अभी नहीं सुलझा मणिपुर का संकट : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रख्यात पर्यावरणविद हैं।

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हम दावा कुछ भी करें हकीकत यह है कि केन्द्र सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद मणिपुर का संकट हल होने का नाम नहीं ले रहा है। वहां हिंसा लगातार जारी है। बीते दिनों ही एक बार हिंसा फिर भड़क उठी। राज्य के खामेनलोक इलाका में उग्रवादियों के हमले में नौ लोगों की मौत हो गयी है और 10 गंभीर रूप से घायल हैं। यह इलाका मैती बहुल इम्फाल ईस्ट जिले और आदिवासी बहुल कांग्पोकपो की सीमाओं से लगा हुआ है। हालात इतने खराब हैं कि राज्य के 16 में से 11 जिलों में अब भी कर्फ्यू जारी है। पूरे राज्य में इंटरनेट सेवाएं बंद हैं। यह इस बात का सबूत है कि समस्या लगातार विषम होती जा रही है। जबकि केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की चार दिवसीय मणिपुर की यात्रा जिसमें हुई सर्वदलीय बैठक, मैती समुदाय के लोगों से भेंट, हिंसा प्रभावित चंद्रचूड़पुर में विभिन्न हितधारकों व आदिवासी समुदाय के नेताओं तथा कुकी विधायकों -आईटीएलएफ के प्रतिनिधियों के साथ ही चिन-कुकी-मिजो समुदाय सहित कई सफल बैठकों से इस आशावाद को बल मिला था कि अब इस समस्या का समाधान निकट भविष्य में हो जायेगा। 

आने वाले 15 दिनों के भीतर समस्या के समाधान की सभी पक्षों ने आशा भी की थी। इसके बाद बहुतेरे उग्रवादियों द्वारा हथियार डालने की घटनाएं एक अच्छी दिशा की ओर संकेत कर रही थी। लेकिन इस दौरान इंफाल में एम्बुलेंस में जा रहे मां-बेटे सहित एक रिश्तेदार की दो हजार की मैती समुदाय की भीड़ द्वारा अपने ही समुदाय के लोगों को घेरकर जला दिया जाना,सीमा सुरक्षा बल व असम राइफ़ल्स के जवान की गोली मारकर हत्या और दो को घायल कर दिया जाना यह साबित करता है कि वहां के लोग निर्दयता की सीमा लांघ चुके हैं और पागल हो गये हैं। हालात इस बात के गवाह हैं कि इंफाल से बाहर जाने वाली कोई सड़क भी सुरक्षित नहीं  है। हालात के मद्देनजर अब केन्द्र सरकार ने वहां संविधान के अनुच्छेद 355 को लागू करने का फैसला कर चुकी है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि केन्द्र सरकार ने यह फैसला तब लिया है जबकि वहां भारतीय जनता पार्टी की ही सरकार है। 

असलियत में राज्य में हिंसाग्रस्त इलाकों में कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने, राहत व बचाव कार्य में तेजी लाने के साथ साथ जातीय संघर्ष में मारे गये लोगों के आश्रितों को 10-10 लाख का मुआवजा और उनके एक आश्रित को सरकारी नौकरी देने की सरकारी घोषणा से हालात काबू होने की उम्मीद बंधी थी लेकिन राज्य के हिंसाग्रस्त इलाकों में असामाजिक तत्वों ने कानून व्यवस्था का जिस तरह मखौल उड़ाया है, वह चिंतनीय तो है ही, साथ ही उस राज्य जिसे सुधार की एक नयी राह पर बढ़ते सुरक्षित राज्य का दर्जा दिया गया था, उसकी छवि को भी धक्का लगा है।

इसके उलट दिल्ली में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के आवास पर कुकी समुदाय की महिलाओं ने प्रदर्शन किया और मांग की कि राज्य में अनुच्छेद 355 नहीं बल्कि अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू किया जाये ताकि राज्य की बागडोर पूरी तरह केन्द्र सरकार के हाथ में रहे। वहीं  अंतरराष्ट्रिय स्तर के 13 खिलाड़ियों और पदक विजेताओं ने गृहमंत्री अमित शाह से जल्द से जल्द मणिपुर में शांति और सद्भाव बहाल करने व कुकी उग्रवादियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने की मांग की है। साथ ही उन्होंने कहा है कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो वे अपने पदक और पुरस्कार वापस कर देंगे। 

इनमें अर्जुन पुरस्कार विजेता कुंजुरानी देवी, पूर्व महिला फुटबाल टीम की कप्तान ओइनम बेम देवी, मुक्केबाज एल सरिता देवी, ध्यानचंद पुरस्कार विजेता अनीता चानू, ओलंपियन जुडोका लिकबामन, सुशीला देवी, ओलंपियन मीराबाई चानू सहित मुक्केबाजी में द्रोणाचार्य पुरस्कार विजेता इम्बोम्चा सिंह का कहना है कि कुकी आतंकवादी केन्द्रीय सुरक्षा बलों की राज्य में तैनाती के बावजूद मणिपुर की अखंडता को खुलेआम चुनौती दे रहे हैं,  वे लोगों की सरेआम हत्याएं कर रहे हैं और उनके घरों को जला रहे हैं।  इसलिए सरकार शीघ्र कार्यवाही करे ताकि वहां सांम्प्रदायिक सद्भाव व शांति स्थापित हो सके। गौरतलब यह है कि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह से इस दौरान कम से कम दस से ज्यादा कुकी व मैती समुदाय के प्रतिनिधियों ने भेंट की है और राज्य में शांति बहाली की अविलम्ब मांग और हिंसा की सीबीआई जांच की मांग की है ताकि हिंसक तत्वों की पहचान हो और उनपर उचित दंडात्मक कार्यवाही की जा सके। 

अब यदि राज्य के इतिहास और हालात पर नजर डालें तो पता चलता है कि मणिपुर और राज्यों से काफी कुछ अलग है। इस राज्य के चरित्र को यहां की जनजातियों ने ही जटिल और दुरूह बनाने में अहम भूमिका निबाही है। यहां रहने-बसने वाली जनजातियां में बहुतेरी उप जनजातियां हैं जिनमें हमेशा से तनाव और हिंसा का इतिहास रहा है। 1997 में कुकी और उसकी उप जनजाति पाइटी का संघर्ष जगजाहिर है। यहां म्यानमार से भागकर आये चिन नामक लोगों की बहुतायत है। इनकी तादाद कुकी इलाकों में सबसे ज्यादा है। इनमें आपस मेंं सम्बन्ध भी हैं। देखा जाये तो चूराचांदपुर इलाके की आबादी पहले मात्र 60 हजार थी जो अब तकरीबन 6 लाख हो गयी है। 

इससे मैती समुदाय असुरक्षित महसूस करने लगा है। जातीय संघर्ष के पीछे यही अहम वजह है। ऐसे हालात को अलगाववादी उग्रवादी गुटों ने खूब भुनाया। इनमें चीन की भूमिका अहम रही। उससे उनको न केवल हथियारों का प्रशिक्षण मिला बल्कि आधुनिक हथियारों से इनको लैस भी किया गया। फिर इन सबके बीच संघर्ष कोई नया नहीं है। लगभग डेढ़-एक दशक पहले को लें तब वहां शाम के चार बजे ही कर्फ्यू लग जाया करता था। न ठहरने का कोई अच्छा होटल था, और वहां आवागमन व सुरक्षित परिवहन तो कल्पना से परे था। पर्यटक तो नाममात्र के दिखते थे। कारोबार था नहीं। नौजवान शिक्षा हासिल करने दिल्ली -बंगलुरू जाते थे। 

लेकिन बीते कुछेक सालों की यहां की प्रगति क़ाबिले तारीफ़ है। अब यहां आवागमन सुगम हुआ है, सड़कें हैं, परिवहन सुविधा है, कुछेक होटल भी है और कुछ कारोबार भी शुरू हुए हैं। हां जो विकास हुआ, वह राजधानी इम्फाल के आसपास ही दिखाई देता था, सुदूर अंचल उससे अछूते थे।बीते बरसों में हालात बदले। नतीजतन मणिपुर को 'न्यू रिफार्म्स सेफ स्टेट' माना गया। लेकिन जनजातियों के बीच आपसी तनाव, प्रतिद्वन्दिता, प्रतिस्पर्धा और संघर्ष यथावत जारी रहा। हां इस बीच येनकेन प्रकारेण हथियारबंद गुटों ने अपनी ताकत बढा़यी जिनका उन्होंने न केवल इस बार प्रदर्शन किया बल्कि इस्तेमाल भी भरपूर किया।

असली समस्या यह है कि आजादी के बाद पहली बार पूर्वोत्तर की अनदेखी का सिलसिला मोदी सरकार के कार्यकाल में टूटा। हुआ यह कि 2017 में एक समझौता हुआ जिसके तहत मिजोरम में हिंदुओं के पुनर्वास का प्रावधान किया गया। मिजोरम में इसके तहत जो रियांग हिन्दुओं के साथ हुआ, ठीक वैसा ही मणिपुर में आज मैती समुदाय के साथ हो रहा है। इसके पीछे मणिपुर उच्च न्यायालय का वह फैसला है जिसके तहत मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा दिये जाने की मांग स्वीकार की गयी है। यह कुकी समुदाय के गले नहीं उतरा और उनके निशाने पर मोती जनजाति आ गयी। नतीजतन हिंसा भड़कीऔर उसने विकराल रूप अख्तियार कर लिया। नतीजन इस हिंसा के चलते तकरीबन 35 से 40 हजार लोग विस्थापन के शिकार हुए। 

संक्षेप में कहा जाये तो यहां मैती हिंदू समुदाय के साथ एक यह विसंगति भी है। वह यह कि हैं तो वह मणिपुर में बहुसंख्यक लेकिन वह केवल इंफाल घाटी में ही रहने को विवश हैं। उन पर राज्य के पर्वतीय अंचल में जमीन खरीदने और खेती करने पर कानूनन पाबंदी है। इन पहाड़ क्षेत्रों में कुकी जो ईसाई बन चुके हैं और नगाओं का वर्चस्व है। जबकि कुकी और नगा समुदाय के इंफाल घाटी में रहने-बसने पर कोई पाबंदी नहीं है। 

तात्पर्य यह कि मैती हिंदू जो आबादी के लिहाज से 53 फीसदी हैं ,राज्य के मात्र 8 फीसदी हिंदू अपने ही राज्य में शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर हैं। असलियत में उनकी स्थिति जम्मू कश्मीर में धारा 370 के खात्मे से पहले वहां रह रहे हिन्दुओं जैसी है। जाहिर है कि मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा मिलने के बाद भी उन्हें हकीकत में जनजाति का दर्जा नहीं मिला। इससे यह साफ जाहिर होता है कि हिंदू चाहे बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक, सारे बलिदान का ठेका उसी के कंधों पर है। इसमें चर्च की भी भूमिका को नकार नहीं सकते जो ईसाई एकता के नामवर अपनी रोटियां सेंकने में लगा है। 

इसलिए जरूरी है कि जैसा कि गृहमंत्री अमित शाह का कहना है कि मणिपुर की शांति हमारी प्राथमिकता है, तो सबसे पहले दोनों समुदायों के बीच फैसले अविश्वास के माहौल को खत्म किया जाये। सामुदायिक आधार पर बेटे राजनीतिक दरों के नेताओं से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह राज्य के विकास को मद्देनजर रखते हुए शांति स्थापना में सहयोग दें। 

राहत के फौरी इंतजाम काफी नहीं  हैं, जरूरी हैं, प्रभावित लोगों के साथ बातचीत और उन्हें सुरक्षा प्रदान करना, वा विस्थापितों का पुनर्वास  के साथ विद्रोहियों पर नियंत्रण तथा सुरक्षा फलों से लूटे गये हथियारों की वापसी बेहद जरूरी है। शांति स्थापना में स्थानीय लोगों की सहभागिता और उनके सकारात्मक योगदान की सराहना के साथ शांति की राज्य के गांव-गांव तक स्थापना के प्रयास ही सुखद परिणाम के कारक हो सकते हैं।इस सबके बीच इस हिंसा के दौरान सुरक्षा बलों का धैर्य प्रशंसनीय है। इसकी जितनी प्रशंसा की जाये वह कम है।