लेखक : राम भरोस मीणा
लेखक पर्यावरणविद् व समाज विज्ञानी हैं।
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सामाजिक व्यवस्थाओं-परम्पराओं को विकास से दूर रखने के साथ रुढियां मानना व्यक्ति की सबसे बड़ी भूल है। बिगड़ते हालातों में उन सभी व्यवस्थाओं, मान्यताओं, परम्पराओं को पुनः विकसित करने की आवश्यकता है जिनसे मानवीय विकास के साथ प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में सक्षमता हासिल हो सकें। यह कार्य मानव समाज ही कर सकने में सक्षम है, सरकारें कदापि नहीं। समाज की व्यवस्थाओं, आवश्यकताओं, उपयोग के सामाजिक नियमों में उन सभी पदार्थों, वस्तुओं, प्राकृतिक संसाधनों (नदी, नालों, बीहड़ों, जंगलों,पठारों, पहाड़ों, मैदानों) के उपयोग को लेकर सम्पूर्ण मानव समाज चिंतित था, उन्हें उन सभी की आवश्यकता भी थी।
यदि पिछले 7 दशकों में मानवीय विकास पर नजर दौडा़एं तो पाते हैं कि मानवीय विकास अपने चरम पर पहुंचने में कामयाबी हासिल की लेकिन उससे कहीं सैकड़ों गुणा अधिक हमने अपनी प्राकृतिक सम्पत्तियां को सदा सदा के लिए खो दिया। उनके विनाश से ना केवल प्रकृति पर दुष्प्रभाव पड़ा बल्कि मानव ही नहीं सभी जीवों -जंतुओं को भी इस मानव निर्मित विकास का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। बढ़ते शहरीकरण ने उन सभी मर्यादाओं, मान्यताओं, परम्पराओं को त्यागा ही नहीं बल्कि पूर्ण रुप से अनदेखा कर कंक्रीट की गगनचुम्बी इमारतें बनाईं, शहरीकरण को बढ़ावा दिया, पहाड़ों को सुविधा के नाम पर चीरा, नदियों को अवरोधित किया, सड़कों व रेल लाइनों का जाल बिछाया तथा धुआं उगलने वाले अनगिनत कारखाने स्थापित किये।बदलें में हमें क्या मिला।
इसका भी जायजा लिया जाये। इसके दुष्परिणाम स्वरूप हमारी संस्कृति, परमपराएं, हमारे नियम-कानून, हमारा प्रकृति से लगाव, नदियों, पहाड़ों, पेड़ -पौधों, वन्य जीवों, कृषि भूमि के प्रति बनीं आस्थाओं,रहन सहन के परम्परागत तरीके, कुटीर उद्योगों, प्राकृतिक स्वच्छता और सुन्दरता को छिन्न -भिन्न कर एक अजीब सा इन्सान बना दिया जो आज के दौर में कहने को तो स्वयं मजबूत है लेकिन हकीकत में वह कमजोर ही है। केवल सरकारी घोषणाओं के चक्कर में या गुणवत्ता पूर्ण रोजगारोन्मुखी व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त नहीं होने के चलते। यही सबसे बड़ी विडम्बना है।
गांधी, नेहरू, अम्बेडकर ने तो यह अनेकों बार कहां कि हम सभी विकास प्राकृतिक संसाधनों एवं मानवीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए करें जिससे पारिस्थितिकी तंत्र हमारे अनुकूल बना रहे। श्री कृष्ण ने भी पेड़- पौधों, पहाड़ों ,नदियों की रक्षा के लिए अपने उपदेशों में कहां था कि इनके साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। यदि की गयी तो ये हमें माफ़ नहीं करेंगे।
साधु -संत, कवि- लेखक, समाज सुधारक, प्रकृति प्रेमियों ने हमेशा प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के संरक्षण के साथ उनकी रक्षा की बात कही है जो कटु सत्य भी है। हमें इनकी रक्षा करनी भी चाहिए। यह हमारा दायित्व भी है। लेकिन आज यका यक जो बदलाव प्रकृति में दिखाई दे रहें हैं वो क्या हैं? क्यों हैं? उसके समझना अति आवश्यक है। राजस्थान में जोहड़ की संस्कृति देश की नहीं विश्व की सबसे बड़ी संस्कृति रहीं है जो जल -व्यवस्था को पूरे वर्ष बनाए रखने में सक्षम थी। नाड़ियों का निर्माण, जल स्रोतों की स्वच्छता, नदियों की मान्यता सब व्यक्ति के व्यक्तित्व को दर्शाने के साथ परम्पराओं, मान्यताओं, सामाजिक व्यवस्थाओं में शामिल रहीं।
लेकिन तथाकथित हरित क्रांति कहें जिसके चलते भूजल के पाताल की ओर जाने का सिलसिला शुरू हुआ और नतीजतन मानवीय स्वार्थ के चलते अंधाधुंध दोहन का निर्बाध चक्र चला या यों कहें कि 1965 के बाद विकासवादी सोच ने महज़ 7 दशकों में ही हमारी सदियों से जारी 85 प्रतिशत सामाजिक व्यवस्थाओं को तबाह कर दिया। देव बनीं, गौरवें, अरण्य, रूंध, बिहड़, नाड़ियां 95 प्रतिशत खत्म हो गईं। देश की वे सभी छोटी नदियां जो भूगर्भिक जल संग्रह के साथ जलीय जीवों के आश्रय स्थल थी, 60 प्रतिशत अतिक्रमण की बलि चढ़ गईं। प्राकृतिक वातावरण 60 प्रतिशत से अधिक दूषित हो गया जो वर्तमान में किसी भी प्राणी के अनुकूल नहीं है। इन सभी का श्रेय वर्तमान विकास व सरकारी नियमों-कानूनों में हुए संशोधनों का परिणाम है, जिसका खामियाजा आम जन के साथ जीव जंतुओं को भी भुगतना पड़ रहा है।
आज देश में त्राहि-त्राहि मची है। बिपरजाॅए को एक तरफ़ प्राकृतिक आपदा कहें तो दूसरी तरफ़ बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग का दुष्परिणाम जो भी हो, लेकिन पिछले डेढ़ दशक में जो प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला देश में बढा, वह चाहे ग्लेशियरों के पिघलने का सिलसिला हो, बादलों के फटने का हो, धरती के धंसने से हिमालयन क्षेत्र के खंड खंड होने का हो, केरला, तमिलनाडू, कर्नाटक, गुजरात, आसाम, बिहार या पश्चिम राजस्थान में बदलते बादलों के रुख़ का हो जिसके लिए कहीं ना कहीं प्रकृति के साथ साथ मानव स्वयं इसका जिम्मेदार है और प्राकृतिक संसाधनों के साथ बड़े स्तर पर अत्याचार का परिणाम भी। नदियों नालों को पाट कर बनाए गये शहरों में बने बाढ़ के हालात के लिए भी मानव स्वयं जिम्मेदार हैं।
आज जरूरी यह है कि हम उन सभी भौगोलिक धरातलीय संरचनाओं का अध्ययन करें जिन्हें अनदेखा करने से आगामी समय में प्राकृतिक आपदाएं भयावह रूप ले सकती हैं, लेकिन ऐसा नहीं होता है। यही विसंगति है। अवैध तरीके से हो रहा विकास विनाश की ओर बढाता है जिससे सभी प्रकार की समस्याएं पैदा होती हैं।आज व्यक्ति समाज व सरकार को चाहिए कि वह उस विकास को विकास मानकर आगे ना बढ़े जो विनाश को न्योता दे। हमें वही कार्य करने चाहिए जिनसे हमारे साथ -साथ अन्य सभी जीव सुखमय जीवन जी सकें, आनन्द से रह सकें, विपरीत परिस्थितियों में एक दूसरे का साथ दे सकें और वह तभी सम्भव हो सकता है, जब हम प्रकृति के साथ मिलकर, प्राकृतिक संसाधनों का ख्याल रखते हुए विकास की ओर आगे बढ़ें। इसमें प्रत्येक व्यक्ति, समाज, संगठन, सरकारी व ग़ैर सरकारी संस्थानों को मिलकर बढ़- चढ़ कर हिस्सा लेना होगा तथा अपने निजी स्वार्थ को त्याग कर प्रकृति के संरक्षण के कार्य करने होंगे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)