नदियों को रास्ता चाहिए, अवरोध नहीं : राम भरोस मीणा

लेखक : राम भरोस मीणा 

जाने माने पर्यावरणविद् व समाज विज्ञानी है।

Email - lpsvikassansthan@gmail.com

Mobile - 7727929789

www.daylife.page 

(नदियों के बहाव क्षेत्रों में बढ़ते अतिक्रमण, गन्दे नालों, सिवरेज व अपशिष्ट पदार्थों के डालने से नदियों का पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ाने के साथ वहां की वनस्पतियों, जलीय जीवों, वन्य जीवों पर आपदाएं मंडराने लगीं हैं, इसके चलते भूगर्भीय जल में बदलाव के साथ उसकी स्वच्छता खत्म होने लगीं हैं, मानव के साथ सभी जीवों तथा वनस्पतियों में इसके प्रभाव दिखाई देने लगे हैं जो आगामी समय में खतरनाक होंगे, इसलिए समय रहते हमें नदियों की स्वच्छता सुंदरता निर्मलता को बनाए रखने पर काम करने की आवश्यकता है)

नदी का जन्म ऊंचे स्थानों से मैदान की और बहते वर्षाजल के साथ  हुआं जो लम्बी दूरी तय करने के साथ अनेक नालियों नालों के आपस में मिलने से बड़ा रूप लेकर नदी के स्वरूप में सामने आई तथा बहुत से नदियां मिलकर एक महानदी का निर्माण करती जो एक बड़ी लम्बी दूरी तय कर सागर एवम् महासागरों में विलीन हो जाती है जैसे गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्ण आदि। नदियों के उद्गम,  प्रवाह क्षेत्र, पानी के स्रोत, भोगौलिक व पर्यावरणीय हालात, प्राकृतिक वनस्पतियां,  नदी के रास्ते में स्थित भूगर्भीय चट्टानें नदी की उपयोगिता महत्वकांक्षा को बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, इन्हीं से नदी की पहचान बनती है, दुसरा नदी द्वारा मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति एवं उसके वर्षभर बहनें अथवा वर्षा ऋतु में बहने के अपने स्वभाव से नदियों की महत्वत्ता को जाना जाता रहा है। नदियां छोटी हो या बढ़ी अपना महत्व है। इन्हें रास्ता चाहिए अवरोध नहीं। आज पुरे देश में अवरोध के चलते 60 प्रतिशत छोटी नदियों के रास्ते में अवरोध पैदा हो गया या उन्हें बदल दिया वहीं 25 से 30 प्रतिशत बड़ी नदियों पर बांध बना कर उन्हें रोकने की साज़िश रची गई जिससे प्राकृतिक संसाधनों को हानी हुईं, मानव भी अपने को ख़तरे में डाल कर काल के दरवाजे खटखटाने लगा। 

हम सब जानते हैं कि "नदियां प्रकृति प्रदत्त है, मानव निर्मित नहीं" यहां मानव को वे अधिकतर प्रकृति ने नहीं दिया जो मनुष्य स्वयं उसमें बदलाव पैदा कर सकें। सत्य और सही है "प्रकृति द्वारा तैयार हुएं प्राकृतिक स्वरूप को प्रकृति ही संचालित करतीं हैं", ओर वहीं उसमें बदलाव लाने के लिए सक्षम हैं बाकी सभी छेड़छाड़ कर सकते हैं बदलाव नहीं और यदि किया भी जाता है तो उसका प्रतिफल भी भुगतना पड़ता है, कटुसत्य है। नदियां हमारे प्रारम्भिक विकास की आधार रहीं, कुटीर उद्योग, शहरीकरण, पर्यटन, आखेट, कृषि, जल परिवहन नदियों के किनारे उपजे, विकसित हुएं रोजगार के साथ अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के साथ साथ पेयजल की आपूर्ति  में मददगार बनें। नदियों की इस महत्वत्ता के कारण इन्हें मां स्वरुप माना गया, पूजा गया, उपासना की गई, व्रत त्योहार रखें, कथाओं के माध्यम से इन्हें स्वच्छ, सुंदर, निर्मल धाराओं में बहते रहने के लिए धर्म- कर्म, जात - पात के साथ जोड़ कर रखा जों आवश्यक भी था और देखें तों आज भी आवश्यकता है, बस हमें जरा समझने की आवश्यकता है। 

नदियों को लेकर आज स्थिति विपरीत है, देश दुनिया में एक भी छोटी बड़ी नदी स्वच्छ सुंदर निर्मल जल के साथ नहीं बह रही, इनके प्रवाह क्षेत्रों में प्रदुषण बढ़ता जा रहा है, सिवरेज के साथ शहरों का कुडा करकट ज़हरीले अपशिष्ट गन्दे नाले औधोगिक अपषिष्ट डालने लगें हैं, बहाव क्षेत्रों में कृषि फार्म, आवासीय भवनों का निर्माण होने लगा है, उद्गम स्थल पर ही इनके कंठ दबा दिय जा रहें हैं, पर चिंता किसी को नहीं। देश की 603 नदियों में प्रदुषण की मात्रा बढ़ती जा रही है, 279 की स्थिति चिंताजनक है, उत्तर प्रदेश पंजाब गुजरात तमिलनाडु हरियाणा की नदियों में बायोकेमिकल आंक्सिजन डिमांड स्वीकार्य सीमा जो 03 मिलीग्राम प्रति लीटर होनी चाहिए बढ़कर इससे कई गुना अधिक हों गई। 

देश में उत्तर प्रदेश से निकलने वाली नदियों की स्थिति चिंताजनक तथा महाराष्ट्र की सबसे अधिक नदियां प्रदुषित है। केन्द्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट 2022 के तहत् राजस्थान की नदियों की स्थिति चिन्तनीय बनीं हुईं हैं, बनास, जंवाई, चम्बल बांडी, कोठारी, लुणी, गंभीरी, खारी, माहीं, पीपलोद के साथ अब साबी, सोता नाला, रूपारेल भी प्रदुषित होने में पिछे नहीं रहीं वहीं गुम नाम नदी नारायणपुर वालीं को नारायणपुर में कचरा पात्र बनाने के साथ उसके उद्गम से साबी में मिलने तक अवशेष ही खत्म कर दिया, खेर जो भी हो, जानते सभी है लेकिन बोलें कोन? कार्यवाही करें कोन? क्योंकि नदी ही तों है जब होगा, जो होगा, देखा जाएगा, सब बचो भाई की गाड़ी में सवार है।

अब बात हम राजस्थान के अलवर जिले की करें, यहां रूपारेल मात्र एक वह नदी है जो बारहमासी है, हमेशा बहती है। ऐतिहासिक महत्व वाली नदी है, उद्गम से जयसमंद बांध तक दर्जनों धार्मिक व पर्यटन स्थल भी हैं, जयसमंद बांध में पानी आने पर 50  से 100 गांवों व अलवर शहर के पेयजलापूर्ति में बड़ा सहयोग होता है, दो दशकों से पानी को लेकर मांग भी उठी है, सत्य है भूगर्भीय जल में बढ़ोतरी होती है, आजिविका में गुणात्मक सुधार होता वहीं पर्यटन से रोजगार भी मिल रहा। यह सब होते हुए बारां से जयसमंद तक 12.5 किलोमीटर की नहर जो बांध को रूपारेल से पानी पहुंचाने का मुख्य मार्ग है सुरक्षित नहीं, आखिर अतिक्रमण क्यों होता है? कौन करता है? कब करता है? क्यों करता है? जिम्मेदार कौन है? किसी के पास जवाब नहीं। खेर हर वर्ष राजकोष से अतिक्रमण हटाया जाता है, नहर की सफाई कराई जाती है, लेकिन पिछले एक  दो दशक से अधिक समय से बांध में पर्याप्त पानी नहीं आया, किस्मत की बात है, जैसा भी हो विषय चिंताजनक है। 

बात यही नहीं रूकती। रूपारेल पर  बारां में हर साल जलीय जीवों जैसे मछलियों की लाखों की तादाद में मौत होती है इस साल भी हुई, सोचों,  हर वर्ष जुन जुलाई में होने वालीं पहली वर्षा में ही ऐ जीव अपनी जीवनलीला क्यों समाप्त कर बैठते हैं, और यह मात्र एक दशक से, पहले क्यों नहीं? क्यों कि नदी उद्गम से बारां तक बढ़ते पर्यटन व शहरीकरण के चलते गन्दा जहरीला पानी व अपषिष्ट नदी की मुख्य धारा में शामिल कर दिए गए जैसे थानागाजी, भर्तहरी  तिराहा, बारां वहीं सरिस्का , कुशालगढ, माधोगढ़ का वर्षा पानी इसी में बह कर आता, जों जलीय जीवों को मौत के घाट उतार रहा है, इस जहरीले गन्दे पानी की असली कहानी शूरू हुईं हैं। परिणाम बाकी है। 

भयंकर साबित होंगे, जब बाघ परियोजना क्षेत्र के वन्य जीवों में रोगों की बढ़ोतरी के साथ महामारी फैलने लगेगी, जयसमंद का पानी ज़हर बनकर त्राहि मचाएगा, फिर होना क्या है सब अपने बचाव में लगेंगे, जनता व जानवरों की फ़िक्र भला किसको है।विषय सोचने लायक़ है, समय की मांग व आवश्यकता है, सरकार समाज इससे नज़र  ना छुपाए,  अम्ल करें, अमलीजामा पहनाए। जिस प्रकार से प्रकृति व पर्यावरण प्रेमी, वन्य जीव प्रेमी चिंतित हैं उसी तरह बाघ परियोजना प्रशासन, ज़िला प्रशासन, स्थानीय निकाय व मानव समाज को रूपारेल पर चिन्तन के साथ क्रियान्वयन की आवश्यकता है, जिससे आगामी समय में नदी व जल को लेकर उत्पन्न आपदाओं से निपटा जा सके क्योंकि नदी को स्वतंत्र प्रवाह के साथ बिना अवरोध के बहने की आवश्यकता है, स्वच्छता को बनाने की आवश्यकता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)