लेखक : तिलकराज सक्सेना
जयपुर।
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वो कितना खुद गर्ज़ निकला,
कहा करता था मैं सदा हुँ तुम्हारा,
हीरे सा दीखता था पत्थर का निकला,
बिकने की खुद की कीमत भी,
इतनी कम लगाई,
तब उसकी औक़ात नज़र आई,
कहता था अनमोल हूँ मैं,
पर पता चला,
सत्रह हज़ार में अपनी मुहब्बत,
और एक अदद बीयर में ख़ुद बेच आया,
वो तो बड़ा सस्ता निकला,
दीखता था हीरे जैसा पर पत्थर का निकला।