येद्दियुरप्पा और बीजेपी का वंशवाद

लेखक : लोकपाल सेठी

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक 

www.daylife.page 

कर्नाटक में लगभग 6 महीने पहले हुए विधान सभा चुनावों में बीजेपी की हार के बाद पार्टी के केंद्रीय स्तर पर जब हार के कारणों की समीक्षा हुई तो यह बात सामने आई कि बीजेपी के परम्परागत समर्थक लिंगायत समुदाय, जो दक्षिण के इस राज्य में  सामाजिक और राजनीतिक नजरिये से अति प्रभावशाली है, के एक वर्ग ने इस बार बीजेपी उम्मीदवारों के पक्ष में वोट नहीं दिया। इन इन चुनावों में पार्टी को पिछले चुनावों को अपेक्षा 5 प्रतिशत कम मिले थे। पार्टी ने इन घटे मतों की गहराई से पड़ताल करने के लिए जब एक चुनावी सर्वे संस्थान से सर्वेक्षण करवाया तो यह बात सामने आई कि कम मत पड़ने के पीछे लिगायत समाज की एक बड़ी भूमिका थी।समुदाय के मतदाताओं को बीजेपी के बड़े नेता और राज्य के चार बार मुख्यमंत्री रहे बी वाई येद्दियुरप्पा की अनदेखी करना नहीं  भाया। विधान सभा चुनावो से दो साल पूर्व येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया था। हालांकि उनके स्थान पर मुख्यमंत्री बनाये गए एस आर बोम्मई भी लिंगायत समुदाय थे, लेकिन उनकी इस समुदाय पर येद्दियुरप्पा  जैसी पकड़ नहीं थी। 

पिछले दो दशकों से येद्दियुरप्पा बीजेपी का ने केवल एक बड़ा चेहरा है वे बल्कि अपने समुदाय के लगभग एक छत्र नेता है। राज्य में लिंगायत समुदाय मोटे तौर पर 16 प्रतिशत है। लेकिन इस समुदाय का राज्य में राजनीतिक दबदबा आबादी के तुलना से कहीं अधिक है। ऐसा माना जाता है कि दक्षिण के इस राज्य में 2008 में इस समुदाय के बलबूते पर ही बीजेपी सत्ता में आई थी और येद्दियुरप्पा मुख्यमंत्री बने थे। 2018 में येद्दियुरप्पा पार्टी को   सत्ता में लाने में कामयाब हुए थे। इससे पहले वे 2013 मतभेदों के चलते पार्टी से अलग हो चुके थे। 2018 के विधानसभा चुनावों से पहले बीजेपी उनका अपनी नहीं बल्कि उनकी शर्तों पर पार्टी में वापिस लेने को तैयार हो गई थी। 

पार्टी की परम्परा के अनुसार 75 वर्ष पूरे होने के बाद कोई भी नेता किसी पद नहीं रहता। लेकिन कर्नाटक में सत्ता में लौटने के लिए पार्टी ने इस परम्परा को छोड़ दिया गया। येद्दियुरप्पा उस समय 75 वर्ष का आंकड़ा पार कर चुके थे फिर भी उन्हें न केवल राज्य पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया बल्कि उन्हें पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश किया गया। पर उन्हें अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया तथा दो वर्ष तक ही वे मुख्यमंत्री रहने के बाद उनको पद  छोड़ने के लिए कहा गया। वे पद छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। समुदाय के नेता भी चाहते थे कि वे इस पद बने रहे लेकिन लेकिन पार्टी आला कमान अपनी बात पर अड़ी रही। इससे पहले उनके नेतृत्व में पार्टी ने राज्य में लोकसभा चुनाव लड़ा तथा पार्टी कुल 28 में से 27 सीटें जीतने में सफल रही। चूँकि बीजेपी अपने यहाँ वंशवाद को बढ़ावा देने के खिलाफ है फिर भी येद्दियुरप्पा के बेटे बी वाई राघवेन्द्र को लोकसभा का उम्मीदवार बनाया गया। 

पद छोड़ने से पूर्व वे चाहते थे कि उनके छोटे बेटे को विजयेन्द्र को राज्य मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया जाये लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई। इसके चलते वे पार्टी के केंद्रीय नेताओं से नाराज़ थे। हालांकि पद छोड़ते समय कहा था कि वे पार्टी लिये पहले की तरह से काम करते रहेंगे लेकिन वे अधिक सक्रिय नहीं रहे। विधानसभा चुनावों में वे अपनी पसंद के कई लोंगों को उम्मीदवार नहीं बनवा पाए। इसी के चलते उन्होंने विधान सभा चुनावों में बड़े स्तर पर चुनाव अभियान में भाग नही नहीं लिया। यह भी कहा गया कि राज्य पार्टी के कई नेता भी ये नहीं चाहते थे कि येद्दियुरप्पा को चुनावों को कोई बड़ी भूमिका दी जाये। यह अलग बात है चुनावों से पहले उनको केंद्रीय संसदीय बोर्ड का सदस्य बना दिया गया। उस समय उनकी ऊमर 80 के आस पास थी और सामान्य रूप से वे किसी पद  के लिए योग्यता की श्रेणी से बाहर थे। 

विधानसभा चुनावों में हार के बादपार्टी चाहती थी कि पार्टी ऐसी दुर्दशा लोकसभा चुनावों में न  हो। पार्टी के नेता इन चुनावों में उनकी केंद्रीय भूमिका चाहते थे। इसके चलते वंशवाद को बढ़ावा नहीं देने नी  नीति के बाहर जाकर उनके छोटे बेटे विजयेन्द्र को राज्य पार्टी का अध्यक्ष बनाने का निर्णय हुआ। पार्टी में यह नियम भी है कि एक नेता एक ही समय दो पदों पर नहीं रह सकता जबकि विजयेन्द्र राज्य विधान सभा के सदस्य भी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि  लोकसभा अधिक से अधिक सीटें जीतने लिए पार्टी के केन्द्रीय नेत्रित्वे ने सभी नियमों और परम्पराओं को ताक पर रख दिया। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार हैं)