प्रजातन्त्र स्वस्थ तन्त्र : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़

प्रजातन्त्र : शासन को महत्व नहीं बल्कि व्यक्ति को महत्व दिया जाता है

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान

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विश्व के प्रत्येक देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार की शासन प्रणालियां प्रचलित है। प्राचीनकाल में प्रायः राजतन्त्र था। किन्तु समय के परिवर्तन के साथ शासन प्रणालियां भी बदली। इन सभी शासन प्रणालियों में प्रजातन्त्रात्मक शासन प्रणाली सबसे अच्छी प्रणाली मानी गयी है। राजतन्त्रात्मक शासन प्रणाली में वंशानुगत रूप से योग्यता और अयोग्यता का ध्यान किये बिना राजा का पुत्र ही राजा होता था। किन्तु प्रजातन्त्रात्मक शासन प्रणाली ऐसी नहीं है। आज के युग में प्रजातन्त्र को शासन की सबसे अच्छी प्रणाली माना गया है। प्रजातन्त्र का अर्थ है प्रजा का, प्रजा के लिए और प्रजा द्वारा शासन करना। इस प्रणाली में शासन प्रजातन्त्रात्मक ढंग से होता है। सरकारों का चुनाव पांच वर्षों के लिए होता है। यदि सरकार पांच वर्ष में अच्छा कार्य नहीं करती तो जनता को उसे हटा देने का अधिकार होता है। 

इसलिए प्रजातन्त्र एक ऐसे तन्त्र का नाम है जिसमें शासन को महत्व प्रदान न करके व्यक्ति को महत्व प्रदान किया जाता है। इसके अन्तर्गत जनता का हित सर्वोपरी होता है। इसमें कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को साकार किया जाता है। इस प्रकार प्रजातन्त्र जनता को पूर्ण स्वतन्त्रता एवं आत्मगौरव प्रदान करने वाली शासन व्यवस्था है। प्रजातन्त्र की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें शासन के कार्यों में भाग लेने का अधिकार जनता में सन्निहित रहता है। इस प्रणाली में शासक और शासित के मध्य अटूट एवं बराबर का सम्बन्ध रहता है। प्रजातन्त्र अपनी सफलता के लिए जनता से आत्मानुशासन की अपेक्षा करता है। जब जनता में आत्मानुशासन का अभाव होता है तब शासन शक्ति के बल पर सेना एवं पुलिस द्वारा स्थापित करने का प्रयत्न करता है। प्रजातन्त्र संघर्ष और सहमति के मध्य एक रूपता स्थापित करता है व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी बात को मनवाने के लिए उचित एवं शान्तिपूर्ण साधनों को अपनायेगा और बहुमत के निर्णय को सहस्वीकार करेगा। भारत के सन्दर्भ में यह कहा जाना चाहिए कि उसके प्रजातन्त्र की शक्ति का रहस्य यह है कि इसमें बहुमत निर्णय को उच्चतम पदों पर स्थित जनप्रतिनिधियों ने स्वीकार करने में किसी प्रकार का आगा-पीछा नहीं किया है। जनतन्त्र की वास्तविक शक्ति मतपेटिका में निहित रहती है। प्रजातन्त्र में प्रगति की गति धीमी अवश्य रहती है परन्तु वह स्थायी एवं निश्चित रहती है। समाज भयमुक्त रहता है क्योंकि इस व्यवस्था के अन्तर्गत शासक के निरंकुश होने का प्रसन्न ही उत्पन्न नहीं होता है। प्रजातन्त्र में शासक के परिवर्तन की और विकास की सम्भावनाएं सदैव विद्यमान रहती है। भारत में प्रजातन्त्रात्मक समाजवाद की व्यवस्था है। इस व्यवस्था में पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों को सामाजिक एवं राजनीतिक संरक्षण प्रदान करके उनको सामाजिक न्याय प्रदान करने तथा समानता की रेखा में लाने की दिशा में गंभीर प्रयत्न किये गये है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण देकर उनको समाज की मुख्य धारा से जोड़ा गया है। इतना ही नहीं, देश का विभाजन कराने वाले वर्ग को भी अल्पसंख्यक कहकर अनेक सुविधाएं प्रदान की गई है। केवल आर्थिक और सामाजिक ही नहीं, संवैधानिक भी, उनकी धार्मिक भावनाओं की रक्षा के लिए भारत की प्रजातांत्रिक सरकार को संविधान में अपेक्षित परिवर्तन करने में भी संकोच नहीं होता है। राजनीतिक और आर्थिक समानता लाने के लिए सरकार गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए विभिन प्रकार के सरकारी ऋणों द्वारा उनकी आर्थिक सहायता करती है। गरीबों तथा पिछड़े वर्गों के लिए सरकार ने अनेक कल्याणकारी योजनाएं चला रखी है। इन योजनाओं का लाभ सही व्यक्ति को प्राप्त हो इसके लिए भी सरकार पूरा ध्यान रखती है। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने एक बार कहा था कि एक रूपये में केवल पच्चीस पैसे ही जनता तक पहुंचते है, शेष पचहत्तर पैसे रास्ते में ही समाप्त हो जाते है। उनके कहने का अर्थ यह था कि सरकारी कर्मचारियों की जेब मंे शेष पैसे चले जाते है। नौकरशाही प्रजातन्त्र में एक बहुत बड़ा अभिशाप बनी हुई है। अतः प्रजातन्त्र स्वच्छ तन्त्र तभी बन सकता है जब शासक से लेकर प्रजा तक अपनी ईमानदारी का परिचय दे। प्रजातन्त्र बहुदलीय प्रणाली का तन्त्र होता है। प्रजातन्त्र में विपक्ष का मजबूत होना बहुत आवश्यक है। कई बार ऐसा होता है कि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाता। ऐसी स्थिति में समान विचारधारावाले दल मिलकर सरकार बनाते है। साक्षा सरकारें कई बार अपने पंचवर्षीय कार्यकाल को भी पूरा नहीं कर पाती। इसका मुख्य कारण यह होता है कि किसी मुद्दे को लेकर यदि विवाद हो गया तो सरकार को समर्थन दे रहे दल अपना समर्थन वापस ले लेते है और सरकार अल्पमत में आकर गिर जाती है। प्रजातन्त्र में दल बदल का खतरा सदैव बना रहता है। छोटे दल पद या पैसे के लालच में आकर बड़े दल में मिल जाते है। ऐसे दलों का घोषणा पत्र चाहे बड़े दल के साथ मिले या ना मिले किन्तु उसका ध्यान न रखकर प्रत्याशी लालचवश नैतिकता को तिलांजलि दे देते है। ऐसे प्रत्याशियों से जनता के हित की आशा नहीं की जा सकती। चुनाव के समय राजनेता लोग अनैतिक साधनों को अपनाते है। जिसका परिणाम है कि भारत में जातिवाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, महंगाई आदि अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गई है। इन समस्याओं के समाधान के लिए ऐसे प्रत्याशियों का चयन जरूरी है जो सच्चरित्र और ईमानदार हो तथा प्रजातन्त्र में जिनका पूरा विश्वास हो। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)