इतिहास के पन्नों में सिमटा "सांभर" का वास्तविक नाम "शाकम्भर"

दस्तावेजों में सांभर के स्थान पर शाकम्भर को नहीं मिली मान्यता

शिवाजी के बेटे संभाजी के नाम पर शाहजी ने व्यंजन का नाम सांभर रखा 

तभी से अपभ्रंश हुआ सांभर शाकंभर, सपादलक्ष नाम का भी इतिहास में उल्लेख है

शैलेश माथुर की रिपोर्ट 

www.daylife.page  

सांभरझील। मैं सांभर नहीं प्राचीन शाकम्भर हूं। मेरा इतिहास अति प्राचीन है। बिजौलिया और हर्ष के शिलालेखों से मेरे वजूद का पता चलता है। मेरे हृदय में बसा मां शाकम्भरी का मन्दिर मेरे वास्तविक नाम का गवाह है। यहां के राजाओं को बड़े गर्व से शाकम्भर नरेश पुकारा जाता था। मेरी उम्र के साथ ही बदली सभ्यता और संस्कृति ने कब मेरे वास्तविक नाम को गौण कर दिया मुझे भी अब कुछ याद नहीं है। शाकम्भर के बाद में सपादलक्ष, शम्बर और वर्तमान में मुझे अब सांभर के नाम से पहचान मिली। मुझे गहरी वेदना है कि मेरे वास्तविक नाम को लौटाने के लिए अभी तक कोई शूरवीर साहस नहीं जुटा पा रहा है। पाश्चात्य संस्कृति का एक खाद्य पदार्थ और जंगल में पाया जाने वाले एक शाकाहारी पशु को जब मेरे नाम से ही पुकारा जाता है तो वेदना और बढ़ जाती है। 

मुझे आज भी विश्वास है कि एक दिन मेरा इतिहास फिर से दोहराया जाएगा और मेरा वास्तविक नाम भी। पुराणों में भी उल्लेख मिलता है कि राजा वृषपर्वा शासक रहे तो उनकी पुत्री शर्मिष्ठा एवं गुरू शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को मेरे आंचल में जगह मिली। मुझे हर्ष है कि मेरे पास ही बृहस्पति के पुत्र कच ने दैत्य गुरू शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या हासिल कर मेरा गौरव बढ़ाया। भले ही मेरा नाम अपभ्रंश कर दिया गया हो लेकिन मेरी गाथा और महत्ता आज भी तनिक कम नहीं हुई है। यूं तो मेरे वास्तविक इतिहास में बहुत कुछ छिपा है, तो बहुत कुछ उजागर होने को तड़प रहा है। 

शिलालेखों में सन् 551 से 1192 तक मुझे चौहान साम्राज्य की राजधानी दर्शाया गया है। छह शताब्दी से अधिक समय तक चौहान वंशीय बत्तीस शासकों को मेरी शरणस्थली मिली तो वासुदेव चौहान को प्रथम शासक होने का खिताब मिला वहीं पृथ्वीराज चौहान तृतीय मेरे यहां अन्तिम हिन्दू सम्राट रहे। सन् 1192 में पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के करीब दो वर्ष बाद मौहम्मद गौरी का शासन रहा और तकरीबन 349 साल तक मुगल शासकों का जबरदस्त बोलबाला रहा। आईने अकबरी में भी मुगल शासक सम्राट अकबर का विवाह सन् 1521 में आमेर के राजा बिहारीमल की पुत्री के साथ यहां होना बताकर मेरे वजूद को सिद्ध किया है। 

बादशाह जहांगीर द्वारा बनवाई गई माता के दरबार के पिछवाड़े मौजूद छतरी भी एक अनूठी मिसाल से कम नहीं है। इसके बाद सन् 1541 में जोधपुर के राजा मालदेव का शासन रहा। सन् 1562 में सन्त दादूदयाल ने झील के मध्य छः वर्ष तक कठोर तपस्या कर तपोभूमि बनाया। मेरे आंगन में जैन धर्मावलम्बियों ने भी अपना सन्देश फैलाया। सन् 1467 में जिनचन्दाचार्य कृत सिद्धान्त सार संग्रह की प्रतिलिपि भी यहीं तैयार की गई। सन् 1693 में भट्टारक रत्नकीर्ति ने भी मेरे यहां कदम रखे। मुझे विभिन्न संस्कृतियों का संगम स्थल के रूप न में भी अमिट पहचान मिली है। सन् 1708 में फिर से मुगल सल्तनत रही तथा यहां का हाकिम सैय्यद अली अहमद कहलाया। सन् 1708 में जब जोधपुर के राजा अजीत सिंह व आमेर के राजा जयसिंह थे तो दोनों ने मिलकर आक्रमण कर दिया और अपना आधिपत्य जमाया। मेरे 2/3 हिस्से पर जोधपुर राज्य की तथा 1/3 हिस्से पर आमेर राज्य की मुहर लगी और मैं उस वक्त दो भागों में बंट गई। लवणीय स्वाद के कारण कारण मराठों का मन भी ललचाया और उन्होंने भी आक्रमण की योजना बनाई तथा जयपुर व जोधुपर रियासत से चौथ वसूली करनी चाही। 

मराठों व पिण्डरियों ने मुझ पर आक्रमण किया तथा इसी दरमियान शेखावटी के भोमियों ने जयपुर रियासत के खिलाफ बिगुल बजा दी। मजबूरन जयपुर व जोधपुर रियासत ने अंग्रेजी फौज की सहायता ली तथा सन् 1835 से 1844 तक अंग्रेजों ने फौज का खर्चा मेरे यहां पैदा होने वाले लवण की आय से वसूला। इसके बाद 1 जनवरी 1870 को जयपुर व जोधपुर रियासत ने मेरे तन से पैदा होने वाले नमक की खातिर मुझे अंग्रेजों के हवाले कर दिया और मेरी आजादी का गला घोंट दिया गया। मेरी तमाम गतिविधियों पर नजर रखी जाने लगी और अंग्रेज हुकूमत ने मेरा जमकर शोषण कर मेरा नाजायज फायदा उठाया। अंग्रेज हुकुमत के हिसाब से ही मुझ पर प्रशासनिक नियन्त्रण किया जाने लगा। नतीजा यह हुआ कि जयपुर- जोधपुर के राजाओं क्षरा मुझ एवं मेरे अधीन बारह गांवों का प्रशासन व न्याय अलग अलग दोनों रियासतों के कानून के मुताबिक चलता था जिससे मेरी प्रजा को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता था। 

इससे निपटने के लिए दोनों जगहों के शासकों में न्याय व प्रशासन को सम्मिलित रूप से संचालित करने के उद्देश्य से शामलाती शासन की स्थापना की गई तथा उक्त व्यवस्था 1 फरवरी, 1925 से लागू की गई। अंग्रेज शासक बैटिक के कार्यकाल में नमक के लदान के लिए झील के मध्य बिछाई गई पटरियां आज भी यथावत है, लेकिन रख रखाव और मरम्मत का दंश झेल रही है। आजादी के बाद राजस्थान राज्य का गठन हुआ तो मुझे राजस्थान के जयपुर जिले का सबसे पहले उपखण्ड होने का दर्जा मिला और मेरा विस्तार अधिक होने से सबसे बड़े उपखण्ड के तौर पर भी शौहरत मिली। 

यह भी सच है कि मुझे सन्तों और वीरों की पावन भूमि होने का गौरव हासिल है। जनश्रुति के अनुसार देवयानी और शर्मिष्ठा की सत्य दास्तान के लिए भी मुझे प्रसिद्धि मिली। महाभारत, श्रीमद्भागवत में भी मेरा वर्णन होना आनन्ददायक है। मेरे भीतर समाए इतिहास को ढूंढने के लिए सर्वप्रथम सन् 1184 में टी.एन. हाण्डले ने तथा इसके पश्चात पुनः सन् 1936- 38 में उत्खनन कर मेरी प्राचीनता को और उजागर किया। मेरे विराट हृदय से उस वक्त यह साबित हो गया था कि तीसरी शती ई.पूर्व तक मैं कितनी आबाद थी। उत्खनन के दौरान दबे अवशेषों में आहट, हिन्द- यूनानी, इण्डो ससैनियन, कुषाण एवं यौद्येय कालीन दो सौ सिक्कों के अलावा शुक-कुषाण एवं गुप्तकालीन मृण्मूर्तियां मिली। 

इस दौरान पुरानी सभ्यताओं के दबे अधूरे मकानों का निकलना भी किसी अजूबे से कम नहीं था और आज भी नए सिरे से उत्खनन की बाट जोह रहे हैं। भारत सरकार की ओर से इसके बाद मेरे इस हिस्से पर राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक चस्पा कर मुझे यूं ही वीरानी में छोड़ दिया। नलियासर खेड़ा नामक यह स्थल मेरा ही पुराना स्वरूप है। मैंने बहुत कुछ दिया है, लेकिन आज भी जब मेरे नाम को उलाहना मिलती है तो दिल टूट जाता है। मुझे आज भी सरकार से मेरी ओर दृष्टिपात कर यहां उद्योग धन्धों की स्थापना करने, जिले का दर्जा दिए जाने तथा पर्यटन के रूप में विकसित किए जाने का इन्तजार है।