कर्नाटक में गोरक्षा, धर्मांतरण कानून विरोधी वापसी पर असमंजस

लेखक : लोकपाल सेठी

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक 

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मई के महीने में सत्ता में आई कांग्रेस पार्टी ने चुनावों के दौरान यह वायदा किया था कि अगर राज्य में  उसकी सरकार बनी तो बीजेपी शासन काल में बने गोरक्षा और धर्मांतरण विरोधी कानूनों को वापिस ले लेगी। इसी प्रकार पुराने कृषि मंडी कानून को फिर से बहाल किया जायेगा। इस बात के संकेत दिए गए थे कि ये तीनों कानून वापिस लेने के प्रस्ताव विधान सभा के प्रथम सत्र में ही लाये जायेगे। विधान सभा का बजट सत्र समाप्त हो गया लेकिन इन कानूनों की  वापिसी पर कोई चर्चा नहीं हुई। 

प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष सलीम अहमद, जो सदन में पार्टी के मुख्य सचेतक भी है, का कहना है कि ये सभी कानून समीक्षा के लिए विधि विभाग को भेजे गए। विभाग के रिपोर्ट के बाद ही इस बारे में कोई आगे की कारवाई की जाएगी। लेकिन अब यह छिपा नहीं है कि राजनीतिक कारणों के चलते सत्तारूढ़  दल इन कानूनो को वापिस लेने को लेकर असमंजस में है। हालांकि सरकार ने हाल के सत्र में नए कृषि मंडी कानून को निरस्त कर पुराने कानून को बहाल करने का विधेयक विधान सभा में लाई। विधान सभा में तो यह आसानी से पारित हो गया लेकिन विधान परिषद् में पेश नहीं गया क्योंकि परिषद में कांग्रेस के पास बहुमत नहीं है। कांग्रेस चाह कर भी परिषद् में बहुमत का समर्थन नहीं जुटा पाई। 75 सदसीय परिषद् में बीजेपी के पास कुल 36 सदस्य है जबकि कांग्रेस कांग्रेस के पास 26, अन्य सदस्यों में जनता दल (एस) और निर्दलीय शामिल है। कांग्रेस ने जनता दल (एस) का समर्थन पाने की हलकी सी कोशिश की लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली। 

दक्षिण के इस राज्य में मठों और इनके प्रमुख संतों का यहाँ के समाज और राजनीति में बड़ा दबदबा है। इनकी बात को इन मठों के भगत बड़े सम्मान से  मानतें है। राज्य की राजनीति में लिंगायत और ब्राह्मण मठों के मुखियाओं का प्रभाव सबसे से अधिक है। मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक इनसे अक्सर मिलने जाते है। इन्ही के प्रभाव के चलते पिछली बीजेपी सरकार ने गोरक्षा तथा धर्मान्तरण विरोधी जैसे विधेयक सदन में पेश कर कानून बनाये थे जब विधान सभा का सत्र चल रहा था तो इन मठों के पांच मुखियाओं ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से भेंट कर आग्रह किया था कि गोरक्ष और धर्मांतरण विरोधी कानून वापिस नहीं लिए जाये। बताया जाता है कि मुख्यमंत्री सिद्धारमैया खुद ऐसे विधेयकों पर जल्दबाज़ी में कोई कदम नहीं उठाना चाहते। वे जानते है कि जनता दल (एस) के विधान परिषद् में समर्थन के बिना कोई विधेयक पारित नहीं करवाया जा सकता। हालांकि उपमुख्यमंत्री डी के शिवकुमार, जो कांग्रेस पार्टी के प्रदेश प्रमुख भी है, इस बारे में त्वरित कार्रवाही करने के पक्ष में है। 

राज्य के दूसरी बार मुख्यमंत्री बने सिद्धारमैया राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी है। वे किसी भी राजनीतिक तथा अन्य मुद्दों पर बड़ी सोच समझ के बाद टिप्पणी करते है या निर्णय करते  है। बताया जाता है कि वे इन दोनों मुद्दों पर अभी तुरन्त कुछ किये जाने के पक्ष में  नहीं है। एक तकनीकी कारण यह है कि फिलहाल  विधान परिषद् में पार्टी के पास बहुमत नहीं है। चूँकि जनता दल (स) ने साफ़ कर दिया है कि वह विधान सभा अंदर और बाहर बीजेपी के साथ मिलकर  चलेगा। क्योंकि कांग्रेस और बीजेपी के बाद परिषद् में सबसे से अधिक सदस्य इसी दल के है और उनके समर्थन के बिना कोई विधेयक इस सदन में पारित नहीं करवाया जा सकता। 

उनके नज़दीक समझे जाने वाले पार्टी नेताओं को कहना है कि मुख्यमंत्री अभी इस बात का आकलन करने में लगे है कि अगले कुछ महीनों में होने वाले  लोकसभा के चुनावों को सामने रख कर ही कोई निर्णय किया जायेगा। राज्य में लिंगायत सबसे बड़ा जातीय समुदाय है। इसका सामाजिक और राजनीतिक तौर पर बड़ा दबदबा है। पिछले तीन दशकों से यह समुदाय बीजेपी का साथ देता आ रहा है। लेकिन हाल के विधान सभा चुनावों में इस समुदाय से संबंध रखने वाले कई  बीजेपी नेता कांग्रेस के खेमे में आ गए। बीजेपी के बड़े नेता खुद मानते है इसके चलते पार्टी ही पार्टी नुकसान हुआ। इस समुदाय के एक बड़े मठाधीशों का मानना है कि अगर कांग्रेस लोकसभा चुनावों से पहले गोरक्ष और धर्मांतरण विरोधी कानून निरस्त करती है तो इससे  लोकसभा चुनावों में   कांग्रेस को बड़ा नुकसान हो सकता है। इसी को लेकर कांग्रेस पार्टी इन दोनों कानूनों पर असमंजस की स्थिति में है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)