गहराता जा रहा दरकते हिमालय का सवाल : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

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हमेशा शांत रहने वाला हिमालय आज अनेकानेक समस्याओं से जूझ रहा है। लगातार वर्षा, बादल फटने, बाढ़, भूस्खलन और भूधंसाव जैसी आपदायें जहां तबाही का सबब बन रही हैं, वहीं बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन ने इसमें और अहम भूमिका निबाही है। दरअसल हर साल आने वाली तबाही से हिमालयी राज्यों का बुनियादी ढांचा जिस तरह तहस-नहस होता है, उसकी भरपायी लाख कोशिशों के बाबजूद कभी नहीं हो पाती।

क्योंकि  जिस रफ्तार से राहत कार्यों को अंजाम दिया जाता है और ध्वस्त हो चुके बुनियादी ढांचे को फिर खडा़ करने का प्रयास किया जाता है, उसके पूरे होने से पहले फिर ये आपदायें इन राज्यों को अपनी चपेट में ले लेती हैं और तबाही का मंजर और विकराल रूप अख्तियार कर लेता है। इसके चलते आपदाओं से ढहा बुनियादी ढांचा कभी अपने पहले स्वरूप में आ ही नहीं पाता। यह किसी एक साल की बात नहीं है बल्कि यह तो हिमालयी राज्यों की नियति बन चुकी है। हां इतना सच है कि इसमें साल दर साल इजाफा जरूर हो रहा है जो चिंता की असली वजह है कि यदि अब भी नहीं चेते तो देश का भाल कहा जाने वाला हिमालय दरक कर ढह जायेगा। 

केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा विगत दिनों जर्जर हो रहे हिमालयी क्षेत्र की धारण क्षमता पर देश की सर्वोच्च अदालत के सामने कुछ सुझाव रखे हैं ताकि इस विषय पर हिमाचल और उत्तराखण्ड सहित 11 हिमालयी राज्यों के वैज्ञानिक पहलुओं पर गहन अध्ययन एवं शोध हेतु एक विशेषज्ञ समिति गठित की जा सके। गौरतलब है कि पिछले महीने की 21 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने दिनोंदिन जर्जर हो रहे हिमालय क्षेत्र की धारण करने की क्षमता का पता लगाने के लिए विशेषज्ञ समिति बनाने के लिए केन्द्र सरकार से सुझाव मांगे थे।दरअसल उत्तराखंड के जोशीमठ में हाल ही में हुए भूस्खलन और कई इलाकों के डूबने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय पर संज्ञान लिया है। 

सच तो यह है कि जम्मू कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखण्ड, सिक्किम, अरुणाचल,मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड और असम यह 11 हिमालयी राज्य जैव विविधता के मामले में सबसे धनी माने जाते हैं। यह भी कि देश के सभी प्रदेशों के 6,97,898 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में से अकेले 11 हिमालयी राज्यों के हिस्से में 2,34,321 वर्ग किलोमीटर हिस्सा आता है। इसमें कुल भौगोलिक क्षेत्र के 16.3 फीसदी में फैला हिमालयी क्षेत्र जल भंडार से संप्रक्त है। वैसे देखा जाये तो समूचा विश्व प्राकृतिक आपदाओं से अछूता नहीं है लेकिन बीते दस -बारह साल ऐसे रहे हैं जिसमें इन हिमालयी राज्यों ने सबसे ज्यादा प्राकृतिक आपदाओं की मार झेली है। 

असल में पूरब, पश्चिम और मध्य हिमालय  के 11 राज्य और पश्चिम बंगाल के पहाड़ी क्षेत्र  दार्जिलिंग ने बाढ़, भूस्खलन, भू-क्षरण और अतिवृष्टि की सबसे ज्यादा तबाही झेली है जिसके कारण यहां पर जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है और जन-धन का भारी नुकसान हुआ है सो अलग। जलवायु परिवर्तन भी इसका एक अहम कारण  है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। इस दौरान भारी बारिश से हुए जल सैलाब ने भारी तबाही मचाही है। इससे जितना हिमालय को नुकसान पहुंचा है, उससे कहीं अधिक मैदानी क्षेत्र को भी तबाही का सामना करना पडा़ है। 

गौरतलब है कि जब से यहां  सड़कों के चौडी़करण के काम का विस्तार हुआ है, उसके बाद से ही हिमालय की संवेदनशीलता में बहुत अधिक बढो़तरी हुयी है। इसके कारण जगह-जगह पहाड़ दरक रहे हैं। लोग बेमौत मर रहे हैं। खेती योग्य जमीन और चारागाह मलवे के नीचे आ रहे हैं। कई स्थानों पर लोग अपने-अपने घरों को छोड़कर शिविरों में रहने को विवश हैं। यही हालत चमोली की भी है। यह स्थिति हिमाचल के कई हिस्सों में आज भी बरकरार है। पर्यटकों का सबसे पसंदीदा शहर शिमला पर बहुत बड़ा संकट आया है। वहां 25 फीसदी से अधिक भूभाग डेंजर ज़ोन बन चुका है। वहां पर दर्जनों इमारतें गिर गई हैं। 

मसूरी में अंधाधुंध पर्यटन के कारण और देहरादून से मसूरी तक प्रस्तावित टनल के निर्माण से लोग बेहद चिंतित हैं कि इस तरह से तो यहां पर एक मंजिला इमारत ही ज्यादा सुरक्षित है । वहां आज बहुमंजिला इमारतों  के निर्माण के कारण और लाखों पर्यटकों के आगमन से मसूरी शहर पर भी खतरा मंडरा रहा है । टिहरी गढ़वाल जिले में टनल निर्माण और आल वैदर रोड के नाम पर  चौड़ीकरण के कारण पहाड़ खिसकने से जनधन का भारी नुकसान हुआ है। इसी तरह केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ समेत पूरे उत्तराखंड में 360 स्थानों पर डेंजर जोन बन गए हैं। 

वहां पर लगातार  भूस्खलन हो रहा है और हर रोज कहीं सड़के बंद हो रही हैं तो कहीं धंस रही हैं। वैस 24 जून के बाद जब मानसून आया था, तबसे जो बारिश जुलाई और अगस्त में हुई है, उससे अभी तक दर्जनों टूरिस्ट हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन की चपेट में आए हैं। आस्था और विश्वास के चलते लोग इस तरह अपनी जान गंवा रहे हैं। लेकिन इसमें शासन प्रशासन की भी अहम जिम्मेदारी है कि वह पर्यटकों को नियंत्रित करे। हिमालय क्षेत्र में भारी निर्माण कार्यों के कारण सबसे अधिक तबाही हो रही है क्योंकि हिमालय बहुत संकरा और बहुत छोटी घाटियों और चोटियों में बंटा हुआ है। यहां पर जो भी विकास के नाम पर संरचनाएं निर्माण का प्रयास हो रहा है, वहां संयम बरतने की आवश्यकता है। नहीं तो आने वाले दिनों में भारी नुकसान की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। 

यह भी चिंता का विषय है कि समझ कर भी हमारे देश के नेता और योजनाकार पहाड़ और मैदान को एक ही पलडे़ में तौल रहे हैं। पहाड़ों के विकास के लिए जो पृथक विकास नीति होनी चाहिए, उसका प्रारूप कई बार यहां के  पर्यावरण कार्यकर्ता  केंद्र सरकार के सामने प्रस्तुत कर चुके हैं । दुख इस बात का है कि उस पर विचार ही नहीं हुआ है। सबसे अहम बात तो यह है कि इस बार जिस प्रकार आपदा का हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड और हिमाचल पर कहर टूटा है ,यदि इस पर गंभीरता से समाधान के प्रयास नहीं किये गये तो हालात और बिगडे़ंगे। यह भी कि इस पूरे क्षेत्र में किस तरह के पहाड़ हैं, इससे तो देश के योजनाकार और हम सभी भलीभांति परिचित हैं। 

उसके बावजूद यहां पर किस तरह का निर्माण,वह चाहे घरों का हो, आवासीय कालोनियों का हो, पन बिजली परियोजनाओं का या बांध का हो या फिर रेल या सड़क निर्माण हो, उससे हिमालय का सीना किस कदर छलनी हो रहा है, उस बारे में और न ही हिमालय की धारण क्षमता के बारे में किसी ने कभी सोचना गवारा ही नहीं किया।  हां सुझावों को रद्दी की टोकरी की शोभा जरूर बनाया जाता रहा। दुख है कि केदारनाथ त्रासदी और इस बार की आपदा ने जिसमें हमने बडे़ बडे़ बहुमंजिले मकान तिनके की भांति ढहते देखे हैं, ने हमें सबक सिखाया है कि अब भी समय है। आपदाओं ने सचेत किया है कि अब चेतो। 

लगता है कि हम अब भी आपदाओं के संकेतों को समझने में संजीदा नहीं हैं। समस्या की असली वजह यही है। जबकि आपदाओं से जूझने के जज्बे में पहाडी़ अंचल के लोग किसी से पीछे नहीं रहे हैं। इतिहास इसका सबूत है लेकिन लगता है हम अब इतिहास को भूल चुके हैं या फिर उससे कुछ सीखना नहीं चाहते। उस दशा में भी जबकि मध्य हिमालय भूकंप की दृष्टि से ज्यादा खतरनाक है। जाहिर है समस्या बडी़ है तो सवाल यह भी है कि समाधान क्या है? ऐसी दशा में हमें विकास और नगर नियोजन की अपनी मूल सोच को परिमार्जित करना होगा। 

उसे सुरक्षा, स्थिरता के साथ जलवायु अनुकूलन और आपदा प्रतिरोधी समाज के निर्माण के साथ इस हिमालयी क्षेत्र की मूल सांस्कृतिक, आध्यात्मिक विशिष्टता और पर्यावरणीय  भावना के अनुरूप विकास का ढांचा अख्तियार करना होगा, तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। इसलिए यदि अब भी हिमालय के विकास के मॉडल पर त्वरित कोई कार्यवाही नहीं हुई तो हिमालय जिस तरह से अभी दरक रहा है। उसकी दर में आने वाले दिनों में और बढो़तरी होगी और हिमालय की पुकार के अनसुना करने के भविष्य में और घातक परिणाम होंगे। इसमें दो राय नहीं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)