लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं
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प्रदेश में विधानसभा चुनाव का कार्यक्रम घोषित हो गया है और राजस्थान में 25 नवंबर को मतदान होगा तो 3 दिसंबर को मतगणना होगी। मतदाता में उत्साह और दहशत का माहौल है तो चुनावी पार्टियों और उम्मीदवारों में साम, दाम, दंड, भेद को शतरंज बिछ रही है। सभी चाक चौबंद हो रहे हैं और मतदाता मौन है। मैं भी ये लोकतंत्र का उत्सव 1952 से ही देख रहा हूं कि मतदाता अगली बार अपनी सरकार का सपना देखते-देखते पागल हो गया है। सरकार बदलने पर भी व्यवस्था नहीं बदल रही है। और पार्टियां बदलने पर भी जनता का भाग्य नहीं बदल रहा है। जाति-धर्म और धनबल से लोकतंत्र कंगाल हो रहा है।
हमारा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और आजादी के बाद भी उसकी बुनियादी इच्छाएं पूरी नहीं हो रही है। कभी 76 साल पहले रोटी, कपड़ा, मकान का सपना लेकर हमारा लोकतंत्र एकजुट हुआ था तो कभी गरीबी हटाओ का शंखनाद करता थक गया था तो कभी अच्छे दिन आने वाले हैं का सपना देखकर चौपट हो गया था। स्थिति ये बन गई है कि मतदाता का सपना कभी मरता भी नहीं है तो कभी कोई सपना पूरा होता भी नहीं है। हमारा ये चुनावी लोकतंत्र कबीर दास की ऐसी उलट वाणी की तरह है कि यहां जीना भी जरूरी लगता है तो मरना भी अनिवार्य होता है। ये हमारे अज्ञान की सीमा है।
इस लोकतंत्र में गाते हुए और चिल्लाते हुए पीढ़ियां खप गई हैं लेकिन आश्चर्य की बात ये है कि मतदाता यहां कभी निराश नहीं होता है और हारकर और कुछ दिन इंतजार कर अगले चुनाव की तैयारी शुरू कर देता है। पांच साल तक असंतोष, अराजकता और हिंसा के बीच घर गृहस्थी को बचाने का उसे इतना अनुभव हो गया है कि अगली बार मेरी सरकार का राग उसके भीतर बजता रहता है। वो जानता है कि लोकतंत्र ही सपने देखने का एक मात्र मंदिर है। इस तरह लोकतंत्र जिंदा कोमों का सदाबहार कुरुक्षेत्र है और यहां चुनाव-दर-चुनाव पार्टियां, कौरव-पांडव और श्रीकृष्ण-अर्जुन तो बदलते रहते हैं लेकिन अधर्म-जीतकर भी हारता रहता है। और पाप चारों तरफ सिर चढ़कर बोलता रहता है। पुरानी तोपें नए-कारतूस चलाती रहती है।
तो नई तोपें भी पुराने कारतूस आजमाती रहती है। लेकिन अपराधी को कोई नहीं रोकता। हमारे लोकतंत्र में एक व्यक्ति एक वोट का मूल दर्शन कुछ इस तरह स्थापित हो गया है कि अब सिर गिने जाते हैं लेकिन गुण ज्ञान नहीं देखा जाता। यही कारण है कि हम अपने संविधान में तो संशोधन करते रहते हैं लेकिन चुनाव व्यवस्था के नियम और आचरण कभी नहीं बदलते। परिणाम ये है कि धर्म, जाति, क्षेत्रीयता और भाषा के झंडे आज भी चुनाव में लहराए जाते हैं और गरीब मतदाताओं की इच्छाओं पर धनबल, बाहुबल तथा घोषणाओं और आश्वासनों के शिकारी घोड़े दौड़ाए जाते हैं। अमरीका के बाद भारत ही एक ऐसा भूखे नंगों का देश है जहां चुनाव को भी होली-दीवाली की तरह पर्व के रूप में मनाया जाता है। और प्रचार और झूठ के बाजार की तरह चलाया जाता है। मतदाता के लिए चोर साहूकार की पहचान ही असंभव हो जाती है। यानी कि चुनाव एक उद्योग में बदल गया है और मतदाता जहां भी इंद्र सभा देखता है वहां नाचने लगता है।
एक उदाहरण को देखिए! यहां चुनाव से पहले गरीब मतदाताओं को मुफ्त साड़ियां, कंबल, साइकिल, लैपटॉप, बर्तन, मोबाइल, राशन किट बांटते हैं। और किसानों की आत्महत्याएं रोकने के बहाने मुफ्त बिजली, पानी के कनेक्शन और कर्ज माफी के ऐलान करते हैं। ये हमारे लोकतंत्र की दयनीय झांकी है और सभी पार्टियां यहां गरीब का चीरहरण करती है। दूसरा उदाहरण ये है कि हमारे लोकतंत्र की चुनाव प्रणाली को कालेधन से जीता जाता है। और सुप्रीम कोर्ट की सलाह और चुनाव आयोग की प्रार्थनाओं के बावजूद भी संसद से अपराधियों को चुनाव लड़ने से नहीं रोका जाता। यहां आधे से अधिक विजेता उम्मीदवार करोड़पति और अपराधी होते हैं लेकिन चुनाव की पवित्र गंगा को मैली करने से कोई नहीं रोक सकता। इस तरह वोट बैंक और नोट बैंक मिलकर सत्ता और व्यवस्था की रामलीला करते रहते हैं जिसमें रावण भी नहीं मरता और राम भी अयोध्या में राज नहीं कर पाते और सीता को भी भूमि समाधि लेनी पड़ती है।
लोकतंत्र में मतदाता को लूटने और आंख में धूल झोंकने का ये इतिहास अब इतना दूषित हो गया है कि अपराधी जेल में बंद रहकर भी चुनाव जीत जाते हैं। और उद्योगपति पैराशूट से सीधे संसद और विधानसभा में घुस जाते हैं। अब कभी आप सोचिए कि इस लोकतंत्र, संसद, और संविधान को कौन चला रहे हैं और तुलसीदास को कौन राम बनकर नचा रहे हैं।
आजादी के बाद जितने भी चुनाव हुए हैं और जितनी भी सरकारें आई गई हैं उसी का ये कुल जमा परिणाम है कि आस्था और अज्ञान की राजनीति से समाज में हिंसा, भ्रष्टाचार, गैर बराबरी और अमीर-गरीब की खाई बढ़ रही है। गांधी जी और अंबेडकर को यहां कोई मान रहा है और दलित, आदिवासी, महिलाएं तथा अल्पसंख्यक भारत-लोकतंत्र की विकास धारा से बाहर हाशिए पर खड़ा है। कुछ सोचो और जागो नहीं तो अच्छे दिन आगे कभी नहीं आएंगे क्योंकि लोकतंत्र की नई बोतल में जाति धर्म, कालेधन और अपराध की पुरानी शराब-मतदाता को पिलाई जा रही है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)