लेखक : डॉ.सत्यनारायण सिंह
लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है
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भारतीय राजनीतिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी व स्वतंत्रता के पश्चात देश के संविधान के निर्माता राष्ट्र निर्माताओं ने लोकतंत्र की स्थापना की और आज भी अपनी ताकत और असर के साथ मौजूद हैं। यह उन राष्ट्र निर्माताओं के विचारों की ताकत है कि उनके योगदान की अनदेखी करने या गलत ढंग से पेश करने की तमाम नापाक कोशिशों के बावजूद समानता व समता की विचारधारा देश के कोने-कोने में अपनी धार को बरकरार रखे हुए है। विचारधारा का यह उद्धोष सिर्फ दलित पिछड़ा मुक्ति और दलित पिछड़ा सशक्तिकरण का ही पर्याय नहीं बल्कि वंचितों तथा हाशिये पर ढकेले गए लोगों के संघर्ष और संविधान की रक्षा के लिए लामबंद रखे हुए है।
गाँधी व आंबेडकर की विचारधारा की मजबूती और प्रासंगिकता को इस बात से समझा जा सकता है कि जिस विचारधारा ने गाँधी व आंबेडकर के होते उनका कभी समर्थन नहीं किया, कट्टर विरोध किया, उसे आज जब अधिकारों, लोकतंत्र, समानता, संविधान की बात करनी पड़ती है तो उनके नाम लेना पड़ता है। चुनावों से लेकर सामाजिक परिवर्तन के तमाम आंदोलनों में गाँधी व आंबेडकर की चर्चा अवश्यंभावी हो गई है। मार्के की बात यह है कि गाँधी व आंबेडकर की यह स्थिति उनके अपने योगदान की वजह से कायम है वरना उन्हें हाशिये पर डालने की हर संभव कोशिश उनके जीते-जी ही शुरू हो गई थी। आज भी खतरा उन्हीं ताकतों से है, जो समाज में यथास्थितिवाद, मनुवाद या जातिगत देश को कायम रखना चाहते हैं।
राष्ट्र निर्माताओं ने समाज में जाति और लिंग आधारित भेदभाव की गहरी जड़ों का पर्दाफाश किया। उन्होंने न सिर्फ समाज की इस नग्न सच्चाई को बेबाकी और साहस के साथ सामने रखा, बल्कि इससे मुक्ति की राह भी दिखाई। वे आधुनिक दार्शनिक व क्रांतकारी विचारों से लेस मशाल के तौर पर आज भी जिंदा हैं। पं. जवाहर लाल नेहरू के व्यक्तित्व व कृतित्व से जनतंत्र मजबूत हुआ। सामाजिक शैक्षणिक, आर्थिक बदलाव की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई।
भारतीय समाज का निर्माण ही जाति के आधार पर हुआ है। हमारे समाज में जाति व्यवस्था भेदभाव को गहरी जड़ें मुहैया कराता है। आज भी हमारे करोड़ो गाँव जाति के आधार पर बटे हुए हैं। शहर भी जाति के दंश से कतई अछूते नहीं हैं। जाति की गंदगी हमारे दिमागों में घुस गई है। जाति का सबसे विद्रुप और अमानवीय चेहरा मैला ढोने की प्रथा के रूप में आज भी भारतीय समाज में मौजूद है। इस कुप्रथा से भारतीय समाज को जरा भी परेशानी नहीं होती। हमारे आज के नीति-निर्माताओं को इस बात से कोई तकलीफ नहीं होती कि वे हजारों भारतीय नागरिकों की सीवर और सेप्टिक टैंक में मौत के मुंह में धकेल चुके हैं।
इस कुप्रथा के चालू रहने से हमारी संस्कृति और भारतीय राष्ट्रीयता की धज्जियां नहीं उड़ती? अगर वंचित तबके का कोई व्यक्ति ऐसा नहीं करे तो हमारी नीति उसे सजा देने की रही है। उस समय एक कानून था कि अगर सफाई कामगार एक दिन मैला न साफ करे तो उसे जुर्माना देना पड़ता था। भारतीय इतिहास में इसका विरोध करने का साहस सिर्फ गाँधी व आंबेडकर ने दिखाया यह नाइंसाफी तो खत्म हो गई है परन्तु विकास के ढेरों नारों से घिरा हुआ हमारा देश कब मैला मुक्त होगा, यह किसी की चिंता का सबब नहीं है।
हमारे नेतोओं की छाती इस बात पर जरूर फूलती रहती है कि देश के पास अग्नी 6 जैसी मिसाइलें हैं जो 10 हजार किलो मीटर दूर बैठे शत्रु को घ्वंस कर सकती है लेकिन, इस बात पर उन्हें कोई शर्म नहीं आती है कि 5-10 फीट नीचे बनी सीवर-सेप्टिक लाइनों को साफ करने के लिए कोई तकनीक देश के पास नहीं है। मीथैन गैस से भरे इन गैस चैंबरों (सीवर सेप्टिक टैंक) में अब तक हजारों दलित मारे जा चुके हैं। इन मौतों को हमारा समाज देखने तक को तैयार नहीं है, रोकने की बात तो बहुत दूर की है वजह जाति के दोष से ग्रसित हमारी नजर कोई भी मानवीय पहलू को देखने में सक्षम नहीं रह गई है।
आज देश में हर तरफ नकली राष्ट्रवाद की हिंसक ध्वनियां सुनाई दे रही हैं। देश को एक ही रंग में रंगने, एक ही तरह की सोच रहन-सहन, खान-पान में ढ़ालने की साजिशें जोरों पर हैं। इन्हें सरकारी समर्थन मिला हुआ है। हमारे समाज में एक जानवर की खातिर इंसान को मारना जायज ठहराया जा रहा है। दलितों को जाति आधारित कामकाज करने पर मजबूर किया जा रहा है, जिसका प्रतिकार हमें मैला ढोने वाली महिलाओं द्वारा टोकरियों को जलाने और गुजरात के ऊना में दलितों द्वारा मरे जानवरों को उठाने से इनकार करने में दिखाई दिया।
विडंबना यह है कि आज जब हम गाँधी व आंबेडकर को याद कर रहे हैं तब उनके द्वारा बनाया गया संविधान और उस पर आधारित हमारा लोकतंत्र गहरे संकट में है। अ-सवैधानिक (एक्सट्रा) और गैर-संवैधानिक ताकतों को राजनीतिक वरदहस्त प्राप्त है। साधु हो या योगी या मुख्यमंत्री सब खुले आम विरोधियों और उनके विचारों का समर्थन न करने वाले लोगों का सिर काटने की बात कर रहे हैं। जबकि ऐसी धमकी देना आई.पी.सी. के तहत दंडनीय अपराध है, लेकिन अभी तक किसी को सजा नहीं हुई। तार्किकता और अंधविश्वास के खिलाफ मुहिम चलाने वालों पर हमले तेज हुए हैं।
यह गाँधी व आंबेडकर के सपनों का भारत नहीं है। गाँधी व आंबेडकर आजीवन तमाम गैर-बराबरी के खात्मे के लिए संघर्षशील रहे। जाति के खात्मे और गैर -बराबरी से मुक्ति के लिए हमें अब हमारे राष्ट्र निर्माताओं का चश्मा चाहिए। स्त्री मुक्ति के भी वे अगुआ थे। उनका यह वक्तव्य हमारे लिए हमेशा समाज को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करता रहेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)