प्रकृति सत्त्व, रजस् और तमस् तीन गुणों की साम्यावस्था है : प्रो. (डॉ.) सोहन राज तातेड़

सृष्टि पंचभूतात्मक

लेखक : प्रो. (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान   

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भारतवर्ष में भौतिक जगत् की वैज्ञानिक व्याख्या के प्रयत्न कम ही हुए हैं। इन प्रयत्नों मंे  परमाणुवाद भौतिक जगत् की एक महत्वपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करता है। दूसरी महत्वपूर्ण व्याख्या सांख्य दर्षन के प्रकृति-परिणाम बाद मेें पायी जाती है। सांख्य की व्याख्या का एक महत्वपूर्ण पहलू प्रकृति के परिणाम या क्रमिक विकास अथवा उत्क्रांति की धारणा है। प्राचीन दार्षनिक सम्प्रदायों में यह धारणा कम ही मिलती है। आधुनिक योरप में ड़ार्विन ने अपना विकास का संप्रत्यय प्रस्तुत किया। सांख्य के अनुसार प्रकृति सत्त्व, रजस् और तमस् नाम के तीन गुणों की साम्यावस्था है। इस साम्यावस्था के भंग होने से सृष्टि की प्रक्रिया शुरू होती है। 

आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन पंच महाभूतों के विशेष गुण क्रमषः शब्द, स्पर्ष, रूप, रस और गंध है। सृष्टि का इतिहास क्या है, मानों चौबीस तत्वों का खेल है, जो प्रकृति से प्रारंभ होता है और पंचभूतों से समाप्त होता है। संसार न तो परमाणुओं के अंधाधूंध संयोग का फल है, न अंध कारण-कार्य शक्तियों का निरर्थक परिणाम है। सृष्टि एक विशेष प्रयोजन से होती है। इसका उद्देष्य है नैतिक या आध्यात्मिक उन्नति का साधन होना। आकाश तत्व, पंचतत्वों में सबसे अधिक उपयोगी एवं प्रथम तत्व है। इसको आकाश और शून्य भी कहते हैं। जिस प्रकार महत्तत्व (ईश्वर) निराकार किन्तु सत्य है। उसी प्रकार आकाश तत्व निराकार भी है और सत्य भी है। आकाश तत्व कभी नाश नहीं होता-महाप्रलय में भी नहीं। आकाश विशुद्ध तथा निर्विकार होता है। अतः उससे हमे विशुद्ध एवं निर्मलता (आरोग्य) की प्राप्ति होती है। 

वायु तत्व, पंच तत्वों में दूसरा आवश्यक तत्व है। जल ही जीवन है और वायु प्राणियों का प्राण ही है। एक मिनट भी हमको वायु न मिले हम घबरा उठते है। सारे शरीर में बेचैनी फैल जाती है अधिक देर तक वायु न मिले तो प्राणान्त हो जाता है। अतः यह मनुष्य मात्र का अत्यन्त आवश्यक भोजन तत्व है। प्रतिदिन हम जितना भोजन करते हैं और जल पीते हैं उससे लगभग सातगुना वायु भक्षण करते हैं। हम श्वास द्वारा जो वायु खींचते हैं वह फेफड़ों में 15 वर्गफुट से अधिक का चक्कर लगाता है। विश्व का वायु मण्डल जिसमें हम श्वास लेकर जीवित रहते हैं पृथ्वी के चारों ओर 300 मील तक फैला हुआ है। यह वायु मण्डल कई प्रकार की वायु का मिश्रण है। इसमें जल के वाष्प का बहुत बड़ा अंश विद्यमान है। 

इसके सिवा इसमें चार भाग नाइट्रोजन और एक भाग आक्सीजन है। ये दोनों वायव्य हमारे शरीर के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। अत्यन्त अल्प मात्राओं में कहीं-कहीं रासायनिक क्रिया से उपजे अन्य प्रकार के वायव्य भी मिलते हैं। धूल-कण भी वायु मण्डल में व्याप्त रहते हैं। अग्नि, सृष्टि के उपादान पंच तत्वों में तीसरा उपयोगी तत्त्व है। परन्तु दृष्ट तत्त्वों (अग्नि-जल तथा पृथ्वी) में प्रमुख दृश्य तत्व अग्नि ही है। आकाश और वायु तो महतत्व (सबका आदि कारण ईश्वर) की तरह ही अदृश्य तत्व है। अग्नि को अग्निदेव मानकर उनकी पूजा अर्चना का विधान शास्त्र कारों ने बताया है। ऋग्वेद के प्रथम मंत्र ‘अग्नि मीडे पुरोहितम्’ आदि में ईश्वर के प्रत्यक्षरूप अग्नि की ही प्रार्थना की गयी है। गायत्री मंत्र में भी, जो भगवद् रूप महामंत्र है इस तत्व के अधिष्ठाता सूर्य की ही उपासना हैं। यह सत्य है कि जो व्यक्ति सूर्य प्रकाश का जितना ही अधिक सेवन करेगा उसकी दिमागी शक्ति उतनी ही विकसित होगीं सूर्य प्रकाश के सेवन से मस्तिष्क में एक प्रकार की चुम्बकीय शक्ति आती है जो मनुष्य को बुद्धिमान बना देती है। 

हमारे पूर्वज मुनि-ऋषि इसी सूर्यो पासना की बदौलत बुद्धिमान बने जिनकी जोड़ का एक भी बुद्धिमान व्यक्ति भविष्य मंे अब पैदा होगा या नहीं, संदिग्ध ही है। अग्नि तत्व से हमें धन जन की प्राप्ति एवं रक्षा होती है। प्रलय-काल में सृष्टि जल में निमग्न होती हैं। सर्ग-काल मंे फिर जल से ही उसका उदय होता है। अर्थात्, सृष्टि के आरम्भ में भगवान की चेतना-शक्ति की प्रेरणा से क्रमशः आकाश, वायु तथा तेज (अग्नि) के प्रादुर्भाव होने के बाद रूप तन्मात्रमय तेज के विकृत होने पर उससे रस तन्मात्र होता है जिसमें जल तत्व की उत्पत्ति होती है। सांसारिक जीवन का तो आरम्भ ही जल से हुआ है। जो वैज्ञानिक विकासवाद, पौराणिक अवतारवाद तथा औपनिषादिक सृष्टिवाद, तीनों से सिद्ध है। 

अतः इसी जल से हमारा पालन पोषण भी सम्भव है। बिना जल के हम जी नहीं सकते। अतः जल ही विष्णु है, हमारा पालनहार और रक्षक है वायु मण्डल वास्तव में वाष्प मण्डल है थोड़ी देर के लिए भी यदि जल का अंश वायु से खिंच जाये वायु, जल शून्य हो जाये तो यह भूमण्डल भी जीव शून्य हो जाये जल में सभी कुछ घुल जाता है नितान्त विशुद्ध जल में कांच तक घुल जाता है और तेल भी। सब जड़-चेतन वस्तुओं को धारण करने से इसे धरती, धारत्री, धरा कहते हैं। मुनष्य इसे खोद-खाद करके और इस पर कचरा फैलाकर जो अपराध करते हैं, उन्हंे क्षमा करने से इसे क्षमा कहते हैं। इसके गर्भ में कई रत्न और खनिज पदार्थ भरे रहने से इसे रत्नगर्भा, वसुधा, वसुन्धरा, वसुमती रत्न प्रसविनी आदि कहते हैं। इसके गर्भ से खाद्य पदार्थ पोषक तत्व ग्रहण करते हैं, जिन्हें खाकर हम स्वस्थ बनते हैं, इसलिए इसे रसा भी कहते हैं। विष के प्रभाव को नष्ट करने के कारण इसे अमृता भी कह सकते हैं। पृथ्वी, पंचतत्वों में पांचवां और अन्तिम तत्व है। यह अन्य चार तत्वों-आकाश, वायु, अग्नि तथा जल का रस है। जिन पांच तत्वों से हमारा शरीर बना है, मिट्टी तत्व उसमें सबसे अधिक प्रधान है। (धरती में सभी महाभूतों का समावेश) है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)