युवाओं को सप्ताह में कम से कम 70 घंटे काम करना होगा : नारायण मूर्ति

नारायणमूर्ति का गुरू मंत्र 

लेखक : नवीन जैन 

वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, इंदौर (एमपी)

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दिग्गज कॉरपोरेट, और इंफोसिस के सात सह संस्थापकों में से एक एन. आर. नारायण मूर्ति का सोशल मीडिया पर हाल में दिया एक इंटरव्यू खासा चर्चित हो रहा है। मूर्ति ने एक पाडकास्ट को दिए गए उक्त  इंटरव्यू में कहा है कि यदि भारत को शीघ्र एक शक्तिशाली अर्थव्यवस्था बनना है, तो यहां के लोग, खासकर युवाओं को सप्ताह में कम से कम 70 घंटे काम करना होगा।

मूर्ति इतने बड़े आदमी हैं, तो उनके ऐसे किसी कथन पर हंगामा बरपा होना ही था। मूर्ति का कहना है, कि भारत सबसे ज़्यादा युवाओं का देश है, जहां युवा आठ-नौ घंटे रोज काम करने के आदी हैं, जबकि चीन, जर्मनी, और जापान की इकोनामी के लगातार गति पकड़ते जाने का कारण ही यह है, कि वहां के लोग हाड़ तोड़ मेहनत करते हैं। मूर्ति का कहना है कि सप्ताह में 48 या 50 घंटे काम करने से बात बनेगी नहीं, जो फिलहाल का चलन है।

मूर्ति के उक्त वक्तव्य से असहमति का पहला कारण, तो यह है कि आज आई टी. ही नहीं छोटे छोटे कारोबारों और अन्य ऑफिसेस से संलग्न कर्मचारी प्रतिदिन दस घंटे से कम काम नहीं करते, और विभिन्न प्रोफेशनल्स को तो लाग ऑफ करते करते प्रतिदिन बारह घंटे तक हो जाते। कहने को इन लोगों का फाइव डेज वीक होता है, लेकिन कई आई टी कंपनीज ऐसी है जहां वर्क फ्रॉम ऑफिस या वर्क फ्रॉम होम शनिवार को भी करना पड़ता है, और कई बार तो रविवार को भी। 

अक्सर देखा गया है कि खासकर जवान लोगों को निचोड़कर रख देने वाली इस कार्य संस्कृति के तहत न तो छुट्टी के दिन काम करने का और न ही ओवर टाइम करने का पैसा दिया जाता है। भारत में कुछ कॉरपोरेट कंपनी तो  ऐसी है, जो परोपकार के नाम पर तो दिल खोलकर दुनियाभर में पैसा देती है लेकिन ,उनके अपने यहां का वेतन मान अपेक्षाकृत कम होता है या श्रम कानूनों के माफिक नहीं। वे अपने को पुअर पे मास्टर्स कहने में भी नहीं झिझकते।इसके बावजूद भारत आज दुनिया की चौथी या पांचवी मजबूत अर्थव्यवस्था है।नारायण मूर्ति ने चीन और जापान के वर्क कल्चर को भारत के युवाओं द्वारा अपनाने की भी बात कही। मूर्ति को पता नहीं क्यों यह खबर नहीं रही कि चीन, जापान और जर्मनी के जैसे देश अपने यहां आवश्यकता से ज्यादा उत्पादन इसलिए करते हैं ताकि उन्हें दुनिया के नए-नए बाजार मिले। 

दुखद है कि इसी संस्कृति के तहत हथियार, गोलाबारूद और अन्य सामग्री का निर्यात करके उक्त देश दुनिया में बिला वजह अशांति, डर, और अवसाद का पैगाम देते है। मूर्ति जी को मालूम होना चाहिए कि कुछ दिनों पहले ही एम्स नई दिल्ली ने अपने एक शोध के आधार पर देश हित में गाइड लाइन जारी की थी कि जो लोग कोविड पॉजिटिव हुए थे वे अब ज्यादा मेहनत नहीं करें। अजीब संयोग है कि नवरात्रि के दिनों में गुजरात में गरबा करने के दौरान कई लोगों की हार्ट अटैक से मौत हो गई। रेखांकित करने वाली बात यह है कि गुजरात के विभिन्न शहरों में गरबों के पहले ही बार बार सोशल मीडिया पर सतर्क किया जा रहा था कि गरबे के दौरान यदि सीने में दर्द हो ,पसीने आने लगे या चक्कर जैसा महसूस हो तो फौरन अपने चिकिसक से परामर्श लें।

एक चिंतनीय बात यह भी है कि पिछले कुछ सालों से बदले कॉरपोरेट कल्चर के कारण युवाओं को गंभीर बीमारियां होने लगी है, जिसमें प्रमुख है हार्ट अटैक, डिप्रेशन, मोटापा, लगातार कंप्यूटर पर बैठे रहने के कारण आंखों के चश्मे के नंबर का लगातार बढ़ना, एक ही जगह बैठे रहने से पोश्चर या रीढ की हड्डी, गर्दन, गुदा संबंधित गंभीर बीमारियां होना। विश्व स्वास्थ्य संगठन का एक आंकड़ा कहता है कि पूरे विश्व में भारत डायबिटीज की कैपिटल बन गया है,जहां अधिकृत रुप से छह करोड़ नब्बे लाख शुगर पेशेंट है। मोटापा एक अन्य बीमारी है। डार्विन नाम के दार्शनिक ने सदियों पहले एक अमृत वाणी जैसी बात कह दी थी कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यदि वह समाज में घुलता मिलता रहेगा तभी उसकी नकारात्मक प्रवत्तियों का दमन हो सकेगा और फिर भारत में तो 365 ही दिन तीज त्यौहार मनाए जाते हैं। यही संस्कृति भारत को एक संजीदा परिपक्व और जिम्मेदार देश बनाए रखती है। संयुक्त परिवार की परिकल्पना सिर्फ भारत में ही पाई जाती है।  

ठीक है, कि स्वतंत्रता मिलते ही प्रथम प्रधानमंत्री ने पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने पहला नारा दिया था काम करो काम, आराम हराम है, काम करो, काम। यह नारा समयानुकूल था ,क्योंकि तब एक आम भारतीय व्यक्ति की प्रति दिन की कमाई कुछ आने या कुछ पैसे थी। मगर 2021के वैश्विक आंकड़ों के अनुसार उक्त आय प्रति वर्ष ₹78000/ हो गई। भुखमरी, गरीबी, और बेरोजगारी के कुछ अन्य कारण भी  हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर, केंद्रीय वित्त मंत्री सहित  तमाम आर्थिक विशेषज्ञ तक कह रहे हैं, कि भारतीय इकानोमी तेजी से प्रगति कर रही है। खासकर कोरोना काल में और उसके बाद आम भारतीय की रोग प्रतिरोधक शक्ति कम होती जा रही है। 

ऊपर से ग्लोबल वार्मिग, बढ़ते जा रहे प्रदूषण ने जीना मुहाल कर दिया है।काम करवाने, और गुलाम बनाने में बारीक सा फर्क है। एक जमाने में जब अमेरिका से अफ्रीका के लोगों को जहाजों में भरकर काम देने के लालच में लाया जाता था। तब सबसे पहले उनका मूल नाम ही बदल दिया जाता था। अफ्रीका के उन बाशिंदों को गुलाम बनाने का यह पहला चरण होता था। भारत खुद सदियों गुलाम रहा। देश में सातों दिन 10-10 घंटे काम करने की वापस शुरूवात करवा कर क्या माता, पिता, पत्नी, बाल बच्चों, दोस्त यारों, रिश्तेदारों के लिए एक व्यक्ति को अपने ही घर में अजनबी कर दिया जाना नहीं है? और सबसे बड़ा सवाल है क्वांटिटी और क्वालिटी में फर्क। क्वालिटी वर्क बड़ी हुई क्वांटिटी से आ ही नहीं सकता। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)