कर्नाटक में मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री में तनातनी

लेखक : लोकपाल सेठी

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक 

www.daylife.page 

लगभग 6 महीने पूर्व दक्षिण के कर्नाटक राज्य में हुए विधानसभा चुनावों में पहले से ही लगने लगा था कि सत्तारूढ़ बीजेपी को हटा कर कांग्रेस पार्टी सत्ता में लौटेगी। उसी समय यह बात भी साफ़ सी हो गई थी कि पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारामिया और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष डीके शिवकुमार, होंगे। चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी अच्छी खासी सीटें जीत कर बहुमत में आई। 

मुख्यमंत्री का पद किस को दिया जाये, इसको लेकर लगभग एक महीना तक असमंजस की स्थिति बनी रही। कांग्रेस हाई कमान यह तय नहीं कर पा रही थी कि इस पद के लिए दोनों में से कौन सही होगा। एक तरफ सिद्धारामिया थे जिनको सरकार चलने का लम्बा अनुभव था। वे पिछड़े वर्ग से आते है तथा अपने  समुदाय  के अलावा अल्पसंख्यकों और दलितों पर भी अच्छी पकड़ रखते है। दूसरी और शिवकुमार, न केवल कुशल संगठक है बल्कि अपने समुदाय   वोक्कालिंगा के एक बड़े नेता है। राज्य में लिंगायत समाज के बाद वोक्कालिंग समुदाय ही सबसे से अधिक प्रभावशाली है। 

पिछले दो तीन सालों से शिवकुमार पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के बहुत नज़दीक हैं। इसलिए उनको पक्का भरोसा था कि इस बार मुख्यमंत्री पद को उन्हें ही मिलेगा। लेकिन पार्टी अला कमान की सोच यह थी कि अगले वर्ष के शुरू में होने वाले लोकसभा चुनावों में सिद्धारामिया के  बलबूते  पर ही अधिक सीटें जीत पायेगी। पिछले लोकसभा चुनावों में बीजेपी 28 में से केवल एक सीट ही जीत पाई थी। शेष सीटों बीजेपी के खाते में गई थी। कांग्रेस  के मात्र जीतने वाले उम्मीदवार डी.के. सुरेश, डी.के. शिवकुमार के छोटे भाई हैं। 

दिल्ली में चली लम्बी खींचतान के बाद शिवकुमार मुख्यमंत्री का पद छोड़ उप मुख्यमंत्री पद लेने के लिए मान गए। उन्हें उनके मनपसंद का जल संसाधन  विभाग दिया गया। साथ ही उन्हें बेंगलुरु का प्रभारी भी बनाया गया। राज्य के राजधानी बेंगलुरु पर राज्य के कुल बजट का एक बड़ा भाग खर्च होता है    सिद्धारामिया को यह स्पष्ट कर दिया गया कि वे सरकार के सभी निर्णय शिवकुमार की सलाह और सहमति से करेंगे। लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया कि  सिद्धारामिया अपने पद पर पूरे पांच साल तक रहेंगे या फिर ढाई साल के बाद यह पद शिवकुमार को दे देंगे। यह भी तय हुआ कि शिवकुमार मंत्री के अलावा  लोकसभा चुनावों तक प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने रहेंगे। परन्तु दो तीन महीनो के बाद सिद्धारामिया और शिवकुमार में टकराव शुरू हो गया। पिछले  महीने मध्य में शिवकुमार ने यह घोषणा कर दी कि बेंगलुरु से सटे रामनगर जिले को बेंगलूरु में विलय किया जायेगा। 

शिवकुमार और उसके भाई सुरेश इसी दक्षिण बेंगलुरु से जीत कर आते है। इसके अलावा दक्षिण बंगलुरु में ही रियल स्टेट का विस्तार हो रहा है। जब पत्रकारों ने सिद्धारामिया से इस बारे में जानना  चाहा तो उन्होंने साफ़ कर दिया ऐसा कोई प्रस्ताव सरकार के सामने नहीं है। रियल स्टेट से जुड़े उद्यमी शिवकुमार के बहुत नज़दीक है तथा उन्हीं के जरिये पार्टी को चुनावी चंदा देते है। ऐसा माना जाता है रियल स्टेट  को लाभ पंहुचाने के लिए के लिए ही शिवकुमार ने ऐसा प्रस्ताव् आगे बढाया है। इसके कुछ दिन बाद ही शिवकुमार के घर पर एक दिन पार्टी के कुल 135 विधायकों में से लगभग आधे विधायक जुटे। इनमें से अधिकतर वो थे जो पहली बार विधायक चुने गए  थे। इसके तुरंत बाद इनमें से कुछ ने एक अभियान शुरू कर दिया कि लोकसभा चुनावों से पूर्व शिवकुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाये। इनमें से कुछ ने यह दावा किया कि सिद्धारामिया को आधी अवधि और कुछ अन्य शर्तों के साथ मुख्यमंत्री का पद दिया गया था। 

उसके उत्तर में सिद्धारामिया के समर्थक मैदान में उतर पड़े। उनका कहना था कि यह शुरू से तय हो गया था कि उन्हें अपना कार्यकाल पूरा करने दिया जायेगा। उन्होंने भी विधायकों के एक वर्ग में अपने घर नाश्ते पर बुलाया जिसमे शिवकुमार के समर्थकों के अभियान को कुंद करने की रणनिती बनाई गई।   कई दिन के राज्य के समाचार पत्रों में दोनों ओर से चलाये जा रहे अभियान की ख़बरें प्रमुखता से छपती रही। जब मामला आगे बढ़ने लगा तो पार्टी आला  कमान ने दखल दिया। पार्टी के महासचिव वेणुगोपाल ने सिद्धारामिया और शिवकुमार को कहा कि वे अपने अपने समर्थक विधायकों की जुबान पर बंदी  लगाये। तब जाकर यह मामला रुका। लेकिन राज्य की राजनीति को समझने वालों को कहना है यह तूफ़ान से पूर्व की शांति है। यह आग कभी भी फिर अचानक भड़क सकती है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)