जैन व बौद्ध धर्म दर्शन मानवतावादी है : प्रो. (डॉ.) सोहन राज तातेड़

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान

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मानवतावाद का अर्थ है मानव के अस्तित्व को महत्व देना। मानवतावाद, दर्शन की एक ऐसी विचारधारा है जिसके अन्तर्गत मानव तथा उसकी समस्याओं के विवेचन को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। मानवतावाद में मनुष्य को ही केन्द्रीय स्थान मिला है। यह विचारधारा मनुष्य के हितों से संबन्धित है। मानवतावाद मुख्यतः इहलोक, बुद्धिवाद और व्यक्तिवाद के साथ मानव जीवन और उसकी अनुभूतियों को महत्व देता है। इस रूप में मानवतावाद से अभिप्राय उस दर्शन से रहा हैं जिसका केन्द्र व प्रमाण दोनों मनुष्य ही है। इस प्रकार मानवतावाद का अभिप्राय मनुष्य केन्द्रित दर्शन है। यह दर्शन पूर्वजन्म, स्वर्ग-नरक या परलोक की अवधारणाओं को स्वीकार करना आवश्यक नहीं समझता है। मानवतावाद मनुष्य के कल्याण एवं सर्वतोमुखी विकास की दृष्टि से जाति, वर्ग, सम्प्रदाय को अधिक महत्व नहीं देता। मानवतावाद की मुख्य मान्यता है कि हमारे प्रयत्नों एवं लाभ हानि का प्रधान कार्य क्षेत्र इहलौकिक जीवन है न कि पारलौकिक जीवन। 

इस प्रकार मानवतावाद का मुख्य केन्द्र वर्तमान जीवन और उसका उच्चतम निर्माण है। मानवतावाद का उद्देश्य ईश्वर या किसी अन्य अलौकिक शक्ति के स्थान पर स्वयं मनुष्य तथा उसकी मूल समस्याओं का निष्पक्ष अध्ययन करना है। इस दार्शनिक विचारधारा के अन्तर्गत मानव की उत्पत्ति, प्राकृतिक परिवेश में उसके विकास, ब्रह्माण्ड के साथ उसके संबंध, उसके व्यक्तित्व, स्वभाव तथा आचरण का वस्तुपरक अध्ययन है। मानवतावाद में अमूर्त, निरपेक्ष, अलौकिक, शक्तियों के स्थान पर मनुष्य के मूर्त एवं वास्तविक समस्याओं का विवेचन किया जाता है। इस कारण मानवतावाद में ईश्वरवाद, कर्मकाण्ड एवं परलोक वाद को महत्व नहीं दिया जाता। इसमें मनुष्य के व्यक्तित्व एवं अनुभव को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। यह दर्शन मानव स्वभाव पर आधारित है। अतः इसमे प्रत्येक मनुष्य का मूल्यांकन केवल मनुष्य होने के कारण किया जाता है। 

मानवतावाद की स्थापना के लिए कपट, सहिष्णुता, तितिक्षा, करुणा और अपरिग्रह की मान्यता एक अनिवार्य शर्त है। हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध दर्शन दोनों ही इन प्रमुख मानवतावादी सिद्धान्तों से भरे पड़े हैं। “परस्परोपग्रहोजीवानाम्“ से लेकर ’जियो और जीने दो’ का सिद्धान्त ही इन दर्शनों की मुख्य धुरी है, जिसमें मानवतावाद का पर्याप्त पोषण किया गया है। बौद्ध दर्शन में तो ईश्वर की सत्ता के साथ-साथ आत्मा की अमरता का भी निषेध कर दिया गया है। जिसके आधार पर मनुष्य के वर्तमान जीवन को सर्वाेपरि मान्यता मिली है और इसी जीवन के व्याप्त दुखों से मुक्ति के लिए दुख निरोध के अष्टांगिक मार्ग की अनिवार्यता बतायी गयी है। इसका मुख्य उद्देश्य है इसी जीवन में मानव का कल्याण। आचार शुद्धि, व्यवहार शुद्धि और विचार शुद्धि के आधार पर मनुष्य बिना किसी अतीन्द्रिय सत्ता के सहयोग से स्वयं को विकसित बना सकता है। 

अतः बौद्ध दर्शन मंेे अलौकिक शक्तियों में विश्वास एवं कर्मकाण्डो का खण्डन करके मनुष्य को आत्म निर्भर बनाने की प्रेरणा दी गई है जो मानवतावाद के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। बुद्ध का जन्म और उनके द्वारा चलाये गये धर्म का उत्थान कोई आकस्मिक घटना न होकर हिंसायुक्त कर्मकाण्ड एवं आडम्बरयुक्त पुरोहितवाद के विरूद्ध उत्पन्न विरोधात्मक चिंतन का परिणाम था। बुद्धकालीन भारत में पुरोहितों एवं क्षत्रिय शासकों के वर्चस्व ने सामान्य मनुष्य को दास एवं दरिद्र बना दिया था। ऐसे वातावरण में लौकिक दुखों की अनिवार्यता और अंत के विधान के लिए बुद्ध ने एक नवीन जीवन दृष्टि दिया जो इतना व्यावहारिक व महत्वपूर्ण था कि बौद्ध धर्म ने विश्वधर्म का रूप ले लिया।

जैन दर्शन, श्रमण परम्परा का प्रतिनिधि दर्शन है यह धर्म सुधार के आन्दोलन के रूप में विकसित होने के कारण नैतिकता पर विशेष बल देता हैं। जैन दर्शन की शाब्दिक उत्पत्ति ’जिन’ से है। जिसका अर्थ विजेता होता है जिन की उपासना करने वाले ही जैन कहलाते है। जैन दर्शन में कुल 24 ’जिन’ हुए उनमें अंतिम महावीर हैं। जिनका काल ई.पू. (599 से 527) तक माना गया है। महावीर को परम्परा से जैन सिद्धांत प्राप्त हुए, क्योकि महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ जैन मत को स्थापित कर चुके थे। जैन दर्शन को भारतीय दर्शन के नास्तिक खण्ड में स्थान मिला है। यद्यपि इस दर्शन की सभी महत्वपूर्ण मान्यताएं आस्तिक दर्शनों के समान है। मूल अंतर मात्र इतना है कि कर्मकाण्डीय पक्ष को अक्षरशः स्वीकार नही किया गया किन्तु इसके बावजूद भी जैन दर्शन की कुछ विशिष्ट मान्यताएं इतनी महत्वपूर्ण रही कि आस्तिक दर्शन भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। अहिंसा एक सार्वभौमिक मूल्य है जिसे विश्व के सभी धर्म दर्शनांे में मान्यता मिली है। 

भारतीय दर्शन के विकास में अहिंसा की स्थापना में जैन दर्शन की मुख्य भूमिका है। जैन दर्शन ने “अहिंसा परमोधर्मः” का उद्घोष किया जिसे परवर्ती सभी दर्शनों ने स्वीकार किया। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्मा बन सकती है। इसके लिए मात्र इतनी आवश्यकता है कि आत्मशक्तियों को पहचाना जाए और बाधक तत्वों पर विजय प्राप्त करके आत्म शक्ति का पूर्ण विकास किया जाय। जैन दर्शन की महत्वपूर्ण विशेषता है आत्मोन्नति का समान अवसर। यह सभी प्राणियों पर लागू होता है। ब्राह्मण हो या शूद्र, महिला हो या पुरूष जैन दर्शन का यह दृष्टिकोण अत्यंत व्यावहारिक है। जातिवाद या लिंगभेद जैसी व्यवस्था का विरोध जैन धर्म का वैशिष्ट्य है। अतः जैन और बौद्ध दोनों दर्शन मानवतावादी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)