कविता : ये कैसी आज़ादी, ये कैसे सपने हैं....

कविता 

लेखक : तिलकराज सक्सेना

जयपुर।

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ये कैसी आज़ादी, ये कैसे सपने हैं,

कहने को तो यहाँ सब अपने हैं,

पर गलत बात पर हक़ से टोक दिया,

तो आप गैर, और वो अपने-अपने हैं,

ये कैसी आज़ादी, ये कैसे सपने हैं।

कहने को आप बड़े और वो छोटे हैं,

पर आप ख़ामोशी से सब देखते रहो,

तब तक आपकी इज़्ज़त है वरना,

आप कौन टाँग अड़ाने वाले,

हम नवयुग के आज़ाद परिन्दे,

हमारे निर्णय भी हमारे अपने हैं,

ये कैसी आज़ादी, ये कैसे सपने हैं।

तन-मन से सींचा पीड़ा सहकर भी उपवन,

उस माली की फिक्र किसे पड़ी,

सारा उपवन, बाग-बगीचे सब अपने हैं,

खिलते फूल, रस टपकाते फल सब अपने हैं,

ये कैसी आज़ादी ये कैसे सपने हैं।