कर्नाटक सरकार पर जातीय जन गणना रिपोर्ट मंजूर करने का दवाब

लेखक : लोकपाल सेठी

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनितिक विश्लेषक

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बिहार में नीतीश कुमार सरकार ने पिछले हफ्ते जब जातीय जन गणना के आंकडे जारी किये तो उन्होंने दावा किया कि देश में उनकी ऐसी राज्य सरकार है  जिसने अपने यहाँ जातीय जन गणना करने का साहस दिखाया है। लेकिन उनको यह पता नहीं कि वर्ष 2015 से 2018 के बीच देश में पहली बार ऐसा सर्वेक्षण कर्नाटक में करवाया गया था। यह अलग बात है कि उस सर्वेक्षण रिपोर्ट को आज तक मंजूर नहीं किया गया। यह सर्वेक्षण रिपोर्ट अभी भी पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसने यह सर्वेक्षण करवाया था, के दफ्तर में धूल चाट रही है। 

बिहार सरकार द्वारा यह सर्वेक्षण करवाए जाने के बाद राज्य के दूसरी बार मुख्यमंत्री बने सिद्धारामिया पर यह दवाब बनाया जा रहा है कि यह रिपोर्ट तुरंत जारी की जाये। लेकिन उनकी पार्टी के कुछ नेता, जिसमें उप मुख्यमंत्री डीके शिव कुमार भी शामिल हैं, इस रिपोर्ट को स्वीकार कर जारी करने का विरोध कर रहे है। राज्य के दो बड़े सामाजिक समुदायों, लिंगायत और वोक्कालिंगा, के नेता इस रिपोर्ट को स्वीकार किये जाने के पक्ष में नहीं है। शिव कुमार वोक्कालिंगा समुदाय के जब कि बीजेपी के नेता तथा राज्य के चार बार मुख्यमंत्री रहे येद्दीयुरप्पा लिंगायत समुदाय के बड़े नेता है। दोनों समुदायों को राज्य में सामाजिक तथा राजनीतिक में बड़ा दबदबा है। 

पिछले महीने जब संसद में महिला आरक्षण संविधान संशोधन विधेयक पर बहस हो रही थी तो कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी ने इस आरक्षण में  अन्य पिछड़ा वर्ग को शामिल करने की मांग की थी। उनका कहना था कि देश का सबसे बड़ा समुदाय होने के बावजूद इस वर्ग को न तो राजनीति में और  न ही सरकारी सेवायों में उचित प्रतिनिधत्व मिल रहा है। उन्होंने यह भी कहा था कि अगर अगले लोकसभा के चुनावों में विपक्ष का इंडिया गठबंधन सत्ता में आया तो उसकी सरकार सारे देश में जातीय जन गणना करवाएगी। 

अब वापिस आते है कर्नाटक में जातीय जन गणना के मुद्दे पर। हालाँकि पिछली जातीय जन गणना, जो लगभग नौ दशक पहले हुई थी, के बाद किसी भी जाति के  सही संख्या के आंकडे उपलब्ध नहीं। इन जातीय संगठनों के नेता और राजनीतिज्ञ अपनी जातियों के आंकडे बढ़ा पेश करते रहे है। वे अपनी अपने पार्टियों के नेतृत्व पर लोकसभा और विधानसभायों अधिक से अधिक उमीदवार बनाये जाने का दवाब बनाते रहे है। 

कर्नाटक में जब 2015 में जातीय सर्वेक्षण करवाया गया तो इसका नाम सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण रखा गया। दो साल से भी अधिक समय तक चले  इस सर्वेक्षण पर लगभग 300 करोड़ रूपये खर्च हुए। जब तक पिछड़ा आयोग की रिपोर्ट तैयार हुई तब तक 2018 के विधान सभाचुनाव निकट थे। इसके चलते राज्य की कांग्रेस सरकार ने इस पर फ़िलहाल विचार नहीं करने का निर्णय किया। 

जब यह सर्वेक्षण शुरू हुआ तब कुछ राजनीतिक हलकों में यह कहा गया कि कहने को तो यह सर्वेक्षण सभी जातियों को सभी स्तर पर उनकी आबादी के  हिसाब से समुचित प्रतिनिधत्व देने के लिए करवाया जा रहा है लेकिन इसका असली उद्देश्य प्रदेश के  दो प्रमुख समुदायों, लिंगायत और वोक्कालिंगा, की वास्तविक संख्या का पता लगाना था। इन दोनों समुदायों के नेता विधान सभा चुनावों में अधिक से अधिक सीटों की मांग करते है। सिद्धारामिया खुद कुरुबा  समुदाय के है जो अन्य पिछड़ा वर्ग के श्रेणी में आता है। यद्यपि सरकारी तौर पर आयोग की रिपोर्ट अब तक सामने आई लेकिन इसके आंकडे  2018 के विधान सभा के चुनावों से कुछ पहले लीक हो गए थे। 

राज्य में लिंगायत समाज के नेता दावा करते रहे है कि वे राज्य की कुल संख्या का लगभग 20 प्रतिशत है। उधर  वोक्कालिंगा समुदाय के नेता यह दावा करते रहे है कि वे कुल संख्या का 17 प्रतिशत है। लीक हुई रिपोर्ट में लिंगायत केवल 14 प्रतिशत पाए गए। जबकि वोक्कालिंगा 11 प्रतिशत ही है। सबसे  बड़ा  समुदाय अनुसूचित जातीय है जो 19 प्रतिशत है। दूसरा स्थान मुस्लिम समुदाय का है जो 16 प्रतिशत है। इस लीक हुए रिपोर्ट से पहले यह माना जाता था की अनुसूचित जातियां 13 प्रतिशत है और मुस्लिम मात्र 9 प्रतिशत है। 

2018 विधान सभा चुनावों में पहले कांग्रेस और जनता दल (स) के सरकार बनी जो केवल एक साल ही चल पाई। फिर बीजेपी सत्ता में आई लेकिन इन दोनों सरकारों ने अलग-अलग कारण बता रिपोर्ट  दबाये रखा। इस साल मई में जब फिर कांग्रेस सत्ता में आई और सिद्धारामिया दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने ने भी अब तक इस रिपोर्ट को स्वीकार करने की दिशा में कोई नहीं कदम उठाया। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)