प्रकृति का ऋण कैसे उतारें?

लेखिका : रश्मि अग्रवाल

नजीबाबाद

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‘रामायण’ की कथा में भगवान श्रीराम का चौदह वर्षों का वनवास काल इस कथानक का वह प्रमुख भाग है, जिसमें सभी निर्णायक घटनाएँ हुई हैं। राक्षसों का विनाश या वध ही नहीं, जगत जननी सीता के हरण से लेकर, भगवान के मर्मस्पर्शी विलाप, अतुलनीय भक्त हनुमान से प्रथम मिलन और वानरी सेना के गठन तक। ज्योतिष शास्त्र में रत्नों के प्रभावशाली विकल्प के रूप में वनस्पतियों को रखा गया, पेड़-पौधों को रत्नों के समतुल्य बताया गया। 

जो वस्तुतः यही भाव-बोध जगाता कि प्रकृति का क्या स्थान है? धर्म से जोड़कर विकसित की गई ऐसी धारणाएँ, प्रकृति की सुरक्षा या उसके संरक्षण हेतु बनाई गई हैं? यह सारा उपक्रम इसलिए भी किया गया, ताकि प्रकृति के साथ मनुष्य का अस्तित्व, आत्मिक लगाव और इस रूप में उनका संरक्षण सुनिश्चित किया जा सके। प्रश्न उठता कि पर्यावरण के संरक्षण में रत, इस संस्कृति का संवाहक होते हुए भी हम, पर्यावरण के प्रति कितने सचेत हैं? 

क्या हम अपने आध्यात्मिक नीति-निर्माताओं की उदत्त भावनाओं को सिर्फ पूजा या कर्मकाण्ड तक सीमित समझते हैं? हमें ये सोचना होगा कि प्रकृति ने हमें जितना दिया है, हम उसका ऋण नहीं उतार सकते लेकिन उसका रख-रखाव कर सकते हैं क्योंकि मानव एक बुद्धिजीवी प्राणी है। इसलिए उसका कर्तव्य बनता है कि वो स्वयं के, समाज के व राष्ट्र के हित के लिए वही करे, जिसके कारण ईश्वर द्वारा निर्मित रचना में व्यवधान उत्पन्न न हो और उसकी सुंदरता में दाग न लगे। (लेखिका का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)