बलि का बकरा बनाने जैसी मानसिकता

लेखक : नवीन जैन

स्वतंत्र पत्रकार, इंदौर (एमपी)  

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लोकस्वामी अपने इसी पन्ने पर कुछ दिनों पहले इलेट्रॉनिक वोटिंग मशीन उर्फ ईवीएम विवाद के बारे में खासकर इसके विरोधी नेताओं ,सामाजिक संगठनों से अपील कर चुका है कि ईवीएम प्रथा पर फिलहाल अविश्वास करने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। हाल में ही पहले चरण के मतदान (19अप्रैल) से ठीक पहले तक देश की आला अदालत में चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता से जुड़े मामले पर सुनवाई होती रही। मामला ईवीएम में डाले गए वोटर वेरिफाइड, पेपर ऑडिट, ट्रेल (वी वी पी ए टी) पर्चियों से मिलान का है।   

सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल फैसला सुरक्षित रख लिया है।

बता दें कि 2004 के लोकसभा चुनाव से ईवीएम  प्रणाली की शुरुवात हुई थी। उसके बाद लगातार दस साल तक डॉक्टर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए वन और यूपीए टू की सरकारें केंद्र में चली ।यदि ईवीएम में कोई गड़बड़ी होती, तो फिर सवाल यह भी उठता  कि क्या डॉक्टर मनमोहन सिंह की मिली जुली लगातार दस साल चली सरकार किसी कथित गड़बड़ी के तहत सत्ता में आई थी।यह मानव स्वभाव है कि हार का ठीकरा कई चीजों पर फोड़ा जाता है, और अगर  फतेह मिल गई, तो कहा जाता है देखो,  ईमानदारी की ही  दुनिया में जीत होती है।कभी दिग्गज क्रिकेटर लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर ने अपने कॉलम में लिखा था कि असफलता अनाथ होती है, जबकि कामयाबी के कई अभिभावक होते हैं।इस परिदृश्य में भी ईवीएम के विरोधियों की मानसिकता को समझा जाना चाहिए।

हाल की बात है मध्य प्रदेश में 2023 में संपन्न विधानसभा चुनावों में दमोह से तत्कालीन गृहमंत्री डॉक्टर नरोत्तम मिश्र 7 हजार से ज्यादा वोटों से चुनाव हार गए थे।कौन नहीं जानता कि डॉक्टर मिश्र मध्य प्रदेश के आगामी मुख्य मंत्री भी बन सकते थे। सवाल लाजिमी है कि तब कांग्रेस ने डॉक्टर नरोत्तम मिश्र की हार पर  तालियां क्यों बजाई थीं। उस इलेक्शन में भी तो ईवीएम का ही उपयोग हुआ था।जबसे ईवीएम लागू हुई ,तब से सभी प्रमुख दल या तो चुनाव जीतते रहे या हारते रहे।कई राज्य सरकारों में तो उन दलों का शासन है जो वैसे भाजपा के विपक्ष में हैं ।देश भर मे राज्य सरकार के कर्मचारी ही विभिन्न चुनाव कराते हैं। संभव है कि नई वीवीपेट मशीनों के निर्माण और बैलेट मशीनों से इनके जुड़ाव के तरीके की वजह से व्यवस्था में कहीं कोई कमजोरी या नुक्स आया हो। इससे अदालतें और चुनाव आयोग निपट सकने में सक्षम है,लेकिन ईवी एम को लेकर बार_ बार संदेह वयक्त करना, तब तक अनुचित है, जब तक कि किसी गड़बड़ी के संकेत देने वाले समुचित प्रमाण और आंकड़े उपलब्ध न हो। 

बैलेट पेपर का जब तक चलन था तब तक तो चुनाव प्रणाली में कथित तौर पर हाहाकार मचा हुआ था। और तो और प्रधानमंत्री रहते हुए स्वर्गीय इंदिरा गांधी का रायबरेली से एक मर्तबा निर्वाचन  तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एसएस शकधर ने  रद्द तक घोषित कर दिया था। शकधर को रायबरेली के चुनाव अधिकारियों से शिकायतें मिली थी, कि बैलेट पेपर से जो मतदान हुआ है उसमें काफी गड़बड़ियां की गई है। अलहदा बात है कि जब फिर से मतदान करवाया गया, तो इंदिरा गांधी चुनाव जीत गई। यह तथ्य कौन भूल सकता है कि खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश के भी बैलेट पेपर के दिनों में भी वोटिंग के बूथ के बूथ लूट लिए जाते थे।यही नहीं गावों में जो पिछड़ी या दलित जमात के जो लोग रहते थे, उनके बारे में कहा जाता था कि शायद ही कभी उन्होंने अपने मत पत्र का उपयोग किया हो। 

वजह यह थी कि उनकी बस्तियों या टोलों के बाहर असामाजिक तत्व आकर उन्हें मतदान करने से डरा धमकाकर रोक देते थे। जबसे स्वर्गीय टी एन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बने तभी से भारतीय लोकतान्त्रिक चुनाव पद्धति में एक तरह का पुनर्जागरण आया। ऐसा मान लेने की कोई स्पष्ट वजह नहीं है कि देश टी एन शेषन के पहले के युग में फिर लौट रहा हैं।सवाल ये भी, तो है कि भारत में करीब 97 करोड़ वोटर्स हैं। देश में इस बीच शिक्षा से आई चेतना के चलते कोई भी सरकार या संवैधानिक संस्था मतदान प्रणाली में गड़बड़ी करके अपना माजना क्यों खराब करेगी।

यदि  देश की जनता को कोई शंका होती तो क्या वो इतने सालों तक अपना दम साधे बैठे रहती? कई लोग जर्मनी का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि वहां तो ईवीएम प्राणली को रद्द करके फिर से बैलेट पेपर की प्रणाली अपना ली गई है। यह कुतर्क है एक तरह का। और ये बात वैसी ही हुई कि कोई दूसरा कह कि अभी दिन थोड़ी, रात है,जिसके जवाब में मान लिया जाए कि हां रात ही तो है। ओशो अपनी कथित तर्क शक्ति के बूते पर रात को दिन बताने का कौशल जानते थे, लेकिन भारत में चुनाव लोगों की आस्था, तथा विश्वास के आधार पर होते हैं, जिसकी सभी दलों को कद्र करनी चाहिए, वर्ना ले दे कर ईवीएम को निशाने पर लेना बलि का बकरा बनाने जैसी मानसिकता होगी। यह लेख हमें पहले प्राप्त हो गया था, अर्थात लेख के सन्दर्भ में ऐसा न सोचा जाये  (लेखक का अपना अध्ययन नेवं अपने विचार है)