारी देते थे, जल से छेड़छाड़ करने से मना करते थे, नदियों को उनके स्वभाव से बहने देने की बात करते थे। समाज में जल भागीरथ, जल योद्धाओं की कमी नहीं थी, समाज वैज्ञानिक ही जल विशेषज्ञ होते थे, जो नदियों को बहने देने की बात करते थे। आज स्थिति विपरीत है। इस दोर के जल वैज्ञानिकों, जल योद्धाओं, जल भागीरथों, जल प्रेमियों, जल संरक्षकों, जल प्रहरियों चाहें जो भी, सब  बहते जल को रोकने, टोकने, बांधने की बात करते है। इसी का परिणाम है कि राजस्थान के दर्जनों बांध पिछले दो दशकों से सूखे रह जातें हैं। 80 प्रतिशत बांधों का पानी मई जून में सूख जाता है, उनका अपना अस्तित्व ख़तरे में पड जाता है। इसके चलते अनेकों बांध, नदियां अतिक्रमण की चपेट में हैं। वेंटीलेटर पर सांसें गिन रहीं हैं।  उनके मरने के अंतिम दिन हैं।यह सब ज्यादातर देन वर्तमान के जल प्रबंधकों की तानाशाही की है, ना कि प्रकृति, मौसम, मानसून  की।

राजस्थान में जयसमंद बांध, छितोली का बांध, बुचारा का बांध, रामगढ़ बांध जैसे दर्जनों बांध पानी को तरस रहे हैं। वहीं रूपारेल नदी अपने स्वभाव को भूल चुकी है, गुमनाम नदी वेंटीलेटर पर है, गिरिजन नदी को मारने की साज़िश रची जा चुकी है तथा बाग गंगा और साबी अपने अस्तित्व को बचाने में नाकामयाब हैं। वहीं सोता नाला गंदगी की मार झेलने को मजबूर है। ऐतिहासिक बांध, ऐतिहासिक नदियां, नालें जो यहां की पारिस्थितिकी सिस्टम को बनाने,  वन्य जीवों के संरक्षण, भूगर्भीय जल स्तर को बनाए रखने में अपना योगदान दिया करते थे,आज स्वमं अपने को बचाने की गुहार लगा रहे हैं। आज हमें उन जल भागीरथों की आवश्यकता है, जो गंगा जैसी नदियों को सरंक्षण दें, उन जल योद्धाओं की आवश्यकता है,  जो पानी को चलना सिखायें, उन जल प्रेमियों की आवश्यकता है, जो भौगोलिक परिस्थितियों तथा नदियों के महत्व और जनता की आवश्यकता को मद्देनज़र  रखते हुए बांधों का निर्माण करें, उस संस्कृति और सभ्यता की आवश्यकता है,  जो जल जंगल जमीन को जीवन का आधार बताये, ना कि उन भागीरथों, प्रहरियों, योद्धाओं की आवश्यकता है, जों जल को बांधने की बात करते हैं, कंकरीट के बांध बनाने की बात करते हैं,  नदियों को रोकने और जोड़ने की बात करते हैं। अतः हमें नदियां के रास्ते को ख़ाली करना होगा, पानी को उसके स्वभाव से चलने देना होगा ,तब ही ऐतिहासिक बांध पानी से लबालब हो सकेंगे नदियां बच सकें। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)