मछलियों की मौत चिंता का विषय
लेखक : राम भरोस मीणा 

पर्यावरणविद्, Email - lpsvikassansthan@gmail.com, Mobile - 7727929789

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बढ़ते पर्यावरणीय ख़तरों के साथ महा नदी यों, नदियों स्थानीय नदियों, नालों में प्रदुषण बड़ी तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। बढ़ते जलिय प्रदुषण के वास्ते नदियों के प्रवाह क्षेत्रों में प्राकृतिक वनस्पतियों का स्वरूप व प्रकृति में जहां बदलाव दिखाई देने लगे हैं वहीं जहरीली वनस्पतियों के जन्म लेने से वन्य तथा जलीय जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते जोरों से दिखाई देने लगे, नदी का स्वभाव बदलने लगा, वनस्पतियों वन्य जीवों तथा जल में निवास करने वाले जीवों पर सीधा प्रभाव पड़ा है। सैकड़ों प्रजातियां के जलिय जीव लुप्त हो चुके हैं, यह प्रभाव नदियों के ऊपर ही नहीं झीलों में भी दिखाई देने लगा है। नदियों में डलते अपषिष्ट, मल मुत्र, ज़हरीले व कार्बनिक पदार्थ नदी के पानी में घुल कर एक तरफ़ पानी को ज़हरीला बना रहे हैं वहीं दूसरी तरफ इनके प्रभाव से पानी में आंक्सिजन की कमी होने से जलिय जीव मर रहे हैं, वन्य जीवों पर ज़हरीले गन्दे पानी से प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, जीवों में चर्म रोग, टी. बी. रोग, गला के रोग बढ़ने के साथ इनकी प्रजनन क्षमताओं पर भी असर पड़ने लगा है।

अब बात पीने के पानी की आती है जो सभी के लिए आवश्यक है, जरूरी है। मीठे पानी या कहें पीने योग्य पानी जो भु गर्भ में संग्रहीत होता है उसका  40 प्रतिशत नदियों,  20 प्रतिशत जोहड़, झील, तालाब,  25 प्रतिशत पर्वतीय, पहाड़ी क्षेत्रों तथा शेष 15 प्रतिशत मैदानी व कृषि भूमि द्बारा वर्षा काल में संग्रह किया जात है जो बाद में पुरे  वर्ष सिंचाई उधोग एवं पेयजल आपूर्ति में काम लिया जाता है। वर्षा जल संग्रहण के सभी प्राकृतिक संसाधन जो स्वच्छ होते वे सभी दूषित बन चुके। 

परिणाम स्वरूप ये स्वच्छ मीठा पानी संग्रह करने की जगह भू गर्भ में ज़हरीला दूषित पानी संग्रह करने लगे हैं जिससे पानी की गुणवत्ता व स्वच्छता खत्म होती जा रही है और इसका प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर भी दिखाई देने लगा है जो और भी बढ़ी चिंता का विषय है। आज देश की 85 प्रतिशत जनता को पीने योग्य गुणवत्ता पुर्ण स्वच्छ मीठा पानी नहीं मिल रहा वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में घटते जल स्तर से डार्क जोन में शामिल सभी क्षेत्रों में 90 प्रतिशत लोगों को शुद्ध मीठा पानी नसीब नहीं हो रहा, जिससे  विभिन्न प्रकार के रोग मानव शरीर को घेरने लगें हैं।

हम जानते हैं कि नदियां भु गर्भ में मीठे पानी को संजोए रखने का काम भी करतीं हैं, जोहड़ को हमारी संस्कृति व समाज ने अपनाया, झीलों को सागर समझा, अपने संस्कार व संस्कृति में जगह दिया। लेकिन आज स्थिति बड़ी विपरीत व नाजुक बनी हुई है जो साक्षात हमारे सामने है जिसका परिणाम सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ रहा है। जलिय जीव, वन्य जीव, पशु पक्षी, मानव सभी के सभी इस समस्या से जूझ रहे हैं। क्योंकि सभी को पीने योग्य पानी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त नहीं हो रहा है।

राजस्थान में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को लेकर काम कर रहे एल पी एस विकास संस्थान के पर्यावरणविद् व प्रकृति प्रेमी राम भरोस मीणा के अपने निजी अनुभवों को साझा  किया जाए और राजस्थान की झीलों, नदियों, जोहड़ की स्थिति को समझा जाए तो पता चलता है कि प्रत्येक नदी व झीलें दूषित हो चुकी है, उभरते शहरों के सिवरेज को डाला जा रहा है, नदियां कचरा पात्र बन गई, स्वच्छता खत्म हो गई वहीं बदलते मौसम के साथ बहाव क्षेत्र सिकुड़ते जा रहें हैं। 

सरिस्का राष्ट्रीय बाघ अभयारण्य क्षेत्र के बीचों बीच बहने वाली रूपारेल ज़हर उगलने लगी है जिससे सरिस्का के वन्य जीवों पर प्रभाव पड़ने के साथ बारां जैसे ऐतिहासिक स्थल पर मछली यों की हर वर्ष मौत होती दिखाई देती है, लाखों जलिय जीव नष्ट हो जाते हैं, पिछले एक दशक से वर्षा ऋतु की पहली वर्षा का जल जब यहां पहुंचता है तब यह तांडव देखने को मिलता है साथ ही अलवर जिले की एक मात्र स्वच्छ सुंदर प्रकृति के सुंदर नजारों के मध्य स्थित सिलिसेड झील बढ़ते पर्यटन के साथ  प्रदुषण से इस समय लाखों मछलीयां को खो चुकी है। जलिय जीवों के एक साथ इतनी मात्रा में मरने से पर्यावरण प्रदुषण बढ़ने के साथ जल प्रदुषण इससे अधिक बढ़ता है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण जीव जगत पर पड़ता है।

 अब सवाल यह उठता है कि आखिर हम कब तक मछलियों को मरते देखते रहेंगे ? क्या रूपारेल नदी को स्वच्छता के साथ बहने देंगे?  सरिस्का के वन्य जीवों को दूषित ज़हरीले पानी से  बचाने के उपायों कर पायेंगे ? बड़े चिंतनीय विषय है और आज के परिवेश में सोचना बहुत जरूरी है। नदियों सहित सभी पानी के श्रोतों को यदि प्रदुषण मुक्त नहीं रखा गया तथा इनकी स्वच्छता को लेकर काम नहीं हुएं तों आने वाले समय में जलिय जीवों के साथ साथ वन्य जीवों व मानव को सुरक्षित रखना मुश्किल होगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार है।)