पहचान खो रही है जयपुर की हस्तशिल्प कला : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी एवं पूर्व प्रबंध निदेशक, लघु उद्योग निगम हैं 

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गुलाबी नगर की हस्त कला अपनी अनूठी पहचान के कारण देश विदेश में ख्यातनाम है। उसमें चंदन पर कारीगरी, हाथी दांत पर काम, पीतल पर नक्काशी, मूर्ति कला, शिल्प कला, मीनाकारी, गलीचा उद्योग, ब्लूपाटरी, जूतियां, राजाशाही व त्यौहारी ड्रेस आदि प्रमुख है। यह हस्तकलाएं अपनी अलग पहचान रखती है। 

70 के दशक में मैं स्माल इंडस्ट्रीज कारपोरेशन का प्रबन्ध निदेशक था। उस समय कारपोरेशन द्वारा संचालित एम्पोरियमों पर भीड़ लगी रहती थी। विभिन्न कलाओं से जुड़े कारीगर अपना कौशल प्रदर्शन करते थे और निर्मित सामान की बिक्री करते थे। प्रसिद्ध बड़े होटलों, टुरिष्ट होटलों, टूरिष्ट बंगलों में जगह लेकर हस्तशिल्प की बिक्री होती थी। देशभर में हस्तशिल्प की स्टाल सभी मेलों में लगाई जाती थी। सभी प्रमुख नगरों में प्रदर्शनियां आयोजित होती थीं। दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई में हस्तशिल्प की बिक्री का काफी जोर था। ट्रेड सेन्टर व प्रशिक्षण केन्द्र चलते थे। दक्ष कारीगर विभिन्न कार्य करने की दक्षता का प्रदर्शन करते थे, अपना सामान बेचते थे।

एम्पोरियमों व प्रदर्शनियों में माल रखा जाता था। लाख की चूड़ियां बनाने वाले सिद्धहस्त मनीहार (लाख की अन्य वस्तुएं जिनमें लाख का पेन स्टेण्ड, अंगूठियां, जडावयुक्त अगरबत्ती स्टेण्ड, हाथी, मोर आदि बनाते थे), विदेशी पर्यटकों का इन वस्तुओं में खास आकर्षण रहता था। अब सरकारी संरक्षण नहीं मिलने के कारण उनकी दशा काफी खराब हो गई है और कई परिवार अपना पुश्तैनी काम छोड़कर अन्य व्यवसाय संभाल रहे है। 

सांगानेर, बगरू में होने वाली क्लाथ पेंटिंग का स्वरूप भी अब धीरे-धीरे बिगड़ रहा है। जयपुर में कारीगरी का सामान बनाने वाले व रखने वालों के पृथक-पृथक मौहल्ले थे, पृथक बाजार व दुकानें थी। उनमें अधिकांश परिवार गरीबी के कारण अपने पुश्तैनी काम को छोड़कर चले गये। इन कलाओं को जिंदा रखने के लिए कोई प्रशिक्षण की व्यवस्था भी नहीं है जिससे कि इन कलाओं की खोई हुई प्रतिष्ठा को ऊंचाई पर ले जाया जा सके। 

सरकारी संरक्षण नहीं मिलने के कारण उनमें से अधिकांश कारीगर गरीब हो गये व अन्य व्यवसाय से संबद्ध हो गये। मूर्तिकार, मनिहार, रंगाई छपाई करने वाले, जूतियां बनाने वाले व अन्य कलाकारों के निवास व विक्रय स्थल उनके नाम पर रखे गये थे। व्यवसाय में वृद्धि के लिए कोई आर्थिक मदद नहीं मिली। जिसका असर गुणवत्ता पर भी पड़ा और इन कलाओं की प्रतिष्ठा पर अंगुलियां उठाई जाने लगी है। जयपुर के अलवा अन्य छोटे कस्बों और गांवों के जो लोग इन हस्तकलाओं से जुड़े थे, उन्होंने ने भी, संरक्षण नहीं मिलने, व्यापक प्रचार प्रसार नहीं होने, कच्चा माल व उचित प्रशिक्षण नहीं मिलने से प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पाये और वे भी अन्य कार्य करने अथवा मजदूरी करने को मजबूर हो गये। 

चार दीवारी के भीतर जयपुर में हस्तकलाओं से जुड़े हर प्रकार के कारीगर है। पुराने जयपुर को तो कला सिटी घोषित कर कार्य करने की आवश्यकता है। इस क्षेत्र में अन्य बड़े थोक व्यासायियों को हवेलियों व बाजारों से हटाकर यहॉ विभिन्न कलाकृतियों के निर्माण व बिक्री को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। 

जयपुर नगर की सभी चौकडियों में पृथक-पृथक विभिन्न सुन्दर कलात्मक क्राफ्ट (शिल्प) बनाने के मौहल्ले है जहां अब भी उनके कारीगर रहते है। किसी भी मौहल्ले में जाए कहीं जैम एण्ड ज्वैलरी, बिल्यूपोटरी, सांगानेरी, बगरु व अन्य कलात्मक प्रिन्टों के परिधान, रेडीमेट गार्मेन्टस, मूर्तियों के निर्माण स्थल व दुकान, मिनीयचर पेंटिंग (चित्रकारी), मनिहारी व लाख की निर्मित वस्तुएं, टाई एण्ड डाई के कार्य व दुकानें, फर्नीचर, हैण्डी क्राफ्ट, कारपेट, खादी, पीतल कांसी के वर्तन, त्यौहारों के अनुसार खानपान व पहनने के कपड़ों की दुकाने, चमडे की जुतियांे की दुकाने, रंगाई, छपाई व अन्य कारीगरांे के प्रसिद्ध पृथक-पृथक स्थान आज भी मौजूद हैं।

जयपुर को क्राफ्ट नगर आज भी बनाया जा सकता है। जलेब चौक, पुराने पुलिस निदेषालय का भवन व खाली मैदान, सवाई मानसिंह टाउन हाल, चौकडी सरहद स्थित चौगान, आतिष मार्केट, रथ खाना, हाथी खाना, जनानी ड्योडी, जौहरी बाजार व उसके पास स्थित मोैहल्ले व बाजारों में जहां आज भी क्राफ्ट कार्य व व्यवसाय होता है उन्हें क्राफ्ट उपनगर ओर क्राफ्टों के विशिष्ट बाजार बनाये जा सकते है। बडी चौपड से जोरावर सिंह गेट होते हुए आमेर तक क्राफ्ट बाजार बनाया जा सकता है। चौकडी रामचन्द्रजी, चॉदपोल से सूरजपोल बाजार, जौहरी बाजार, विश्वेशर जी, तोपखाना आदि इन सभी स्थानों में आज भी विभिन्न विशिष्ट क्राफ्ट बनाये जाते है, खरीद फरोक्त होती है। देशी विदेशी पर्यटक आते हैं।

परकोटे में नगर के पृथक-पृथक स्वरूप, विभिन्नताएं अलग-अलग है, उनको संरक्षित रखने के लिए रास्तों और गलियों में व्यवसायिक परिसरों के निर्माण, रास्तों व गलियों के मार्ग विभाजन में बने अनाधिकृत निर्माण व अतिक्रमण हटाने की आवश्यकता है। भवन निर्माण में परम्परागत सामग्री व वास्तुशैली का उपयोग हो, नियोजन, स्मारकों, मन्दिरों, हवेलियों, विशेष भवनों के संरक्षण के लिए एक स्वतंत्र संस्था का निर्माण कर, सर्वांगीण विनियम बनाकर पालन करने से ही कला नगरी का वैभव कायम रह सकता है। जयपुर का विकास एक शिल्प (कला) नगरी के रूप में हो सकता है।

राज्य सरकार यदि नगर की बिगड़ती विकृतियों को रोकें, विभिन्न क्राफ्ट के निर्माण व विक्रय स्थनों की सुचारू व्यवस्था करें, विभिन्न स्थलों पर क्राफ्टों की खरीद फरोख्त की सुचारू व्यवस्था हो तो पुराना जयपुर स्मार्ट सिटी बना रह सकता है व क्राफ्ट सिटी के नाम से विश्व में ख्याति प्राप्त कर सकता है। जयपुर के बाहर छोटे-छोटे गांवों में विभिन्न क्राफ्ट के निर्माताओं व विक्रेताओं को आवास स्थान, निर्माण व विक्रय स्थल मामूली राशि में उपलब्ध करायें जाये और उनमें सड़क, नल, बिजली, संचार विपणन की सुचारू व्यवस्था हो तो जयपुर के चारों ओर विशिष्ट क्राफ्ट उपनगर (क्राफ्ट गांव) स्थापित हो सकते है, पर्यटक बढ़ सकते है, निर्यात बढ़ सकता है, रोजगार बढ़ सकता है तथा विभिन्न क्राफ्टों में और अधिक उपयोगिता व आकर्षण आवश्यकतानुसार बढ़ाया जा सकता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)