लेखक : तिलकराज सक्सेना
जयपुर।
फ़र्क
कोई उल्लू बना रहा है,
कोई उल्लू बन रहा है,
दुनियाँ का ये गोरख धंधा,
सदियों से चल रहा है,
पर कल और आज़ में,
फ़र्क सिर्फ इतना सा है,
पहले डाकू होते थे,
चेहरों पर उनके,
मुखौटे नहीं होते थे,
अब डाकू नहीं, चोर ज्यादा हैं,
इनके पास कई मुखौटे हैं,
फ़र्क सिर्फ़ इतना सा है,
कल और आज़ में,
पहले किसी इंसां को,
जानवर कहने पर वो,
लाल-पीला हो जाता था,
आज़ बेशर्मी से हँसकर,
निकल जाता है,
और आज़ किसी जानवर को,
इंसां कह कर देखिये वो,
आग-बबूला हो जाता है।