सम्पूर्ण क्रांति की प्रासंगिकता : डा. (प्रो) युगलेश्वर

लेखक : डा. (प्रो) युगलेश्वर

सम्प्रति:- एसोसियट प्रोफेसर एण्ड हेड, केकेएम कॉलेज, पाकुड़ सि. का. मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका झारखण्ड

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भारतीय गणतंत्र की लोकशाही का कारवॉ अपने 75वें अमृत महोत्सव को मना रहा है। ऐसी स्थिति में हर वर्ष जून महिने में सियासतदानों के लिए देश के सुधि विचारकों के लिए एवं मनीषि चिंतकों के लिए ‘भारतीय गणतंत्र में लोक सेवकों के कर्त्तव्यों पर‘ चिंतन एवं विमर्श से देश की राज सत्ता को उनके द्वारा देश हित में किए कार्यो की समीक्षा करता है, जहाँ आज तक राजसत्ता सेवा का माध्यम या जनसरोकार के कार्य में सर्वोदय की भावना पर ठोस निष्कर्ष के लिए जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति की प्रतिध्वनि सुनता रहता है। 

जी हाँ!, संपूर्ण क्रांति देश की राजनीतिक नारों की तरह सिर्फ जनाक्रोश की मुनादी नहीं था, देश बीते 7 दशकों से अपनी लोकशाही की चाल में तीव्र या मंथर गति से चल रहा है। राज सत्ता की अपनी हाँक होती है। लेकिन इस पर नकेल रखने के लिए लोकप्रहरी एवं लोक सेवक सत्ता की चारण संस्कृति से बाहर होकर ‘अंत्योदय की बीजक‘ की मशाल से उसे उदभाषित करता रहता है। समाजवादी चेतना के प्रखर पुरूष जयप्रकाश नारायण ने देश की राजनीतिक संस्कृति में आमूल चूल परिवर्त्तन के लिए या सत्ता नहीं व्यवस्था परिवर्त्तन के लिए संपूर्ण क्रांति जैसी देश व्यापी युग निर्माण योजना के साथ भारत में अंधी हो रही तत्कालीन राज सत्ता कों ग्रामीण स्वराज की संपूरणता के लिए लोकनीति एवं लोकशाही के मार्ग का अनुसरण की ओर ईशारा किया था।

लेकिन कांग्रेसी सत्ता स्वातंत्रयवीर जयप्रकाश नारायण की एक न सुनी एवं भारत में पुलिस शासन की बर्बरता से भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकार एवं उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर करे पहरे लगा दिए। 05 जून 1974 को जयप्रकाश नारायण ने छात्र-संघर्ष समिति के छात्रों केो प्रथम बार सम्पूर्ण क्रांति के लक्ष्य को उदघोषित करते हुए कहा ‘संपूर्ण क्रांति लोकशाही के द्वारा जनता की एक सामाजिक व्यवस्था होगी, जो देश और समाज की बुनियादी समस्याओं का अहिंसक तरीके से निदान  करने के लिए राज्यसत्ता के कार्यपालक पर लोकसत्ता के प्रभाव को कायम रखेगी, यह लोक सत्ता लोक सेवकों की होगी जो ग्रामीण संप्रभुता के पूर्ण नियोजन के लिए देश के कुलीन एवं पढ लिख़े  समाज से आए नौकरशाह को श्रमिक समाज की समता, समानता एवं भ्रातृत्व वाली सर्वोदयी संरचनाओ के लिए देशकी पहली ईकाई ग्राम पंचाय केा मजबूत करेगी। और कालांतर से यह अंत्योदय वाली ग्राम निर्माण योजना को दलित, शोषित पीड़ित एवं सीमावर्त्ती गाँवों में अल्पविकसित आदिवासी समाज के सहअस्तित्व वाली सामुदायिक जीवन संस्कृति के लिए किए गए बलिदान एवं गाँव की माटी के ग्राम स्वराज के सर्वांगिण विकास के लिए श्रम सत्ता का आनंद देगी।

अतः जय प्रकाश नरायण की संपूर्ण क्रांति की इस परिवर्त्तन कारी समग्र चिंतनवाली सर्वांगिण रूप से विकसीत समाज की कालजयी भविष्य दृष्टि की प्रासंगिकता पर विचार करने की जरूरत है। यह एक संजोंग है की जय प्रकाश नारायण की ‘संपूर्ण क्रांति‘ का आहवान आंधी होती तत्कालीन कांग्रेस की राजसत्ता के विरोध में था। लेकिन यह उनके वैचारिक भ्रमणशीलता का अंतिम पड़ाव था। जिसमें लोकशाही की चेतना का आगाज था और लोकहित में लोकनीति के निर्माण का आहवान कांग्रेस पार्टी की सरकार से था जिसमे सत्ता के अहंकार के कारण समाजवादी एवं समतावादी सामुदायिक विकास की समावेसी चेतना का लुप्त होना था। 

जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का यथार्थ इन तमाम लोकहित की कार्य योजना के कार्यान्वयन से था जिसका संकल्प भारत की राज सत्ता ने देश की आजादी के समय भारत के तिरंगे यनि की ‘नियति‘ से किया था, जिसके लिए जयप्रकाश नाराण ने भी अपना खून पशीना बहाया था। अतः देश के ससक्त लोकप्रहरी के रूप मे श्री जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति का आहवान उनके कतव्यनिष्ठ भरतीय नागरिक के रूप में था। देश की जनता ने जागरण मंत्र की साधना के लिए उन्हें ‘लोकनायक‘ की उपाधि से नवाजा था।

एक सशक्त लोकप्रहरी के रूप में भारत की लोकशाही की आत्मा जयप्रकाश नारायण कभी भी राजनीतिक पार्टी को जनतंत्र का मेरूदण्ड नहीेे समझा था। बल्कि राजनीतिक पार्टी सत्ता प्राप्त करने के लिए अपनी मौकिलकता और नैतिकता दोनेा का परित्याग कर सत्ता हासिल करती है, जनआदेश को झूठे वादे परोषती है। फिर भी देश की तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर ‘दलविहिन लोकतंत्र‘के प्रवक्ता ने भारत में विपक्ष की पार्टियों को एक जूट कर जनता पाटी के रूप में गठित करने का प्रयास किया और संसदीय लोकतंत्र में लोकशाही की रक्षा के लिए कांग्रेस पार्टी की अंधी राज सत्ता से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हो गया। अतः संपूर्ण क्रांति का अर्थ सतत् जागरूकता है। जिसे हम देश के नागरिको के द्वारा ससक्त प्रतिरोध या फिर अंधी राज सत्ता के विरूद्ध जनादेश हासिल कर लोकसाही की प्रवाह को कायम रख सकते हैं। यही सपूर्ण क्रांति का यथार्थ है।

आज की तारिख में पूरा दृष्य ही बदल चुका है। देश की राज सत्ता पर कांग्रस पार्टी के बजाय भारतीय जनता पार्टी का प्रभाव एवं दुष्प्रभाव जनता पर कायम है। देश की राजनीतिक संस्कृति में मानवीय जीवन मूल्यों का गजब परिहास हुआ है। कभी देश में फासिष्टवादी शक्तियाँ, जातिवादी संर्कीण हितों की राजनीति, भाई भतिजावाद, राजनीतिक अपराधीकरण एवं राजनीति से अकूत धनोपार्जन की घोर आलोचना करने वाली राजनीतिक पार्टिया एवं उसके आलाकमान कांग्रेस के साथ खड़ी होकर अवसरवाद और सत्ता की राजनीति के लिए उन तमाम संकल्पों की तेलाजलि दे दिया है, जिसे कभी संपूर्ण क्रांति की मुनादी के लक्ष्य वाक्य के रूप में कबूल किया गया था।

भारतीय राजनीति का यह संक्रमण काल या अंतराल संपूर्ण क्रांति की प्रासंगिकता पर नए सिरे से विचार करने के लिए बाध्य करती है। चार दशकों तक भारतीय राजनीति में राजनीतिक छुआ-छूत के शिकार रही पार्टी आज राजनीतिक सत्ता की प्राचीर पर धृतराष्ट्र होने का आराप झेल रही है और कभी सत्ता के शीर्ष पर खड़ी कांग्रेस आज विपक्ष में लोतांत्रिक मूल्यों के लिए एवं संवैधानिक मर्यादाओं की रक्षा के लिए भारतीय राजनीति में नेतृत्व के लिए आतूर दिख रही है। अतः देश की राजनीतिक संस्कृति में लोकशाही की स्थापना के लिए जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति की प्रासंगिकता आज फिर से उन चुनौतियौ के साथ दो-दो हाथ करने के लिए तैयार खड़ी है, जिसकी आहट अतीत में संपूर्ण क्रांति की नाद में इसके विरूद्ध गूंजता रहता था।

बहुमत से प्राप्त निरंकुशता का अहंकार कभी कांग्रेस पार्टी को देश में भ्रष्ट शासन व्यवस्था एवं अराजक स्थिति के लिए संसदीय मर्यादायों की घोर अबहेलना का अवसर प्रदान किया था। निरंकुश शासन एवं हिटलरसाही की प्रतीक प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी 25-26 जून 1975 को पूरे देश में ‘आपातकाल‘ लागू कर दी थी। संपूर्ण देश, विपक्ष की पार्टी एवं राजनेताओं के लिए जेल की काली कोठरी में तबदील हो गई थी। जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति की गूंज अब देश की चोटि की नेताओं के लिए राजनीतिक कारागृह की लौह -सीखचो में बंद थी। 

भ्रष्ट शासन व्यवस्था राजसत्ता की हिटलर साही को आगे बढ़ा रही थी। ‘इंदिरा इज इंडिया‘ के नारों से देश पटा हुआ था। देश की लोकसाही पर संसदीय ताला लग चुका था। प्रेस की स्वतंत्रता पूर्ण रूप से प्रतिबंधित थी, लोकतांत्रिक एवं न्यायिक संस्थाएँ पूर्ण रूप से सत्ता के निंयत्रण में था। नागरिकों के मौलिक अधिकार की कटौती, संसद की समयावधि पर नियंत्रण आदि से देश की लोक तांत्रिक सत्ता एवं आम आवाम की नींद हराम थी। जन प्रतिनिधि अपनी प्रासंगिकता खो कर सत्ता यानी कांग्रेस पार्टी की दलाली में लगे हुए थे।

ऐसी ही परिस्थिति में इतिहास करवट लेता है और आम आदमी भारत की गाँवों में भारतीय समाज की चेतना को नए सिरे से नागरिकों की आजादी के लिए एवं आम आवाम से निकले जनतंत्र से नेतृत्व की मुनादी करता है। यही मुनादी जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति की लोकशाही की प्रासंगिकता है। जिसकी सुरक्षा के लिए जयप्रकाश नारायण ने जनप्रतिनिधि को वापस लेने के अधिकार की वकालत की है। जयप्रकाश नारायण की संपूर्णक्रांति की प्रासंगिकता यहाँ इस बात के लिए खड़ी हो उठती है कि संसद, विधान सभा या विधान परिषद से ऐसे जन प्रतिनिधि को वापस बुलाने के लिए अधिनियम का निर्माण करें जिससे देश को सही दिशा प्रदान की जाय और नागरिक स्वतंत्रता को देश और जनतंत्र की आत्मा समझी जाए।

आज देश की परिस्थितियाँ बिलकुल भिन्न है। भारतीय जनता पार्टी को छोड़ क्रांग्रेस सहित लगभग सारी राजनीतिक पार्टियाँ सत्तासीन भाजपा एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरूद्ध गोलबंद है। भारतीय लोकतंत्र के सर्वांगिण विकास के लिए एवं सामुदायिक समावेशी, ग्राम स्वराज की संपूर्णता के लिए सारी महत्वकांक्षी योजनाए संवाद पर खरी है। संगठित झूठ राष्ट्रवाद कीे शक्ल में लोकतांत्रिक संस्थाओं एवं लोकसाही की धज्जिया उड़ा रही है। ऐसी स्थिति में संपूर्ण क्रांति की प्रासंगिकता भारत के चतुर्दिक विकास एवं उसके पुर्ननिर्माण के लिए देश की राजनीतिक संस्कृति में उन निदृष्ट निदेसकों का अनुपालन जरूरी है, जिसकी चर्चा कभी लोक नायक जय प्रकाश नारायण ने राष्ट्र निर्माण की विचारक्रांति की अपनी यायावरी में किया है।

सन 1974 से 1977 का काल भारत की राजनीति में संक्रमण का काल कहा जा सकता है। जब संपूर्ण देश में अंधी राज सत्ता की अराजकता ने संसदीय जनतंत्र की दरवाजे पर लोकशाही को बंदी बना रखा था। तो फिर से देश की सड़क पर 75 वर्ष का एक बूढ़ा जो कभी  ‘भारत छोड़ो‘ की 42 की क्रांति का अग्निहोत्री था, आज लोकशाही की बुझती मशाल को देख कर संपूर्ण क्रांति की मुनादी के साथ जनआवाम के बीच जनादेश के लिए निकल पड़ा है। 

तत्कालीन भारत के शहर और गाँवों के सन्नाटे को चीरती हुई संपूर्ण क्रांति की मुनादी ने एक जन सैलाव के द्वारा अंधी राज सत्ता को एवं कांग्रस पार्टी को सिंहासन खाली करने के लिए सैकड़ो इनकलाबी पैगाम दिए थे। सन 1977 में प्रधानमंत्री श्रीमति गांधी इसी मुनादी के प्रभाव में ‘आपातकाल‘ की समाप्ति एवं नए सिरे से जनादेश प्राप्त करने के लिए जनता के सामने अपनी सरकार को प्रस्तुत किया। भारत की संसदीय सत्ता पर नए जनादेश का चहेरा कायम हुआ। जनता पार्टी के रूप में देश की आवाम को एक नई सरकार मिली लेकिन लोकनायक जयप्रकाश नारायण अपनी संपूर्ण क्रांति की व्यवस्था परिवर्त्तन में पूर्णतः असफल रहे।

देश की सत्ता में आई जनता पार्टी फिर से देश की व्यवस्था परिवर्त्तन या फिर सुदृढ़ स्वराज की संप्रभु ग्राम पंचायत के संकल्प को पूरा करने के बजाय राजनीतिक प्रतिस्पर्धा, सांगठनिक व्याधात, ईर्ष्या एवं प्रतिशोध की आग में लोकनायक के द्वारा स्थापित लोकशाही की संपूर्ण क्रांति के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक देश निमार्ण कीे योजनाओं को पीछे छोड़ राज सत्ता को ‘भानुमति का कुनवा‘ बना दिया। राजनीतिक अस्थिरता की दौर में देश की राजनीतिक व्यवस्था उजड़े बाग की तरह बंजर भूमि में तबदील हो गया। भारत की राजनितिक संस्कृति में गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हो गया। जनता पार्टी, जनता दल, संयुक्त मोर्चा या फिर जन मोर्चा की सरकार पिछले दशकों में देश की लोकतांत्रिक सत्ता के निर्माण में अभिनव प्रयोग किए है।

देश में सामाजिक शसक्तिकरण, महिला शसक्तिकरण या जनसरोकार एवं देश की बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान में अनेक संशोधन, मंडल कमीशन का लागू होना, ग्राम पंचायत राज संस्थाओं में नगरीय या स्थानीय स्वाशासन एवं उसमें महिलाओं की बराबरी की भागीदारी के लिए क्रांतिकारी कदम उठाए गए। आज देश की वर्त्तमान सत्ता संगठीट राष्टवाद के बल पर बहुसंख्यक जागृति के मंच पर आगे बढ़ रहा है। भारत की संसद, कश्मीर में अनुच्छेद 370, अयोध्या में मंदिर निर्माण एवं मुस्लिम महिलाओं कीे तलाक जैसी समस्याओं के निदान के लिए अपनी सहमति दे चुका है। 

आज संपूर्ण क्रांति की प्रासंगिकता मंडल एवं कमंडल के युद्ध में राष्ट्र के उलझी हुई समस्याओं के निदान पर नए ढंग से सोचने के लिए विवश है। या फिर देश की आम आवाम एक धर्म युद्ध के लिए विवश है। देश में गांधी युग की शांति सेना की अस्थियाँ अब क्षार हो चुकी है। देश की वर्तमान राजनीतिक संस्कृति में संपूर्ण क्रांति का आदर्श फिर से गांधीवादी समाजवाद में तब्दिल हो चुका है। भारतीय समाजवाद की प्राचीन विरासत ‘तमसोमाँ ज्योर्तिगमय‘ का पथ ही संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य भेद है। सुराज एवं स्वशसान ही जन-गण-मन की विरासत है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं उनके अपने निजी विचार हैं)