कर्नाटका में कांग्रेस का आना और कमल का मुरझाना
लेखक : लोकपाल सेठी

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक 

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दक्षिण के कर्नाटक राज्य में लगभग दो दशक पूर्व पहली बार विधान सभा के चुनावों बीजेपी को इतनी सीटें आई थीं कि उसने राज्य के एक क्षेत्रीय दल जनता  दल (स) के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। उस समय तक यह पार्टी और इसका पूर्व रूप जनसंघ केवल उत्तर  भारत के राज्यों तक ही सीमित थी। इसलिए  जब यहाँ सरकार बनी तो पार्टी के नेताओं ने कहा कि दक्षिण में कमल खिल गया है। इन नेतओं यह भी कहा कि वह दिन दूर नहीं जब दक्षिण के अन्य राज्यों में भी शीघ्र ही कमल खिलना शुरू हो जायेगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। दक्षिण में यह दल केवल कर्नाटक तक ही सीमित रहा। इसकी ताकत यहाँ घटती बढ़ती रही। एक समय ऐसा भी आया जब इसने राज्यों में अपने ही बलबूते पर सरकार बनाई। इस दौर में इसके सबसे बड़े नेता येद्दयुरप्पा थे जिनके नेतृत्व में राज्य में बीजेपी की सरकार राज्य में चार बनी। वे लिगायत समाज, जो यहाँ राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से सबसे प्रभावी समुदाय है, से आते है तथा  राज्य की राजनीति में उनका कद बड़ा रहा है। 

हाल के विधान सभा चुनावों में पहला मौका था कि बीजेपी की चुनावी कमान उनके हाथ में नहीं थी। लगभग दो वर्ष पूर्व बीजेपी नेतृत्व ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया। तभी से कहा जाने लगा था कि बीजेपी का ग्राफ अब ढलान की ओर जायेगा। हालांकि बोम्मई भी लिगायत समाज से आते है लेकिन समुदाय में उनका दर्ज़ा उतना ऊँचा दर्ज़ा नहीं है जितना येद्दियुरप्पा का है। पद से हटते वक्त येद्दियुरप्पा ने कहा था कि वे अब  चुनाव नहीं लड़ेंगे लेकिन राजनीति में सक्रिय रह कर पहले की भांति काम करते रहेंगे। वे पार्टी के लिए काम करते रहे, इसलिए पार्टी ने उन्हें संसदीय बोर्ड का सदस्य बना दिया। राज्य में बीजेपी की ओर से पहला ऐसा मौका था जब चुनाव बिना उनके नेतृत्व के लड़ा गया। राज्य में बीजेपी की अन्य कारणों  सहित हार का एक बड़ा कारण यह भी था कि वे सीधे तौर पर चुनाव की रणनीति जुड़े हुए नहीं थे। 

हालाँकि बोम्मई की छवि एक साफ नेता की है लेकिन प्रशासन और पार्टी पर उनकी वह पकड़ नहीं थी जो येद्दियुरप्पा की थी। पिछले दो सालों में एक के बाद एक  भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आये जिससे सरकार की छवि पर दाग लग गए। इसके बावजूद पार्टी के नेताओं को भरोसा था कि प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के तिलस्म से राज्य में पार्टी को जितवाने में सफल रहेंगे। लेकिन राज्य में पार्टी की सरकार के खिलाफ हवा इंतनी बिगड़ चुकी थी कि मोदी भी राज्य में उनकी नैया पार नहीं लगा सके। 

कांग्रेस ने भ्रष्टाचार को ही चुनावी मुद्दा बनाया जिसके सामने बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग धरी की धरी रह गई। चुनावों की घोषणा से कुछ दिन पूर्व ही  बीजेपी सरकार ने राज्य के दो बड़े और प्रभावी समुदायों, लिंगायत और वोक्कालिंगा, को खुश करने के लिए आरक्षण में उनके प्रतिनिधित्व को 2-2 प्रतिशत  बढ़ा दिया। इस आरक्षण को बढाने से मुस्लिम समुदाय के 4 प्रतिशत आरक्षण को किसी अन्य श्रेणी में डाल दिया गया। पर इससे न तो बीजेपी के लिंगायत और न ही वोक्कालिंगा समुदाय के मतों में इजाफा हुआ। दूसरी और मुस्लिम समुदाय ने खुल कर कांग्रेस का साथ दिया। कांग्रेस ने वायदा किया था कि अगर वह सत्ता में आई तो बीजेपी सरकार के इस कदम को वापिस ले लेगी। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी ने रेवड़ियाँ बाँटने के वायदे में भी कमी नहीं रखी। इसने पांच  बड़ी गारंटियां मतदाताओं को दी जिनमें 200 यूनिट मुफ्त बिजली भी शामिल हैं। 

इसमें कोई शक नहीं कि लगभग चार वर्ष पूर्व राज्य पार्टी का अध्यक्ष बनाये जाने के बाद डी. के. शिवकुमार ने पार्टी संगठन को मजबूत बनाने में कोई कमी नहीं रखी। पार्टी में गुटबंदी काफी हद तक घटी। पार्टी संगठन ने चुनावी तैयारियां बहुत पहले से ही शुरू कर दी थी। ऐसा पहली बार हुआ कि पार्टी ने कुल 224 सीटों में 160 सीटों के उम्मीदवार नाम चुनाव की तिथियाँ घोषित होने से पूर्व ही कर दिए। इसका श्रेय काफी हद तक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे को भी जाता है जो खुद कर्नाटक से आते हैं तथा लम्बे समय से राज्य की राजनीति में रहे है। 

चूँकि इस चुनाव को जितवाने का बड़ा श्रेय शिवकुमार को जाता है इसलिए उन्हें भरोसा था कि जीत के बाद राज्य की सरकार के कमान उन्हें ही सौंपी जायेगी।  लेकिन पार्टी ने सिद्धारामिया को इस पद के लिए चुना। वे 2013 से 2015 तक राज्य में कांग्रेस शासनकाल में मुख्यमंत्री रहे है। बीजेपी शासनकल में वे विपक्ष के नेता भी थे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)