अंग्रेज भी बोलते थे राम की बानी

 

लेखक : नवीन जैन

स्वतंत्र पत्रकार, इंदौर (एमपी)

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अयोध्या में तो खैर इन दिनों रामलीला नाटकों के मंचन से अवधपुरी और राम मय हो रही है, लेकिन शायद बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि गुलामी के दौर में अंग्रेज लाट साहब तक रामलीला मंडलियों का संचालन करते थे। न्यू अल्बर्ट  की राम लीला कंपनी बड़ी  मशहूर हुआ करती थी।1910 में जयपुर के तत्कालीन महाराजा सवाई माधोसिह्न ने अपने राज  दरबार में उक्त राम लीला के मंचन के लिए न्यू अल्बर्ट कंपनी को निमंत्रण दिया। महाराजा खुश तो भये, लेकिन उन्होंने उक्त कंपनी के मालिकान को बरेली के राम कथा वाचक राधेश्याम से संपर्क करने को कहा, ताकि उक्त मंचन में और प्रामाणिकता, रोचकता, लालित्य, तथा कसाव आए। कंपनी के प्रबंधक राधेश्याम जी के पास बरेली पहुंचे। राधेश्याम जी ने संपूर्ण रामायण की चौपाइयां ऐसी रोचक खड़ी हिंदी में लिखी कि दिल्ली, जयपुर ,मुंबई, अमृतसर, लाहौरपेशावर और ढाका तक लोग राम की बानी बोलने लगे। मतलब देश दुनिया में आज जैसा ही राम मय माहौल हो गया।

उन दिनों पारसी थियेटर का चलन चरम पर था। उक्त मंडली ने इन थियेटर कंपनियों की भी छुट्टी कर दी।इस सफलता से अभिभूत हुए राधेश्याम जी ने वीर अभिमन्यु, द्रोपदी स्वयंवर, भक्त प्रह्लाद आदि पौराणिक आख्यानों पर भी मंचन योग्य नाट्य रूपांतरण लिखे, लेकिन उक्त रामकथा की चौपाइयों का समाज में इतना आकर्षण था कि 1920 आते आते उक्त चौपाइयों के संग्रह की पौने दो करोड़ प्रतियां बिक चुकी थी,जबकि अभिवाजित भारत की आबादी 25 करोड़ के आसपास ही थी।

राधेश्याम जी की इन चौपाइयों को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपति भवन में और प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के पिताश्री मोतीलाल नेहरू ने भी आंनद भवन बुलाकर सुना था।राम कथा को तब जन जन तक पहुंचाने वाले राधेश्याम कथा वाचक पर अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. भी हो चुकी है। यह इस बात का प्रमाण है कि तब भी राम और भारतीयता के प्रसार में वैमनस्य का भाव नहीं था। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)