बच्चों के पोषण की आधी -अधूरी जिम्मेदारी : सुरेश भाई

लेखक : सुरेश भाई 

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता है

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बच्चों के पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा को लेकर बहुत कुछ कार्य किए जाते हैं।लेकिन यूनिसेफ और विश्व बैंक के द्वारा दक्षिण एशिया, उप सहारा, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के 15 देश जिसमें भारत भी शामिल हैं के लगभग 84 हजार बच्चों  की जांच के बाद पाया गया कि वर्ष 2022 में दुनिया भर में हर पांच में से एक से अधिक लगभग 15 करोड़ बच्चों को शारीरिक विकास के लिए पर्याप्त कैलोरी नहीं मिली  है। जिसके कारण  हर साल 10 लाख से अधिक बच्चे मौत के मुंह में चले जाते हैं। ढाई लाख से अधिक बच्चे बौनेपन के कारण मरते हैं और उनकी याददाश्त भी चली जाती है। 4.5 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो लंबे तो दिखाई देते हैं लेकिन वे बेहद कमजोर हैं। उनका शरीर रोगों से ग्रस्त है।

ध्यान देने की आवश्यकता है कि बच्चों में कुपोषण अशिक्षा और गरीबी के कारण है। गरीब माता-पिता के पास पर्याप्त आर्थिक साधन नहीं है। उनके पास अपने कमजोर और बीमार बच्चों को अस्पताल तक पहुंचाने के लिए खर्चा नहीं है। यदि वे किसी तरह अस्पताल पहुंच भी गए तो वहां सुविधाओं की बहुत कमी है। जिसके कारण उनकी तकलीफ कम होने का नाम नहीं लेती है। इन स्थितियों में बच्चों को घेंघा, एनीमिया, हड्डियां कमजोर होना जैसी बीमारियों के शिकार हो जाते है।

खाद्य सुरक्षा, सफाई और स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति जागरूकता और अनुपलब्धता के कारण भी यह समस्या बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि दुनियां में हर दूसरा बच्चा गरीबी रेखा के नीचे गुजर- बसर कर रहा है। भारत में तो 5.2 करोड़ यानी 11.5 फीसदी बच्चे अत्यंत गरीब घरों में रह रहे हैं। जिसमें अधिकांश शाम को बिना खाए सो जाते हैं। इसमें भी 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में गरीबी की दर सबसे अधिक है।गरीब परिवारों के बच्चों की शारीरिक दुर्बलता के कारण वे समाज के बीच में एक अलग पहचान में भी जीते हैं। वे अपने को उपेक्षित और हीन भावना के रूप में महसूस करते हैं। यह समस्या दिनों-दिन कम होने का नाम नहीं ले रही है। 

जब ग्रामीण क्षेत्रों का तेजी से नगरों में विस्तारीकरण हो रहा है तो ऐसे वातावरण में उनके जीवन की गुणवत्ता और कमजोर होती चली जा रही है। कारण है कि उनमें यह विश्वास नहीं रह पाता है कि वे भी इस बाजारवादी व्यवस्था में कभी दूसरों की तरह अपने को अच्छा निवास, अच्छा भोजन, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा, सफाई जैसी मूलभूत चीजें ले पाएंगे? तो उनके लिए जीवन का यह एक सपना ही रह जाता है। जिसके कारण उन्हें हासिये पर जाकर किसी तरह अपने को जिंदा रखना है। ऐसे गरीबों के प्रति समाज का दृष्टिकोण व व्यवहार भी अक्सर बड़ा नकारात्मकता का प्रदर्शन करता है। यह दुर्लभ है कि समर्थवान लोग थोड़ी भी मदद इस तरह के गरीब समाज की करें। स्थिति इसके उलट है कि आत्मनिर्भर लोग भी सुविधा लेने के लिए गरीबी का कार्ड बनाने के लिए रात दिन एक करते हैं। लेकिन वह अपने पड़ोसी की गरीबी का कभी ख्याल नहीं करेंगे। यही कारण है कि सुविधाएं  गरीब बच्चों तक नहीं पहुंचती है। हमारे देश के धार्मिक प्रतिष्ठान भी कभी बच्चों को मदद करने जैसा विचार उनके मन में नहीं आता है।

कहा जा रहा है कि दुनिया में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले बच्चों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोग 2.15 डॉलर यानी 178 रुपए से भी कम पर जीवन गुजारने को मजबूर है। इनमें बच्चों की संख्या सबसे अधिक है। दुनिया में इस तरह  गरीबी झेल रहे लोगों में सन् 2022 तक आधे से ज्यादा यानी 52.5 फ़ीसदी बच्चे बताये जा रहे है। जबकि सन् 2013 में यह गरीब आबादी 47.3 फीसदी थी। यूनिसेफ की कार्यकारी निदेशक कैथरीन रसेल कहती है कि इस तरह बाल गरीबों का बने रहना अत्यधिक गरीबी उन्मूलन के वैश्विक लक्ष्य पर निर्णायक प्रभाव डालती है। 

इस विषय पर ध्यान देना जरूरी है कि बच्चों की गरीबी तब और अधिक बढ़ेगी जब तक दुनिया की सरकारें पूंजीपतियों के सहारे ही अपना आर्थिक स्रोत का आधार मानने लगेगी। क्योंकि उनके पास बच्चों के अधिकार, पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत चीजों को गरीब बच्चों तक पहुंचाने का कोई सीधा कार्य नहीं है। लेकिन यह तो उदाहरण है कि भारत छोड़कर विदेशों के पूंजीपतियों ने बच्चों के विकास के नाम पर सिविल एवं स्वैच्छिक संस्थाओं को मदद देकर जरूर बाल मजदूरी उन्मूलन के उदाहरण प्रस्तुत करके उन्हें आवश्यक सेवाएं भी दिलवाई है।अतः भविष्य में गरीबी नियंत्रण के जितने भी उपाय हो उसमें कॉर्पोरेट के मौजूदा नियम व नीतियों में आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। 

इसके साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि सीएसआर फंड का इस्तेमाल करके बच्चों को जोखिम पूर्ण जिंदगी से कैसे उभार जा सकता है इस पर विचार करने की आवश्यकता है। इसके लिए यह भी जरूरी है कि  बच्चों की स्थिति जानने के लिए स्वैच्छिक और सरकारी संस्थाओं का एक "कार्य बल" गठित हो जो पहले जमीनी सच्चाइयों को देखें फिर उनकी मदद कैसे हो उस पर विचार करना होगा। भारत के राज्यों में यह मांग जोर पकड़ती जा रही है कि कृषि योग्य भूमि का खेती कर सकने वाले गरीबों के बीच में न्यायपूर्ण तरीके से वितरण हो।इसके लिए सशक्त भू-कानून बने।

आजीविका चलाने के लिए लोगों के लिए पर्याप्त भूमि की व्यवस्था  हो। इसलिए गरीब परिवारों को कृषि योग्य भूमि उपलब्ध कराकर उसका समतलीकरण करके वहां सिंचाई की तमाम सुविधाएं खड़ी करने के पश्चात ही उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जा सकता हैं। जहां उन्हें जमीन दी जाती है,उसके पास ही उनका रात्रि विश्राम का ठिकाना भी हो तो उन्हें  समस्याओं से उभारा जा सकता है। जिसमें राज -समाज की जिम्मेदारी बराबर की हो। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)