देश से अच्छी गुणवत्ता वाली वायु ग़ायब होना चिंता जनक

लेखक : राम भरोस मीणा  

प्रकृति प्रेमी व पर्यावरण कार्यकर्ता हैं।

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दम घोंटू वायु चारों ओर पर्यावरण में अपने पांव फ़ैला चुकी है वहीं औधोगिक इकाईयों द्वारा तेजी से कार्बन उत्सर्जन किया जा रहा है जो आगामी समय में विनाश का रास्ता साफ कर रहा है,  राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कठोरता के साथ चिंतन करने की आवश्यकता है वहीं वायु की गुणवत्ता बनना की जरूरत है, जिससे बड़ते विनाश से श्रष्टि को बचाया जा सके।

धरती पर सभी संजीव प्राणियों को जीवित रहने के लिए शुद्ध हवा पानी भोजन तीनों की बहुत बड़ी आवश्यकता होती है। भोजन के बिना कुछ समय स्वस्थ रह सकते है, पानी बिन मुश्किल से कुछ घंटे, लेकिन आंक्सिजन के बगैर  कुछ क्षणों में ही अपने प्राण त्याग सकते है, यही स्थिति सभी अन्य जीव जंतुओं की है। मानव प्रकृति के साथ अपनी नैतिक जिम्मेदारी और प्राकृतिक संसाधनों के महत्व को जैसे जैसे समझने लगा आदिमानव उसके संरक्षण में जुटने लगा, एक दुसरे को जुटाए, सामाजिक नियम बनाए, व्यवस्थाएं की ओर उसी से हजारों वर्ष प्राकृतिक स्वच्छता सुंदरता बनीं रहीं। जल जंगल जमीन पर्याप्त मात्रा में रहें ओर वह उनका आनन्द लेता रहा, नदी झरनों की साफ-सफाई स्वयं की जिम्मेदारी समझा समझाया अपनाया। 

लेकिन जैसे जैसे व्यक्ति विकास की तरफ़ बड़ता गया वैसे वैसे अपनी संस्कृति सभ्यता और स्वयं की जिम्मेदारी से मुक्त होता चला गया, परिणामस्वरूप आज जों प्रकृतिप्रदत्त संसाधन हमारे रक्षा कवच का कार्य कर रहे थे, उन्हें हम सबसे पहले नष्ट करने में अपना योगदान दिये ओर उसे व्यक्ति समाज सरकार के विकास की परिभाषा के साथ जोड़कर भ्रमित करते रहे तथा कर रहे हैं, उसी विकास ने विनाश का रास्ता साफ कर दिखाया वहीं हजारों सालों की सामाजिक व्यवस्थाओं, प्राकृतिक संसाधनों, भू मण्डल, जल मण्डल व नभ में विभिन्न प्रकार के ज़हर घोल दिया, जिससे आज वायु मिट्टी पानी भोजन सभी में ज़हर घुल गया और हमारे बीच प्रभात के समय कलरव चहचहाहट करने वालीं अपनी आवाजों से मानव शरीर को शांति प्रदान करने वालीं पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां विलुप्त प्रायः हों चुकी, महसूस होने लगा।

मानव अपना स्वयं का स्वार्थ पुरा करने के साथ सभी की चिन्ता फिखर करना पुर्ण तय छोड़ दिया, वह अपने जीवन को आज आनंदमय जीवन जीने, अपने को श्रेष्ठ साबित करने के लिए इस दुनिया की कितनी ही बड़ी बली देने में कोई संकोच नहीं करता और यह हो भी रहा है। 2001 से 2023 के मध्य महज़ 23 वर्षों में वनों का विनाश इस क़दर हुआ कि पोल्यूशन नामक राक्षस अपने पांव इतने मजबूत कर बैठा की आज प्रत्येक ढाणी, गांव, कस्बा, शहर, नगर, महानगर में दमघोंटू हवा, ज़हरीला रसायन युक्त पानी, मिलावटी स्वादिष्ट भोजन, प्लास्टिक के पहाड़, धुआं के ज़हर भरें बादल दिखाई देने लगे हैं। वन्य जीव पशु पक्षियों  के विचारण करने के प्राकृतिक स्थल नष्ट हो गय, उन्हें भोजन के लिए प्लास्टिक तथा प्लास्टिक में लगे खाद्य पदार्थ से अपना पेंट भरना पड़ रहा है, वहीं वो बेमौत मर रहे हैं। 

पोल्यूशन के बढ़ते श्वास लेने योग्य वायु नहीं रही है रणथम्भौर, केलादेवी, सरिस्का जैसे राष्ट्रीय अभ्यारण्य क्षेत्रों के चारों ओर वायु की गुणवत्ता इस समय मध्यम स्तर की है जों आगे चलकर ख़राब होने का पुर्ण अंदेशा है, जबकि वन्य जीवों के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली वायु होना आवश्यक है। दिल्ली, गुड़गांव, भिवाड़ी, आगरा, जयपुर की हवा ख़राब स्थिति में है, वहीं राजस्थान के हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर, भिवाड़ी, बीकानेर में बहुत खराब यानी 300 - 438 के मध्य पहुंचने से गंभीर स्थिति बनी हुई है, पोल्यूशन बड़ता जा रहा है, ग्लोबल वार्मिंग की जगह ब्यालींग तेजी से बड़ रहा है, परिणामस्वरूप मानव का जीवन जीना दुर्लभ होता जा रहा है, दमा,  श्वास,  चर्म,  हार्ट,  लीवर, एलर्जी जैसे रोग बढ़ने लगे हैं। ग्लेशियर पिघल रहे है, प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा रहा है,  भूकम्प अपनी चाल बदल रहा है, धरती का गर्भ सुख रहा है, हवा से आंक्सिजन ग़ायब हो रहा है, आखिर ऐ सब विनाश नहीं तों क्या है? यही स्थिति देश दुनिया की बनी हुई है फिर भी गाजापट्टी में युद्ध की आवश्यकता क्यों, क्या पर्यावरणीय हालातो को देखते समझोता नहीं कर सकते, सभी को चिंता के साथ चिंतन करने की आवश्यकता है।

पर्यावरणीय ख़तरों से हमें निपटने के लिए वक्त रहते एक ठोस कदम राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर उठाने के साथ इसे लेकर शख्त से शख्त कानून बनाने की आवश्यकता है, रूग्ण औधोगिक इकाईयों, प्लास्टिक निर्माण पर प्रतिबंध के साथ अपशिष्ट पदार्थों का सही से निस्तारण किया जाए, प्रत्येक व्यक्ति की पर्यावरणीय विकास में सहभागिता सुनिश्चित हो, राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर कठोरता से पालन कराने के साथ वनों के विकास पर ध्यान दिया जाए जिससे इस धरा पर सभी संजीव प्राणियों को जीवित रहने योग्य वातावरण प्राप्त हो सकें साथ ही प्राकृतिक व मानव निर्मित आपदाओं से दुनिया को बचाया जा सके। (लेखक के अपने निजी विचार है।)