बाजारवाद का शिकार होता मीडिया : डा. सत्यनारायण सिंह
लेखक: डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं 

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स्वतंत्रता आंदोलन के समय हमारे देश में हिन्दी, अंग्रेजी और प्रान्तीय भाषाओं के अखबार नहीं होते तो क्या अहिंसक लड़ाई शान पर चढ़ सकती थी, हासिल आजादी के बाद क्या प्रगतिशील देश का निर्माण, तुरन्त गति से मूर्तिमान होने लगता? 

वर्तमान में जब जनप्रतिनिधि, राजनैतिक दलों व नौकरशाही का राष्ट्रीय चरित्र गिर रहा है, लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को लगातार जिम्मेदार, उत्तरदायित्वपूर्ण, निष्पक्ष व क्रान्तिकारी तेवरों की अधिक आवश्यकता है। मीडिया निष्पक्ष व ईमानदारी से सरकार के विरूद्ध आवाज बुलन्द कर, जनतंत्र की दिनोंदिन बढ़ती जा रही मुश्किलों की आवाज बुलन्द कर, सरकारों व जनप्रतिनिधियों को नींद से जगाने के लिए आगे आकर वर्तमान प्रदूषण की हवाओं को साफ कर सकता है। क्या यह आशा कारपोरेट जगत के तथा खरीदे हुए बिकाऊ चौथे स्तम्भ से नहीं की जा सकती? विज्ञापन के माध्यम से ‘‘हर जड़ जंगम’’ एक बिकाऊ कमोडिटी बन गया है। कोई लेखक, कोई अखबार क्या इस कमोडिटी बाजार में एक बिकाऊ जिंस से अधिक नहीं रह गया है? 

चौथे स्तम्भ को देश हित में निष्पक्षता, ईमानदारी, सच्चाई के साथ सच को सच, झूंठ को झूंठ कहना होगा। सत्ता, सुविधा, प्रलोभनों से ऊपर उठकर अपनी आवाज बुलंद करते रहना होगा। आम जनता का लोकतांत्रिक प्रणाली से विश्वास नहीं डिगे इसका ध्यान रखना होगा। जनता के दुःख दर्द की कहानी व वास्तविकता को कहने, सुनने और लिखने वाली कलम पर बड़ा दायित्व है। भ्रष्आचार का प्रभाव बिल्कुल विपरीत भी पड़ता है। अस्तित्व को समाप्त कर देता है, इतिहास इसका गवाह है। नेताओं व राजकाज की झूंठी तारीफों से अन्ततोगत्वा ग्लानि व हिंसात्मक बदलाव होता है। ऐसी रचनाएं नैतिकताविहीन नीतियों व कदमों का कुप्रशासन व कुप्रबन्धन के विरूद्ध उद्घोष बन जाती है। 

क्या लेखक व पत्रकार के स्वभाव में यदि वफादारी, ईमानदारी नहीं, भ्रष्टाचार के साथ समझौता करने, पक्षपात करने में उनकी आत्मा नहीं कचोटती? हमारी आज की प्रशासनिक व्यवस्था में न स्थायित्व है और न उत्तरदायित्व। पार्टी विद डिफरेंस ने भी जब शत प्रतिशत निजता खो दी हो। जहां से पंडित नेहरू, इन्दिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, राजीव गांधी जैसे लोगों ने प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित किया हो। उस देश में अराजकता, ईर्ष्या, असत्य, अहंकार और विद्वेष का नग्न प्रदर्शन हो रहा हो और हमारा चौथा स्तम्भ अपनी मर्यादा, अपना कर्तव्य भूलकर, सच्चाई और ईमानदारी को भूलकर डर अथवा धन लोलुपता के वशीभूत ताली व घण्टी बजाये, तब उसे स्वतंत्र निष्पक्ष व जिम्मेदार करार नहीं किया जा सकता। चौथा स्तम्भ हित रहा है, वह गिर जायेगा। उचित कहा जा रहा है ‘‘षडयंत्रों की साधना, बदमाशों का साथ, लोकतंत्र की भैंस है, चौथे स्तम्भ के हाथ’’। लेखक बिक जाता है तो छवि तो दरकती ही है, जन विश्वास भी टूट जाता है। 

आज सूचना का अधिकार गौण हो गया है। बाजारवाद की आंधी ने भारतीय मीडिया को सिद्धान्तों से दूर कर दिया है। वरिष्ठ पत्रकार एस.गुरूमूर्ति के अनुसार ‘‘आत्मा ही बेच डाली मीडिया ने तो’’, केवल कुछ मीडिया व उसके संचालक उच्च नैतिक मूल्यों के साथ खड़े है। उदारीकरण के साथ परिस्थितियां बहक गई। ‘‘आय का साधन कैसा भी हो, किसी भी कीमत पर अच्छा जीवन जीना है’’, मीडिया भी इस सिद्धान्त पर चल पड़ा है। अखबार को विज्ञापन से होने वाले राजस्व में कई गुना बढ़ोतरी हुई। समृद्धि में बेतहाशा वृद्धि ने आदर्शवाद व नैतिक मूल्यों को खो दिया। आसानी से पैसा कमाने की लत ने अखबारों को भ्रष्ट बना दिया और दूसरों को भी प्रेरित किया। ‘‘डवलपमेन्ट न्यूज’’: वस्तुतः सिमट गई, निगेटिव न्यूजों का प्रचलन बढ़ गया। पांच सितारा पत्रकार आधुनिक माने जाने लगे। आज बुनियादी सिद्धान्तों पर चल रहे अखबारों को अंगुलियों पर गिना जा सकता है। खबरें तो विज्ञापन के बीच भराव का काम करती है। विज्ञापन प्रबंधन, खबर व विचार के लिए नियम तय करते है। पेड न्यूज आज भ्रष्ट मीडिया की पहचान है। अखबारों में समाज व बिक्री विभाग के बीच की दीवार गिर चुकी हे, परिशिष्टों में मशहूल हस्तियां विज्ञापनदाताओं से पैसा लेती हैं। एडीटोरियल लिखवाने के लिए मशहूर हस्तियों को विज्ञापनदाताओं से पैसा मिलता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रेस ही लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है, चैनल्स की होड़ ब्रेकिंग न्यूज की है। 

भारतीय संविधान में यूं तो मूल अधिकारों में अभिव्यक्ति की आजाती के अधिकार की सुनिश्चितता है, परन्तु अनेक कानून व अधिकार संविधान की मूल भावना के अनुसार नहीं हैं परन्तु सृजनधर्मी लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ताओं और सांस्कृतिक जन, सत्तासीन लोगों की रीति-नीति तथा इतर गतिविधियों के गुण-दोषों का सधा बेबाक विश्लेषण प्रस्तुत कर जनता-जनार्दन को अपनी ताकत की पहचान कराने में लगातार मददगार सिद्ध हो सकते है। 

सत्ताधारी, जनता बनाम सत्ता, नतीजे के बाद अपनी कुर्सी बचाने के लिए जोड़-तोड़ के हथकण्डे अपनाकर येन-केन प्रकारेण बने रहने के लिए अपनी सुख-सुविधा और धनोपार्जन के बहुविध उपायों से जी-जान से जुट जाते हैं। समाज व राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में व्यक्तिगत स्तर पर शरीक होकर अराजक तत्वों के बल पर सरकार व सत्ता पर दबदबा कायम रखने में कामयाब रहते हैं। आज जो व्यावहारिक सच्चाई सामने है, उससे स्पष्ट है सत्ता और सुविधा के प्रलोभनों से लगातार पनपती जा रही उपभोक्तावादी दुष्प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष करते हुए चौथे स्तम्भ को लगातार अपनी आवाज बुलन्द करते रहना होगा। 

लेखक दूसरी सरकार होता है, लेखक का बेसहारा, मजलूम, दरिद्र व अधिसंख्य आमजन के दुःख-दर्द से रिश्ता-नाता है, आज की तकलीफों और वेदनाओं को मुख्यकर उनको मिटाने का कारगर रास्ता निकालने की कोशिश करता है। लेखक की आजाद वाणी सत्ता प्रतिष्ठानों के लिए स्वभाविक चुनौती बन जाती है। लेखक ने तीन मुख्यमंत्रियों के समय सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के निदेशक के रूप में पत्रकार जगत् की प्रायः सभी राष्ट्रीय प्रविभूतियों से मिलकर बहुत कुछ सीखा। महान पत्रकार जो केवल सच लिखते थे, सच्चाई जानकर अपनी सशक्त लेखनी से सकारात्मक आलेख लिखकर स्वयं अपनी भूल स्वीकार करते थे। पत्रकार जगत् की सभी विभूतियों ने मुझे सिखाया, सीधी व सही बात कहो-पब्लिसिटी के लिए वे आगे आएंगे। गलत खबर की जानकारी मिलने पर छपे हुए पूरे अखबार को जलाते हुए भी मैंने देखा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)