नई दिल्ली। जनवरी और फरवरी 1964 में मैं उत्तर भारत के पुस्तकालयों का दौरा करता रहा। मार्च 1964 के पहले सप्ताह में मैं दिल्ली पहुंचा। एक दिन डॉ. परमात्मा सरन के घर गया तो वह नहा रहे थे। उनकी पत्नी ने बैठक में बिठाया। वहां मेज पर मैंने जो पुस्तक लिखी थी वह छपी हुई पड़ी थी। मैंने खोल कर देखा तो पाया कि लेखक डा. परमात्मा सरन छपा था। मुझे बड़ा गुस्सा आया कि जिसने एक शब्द नहीं लिखा उसका नाम लेखक के रूप में छपा है और जिसने अकेले पुस्तक लिखी, उसका नाम गायब है। मैं इसे बौद्धिक चोरी मानता हूं। रायल्टी भी उसे बिना एक शब्द लिखे हुए मिलेगी, यह धोखाधड़ी है। लेखक को उचित श्रेय न देना बौद्धिक बेईमानी है। वह भी दिल्ली विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ शिक्षक द्वारा, जिसे विश्व के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय (आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय) ने पी. एच. डी. की उपाधि दी है।
मैंने घर आकर एक पोस्टकार्ड पर लिखा कि मैं डा. परमात्मा सरन जैसे बेईमान और धोखेबाज व्यक्ति के साथ काम नहीं कर सकता इसलिए अपने पद से त्यागपत्र देता हूं और पोस्टकार्ड डाक के डिब्बे में डाल दिया। वहाँ से अपने घर आकर चौथी पुस्तक लिखना शुरू कर दिया। 'इतिहास के स्फुट लेख'। बिरला मिल के सामने एक प्रकाशक था-सुमेर बुक डिपो उससे मिला। पूछा इतिहास की पुस्तक छापोगे। उसने कहा- हम तो ढूंढ रहे हैं। उसे पांडुलिपि दी। उसने कुछ दिनों में छाप दी। मैने कुछ प्रतियां राजस्थान साहित्य अकादमी को भेज दी। उसने मुझे वर्ष 1964 का सर्वश्रेष्ठ लेखक घोषित कर दिया। केवल 24 वर्ष की आयु में। एशिया की सबसे ज्यादा बिकने वाली अंग्रेजी पत्रिका THE ILLASTRATED WEEKLY OF INDIA, मुंबई ने पहली बार हिंदी लेखक की खबर और चित्र छापा।