कविता
लेखक : तिलकराज सक्सेना
जयपुर।
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कौन आयेगा फिर इस महफ़िल में मेरे जैसा,
मुझे अगर रोकना चाहो तो अभी तुम मुझे रोक लो,
कौन रोक पाया है नदी की बहती धारा को,
मैं बहती नदिया की धारा सी चंचल,
जाने कब और कहाँ, किस धारा से जाकर मिल जाऊँ,
अभी जिस जगह पर रुकी हूँ, वहीं पर मुझे रोक लो,
फिर अलग करना चाहोगे तो बहुत मुश्किल होगा,
फिर जुड़ना भी यदि चाहोगे तो बहुत मुश्किल होगा,
अगर मुझे रोकना चाहो तो अभी तुम रोक लो,
तराने ज़िन्दगी भर ग़म के गुन-गुनाने से,
अफ़साने दर्द भरे इस जग को सुनाने से,
जाकर मयखाने में मय को अपनी महबूबा बनाने से,
बेहतर है कि अपना ग़ुरूर, ये गुस्सा, ये ज़िद्द छोड़ दो,
अगर मुझे तुम रोकना चाहो तो बढ़कर आगे रोक लो।