आज के वक़्त में पं. नेहरू को तथ्यों से समझने की जरूरत : डॉ. सत्यनारायण सिंह

पुण्यतिथि पर विशेष

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह 

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है 

www.daylife.page

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का नाम यू तो देश का बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन उनका काम बड़े स्तर पर या तो देशवासी जानते नहीं है या फिर भ्रामक प्रचार और प्रोपैगंडा के शिकार है। भारतीय सियासत में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले इस व्यक्तित्व के खिलाफ आज दुष्प्रचार अपने चरम पर है। न्यूज चैनलों, टीवी में होने वाली बहसों और आज के राजनेताओं के भाषणों में अमूमन उनका नाम उछाला जाता है। देश की सारी समस्याओं के लिए उन्हें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार ठहराया जाता है। 

जवाहर लाल नेहरू की पुन्यतिथि पर जरूरी है कि इतिहास के पन्ने पलटकर भारतीय लोकतंत्र की नींव रखने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री के विचारों की पुनः जानकारी कराई जाए। भारत के भविष्य को लेकर उनकी दृष्टि, उनके डर, उनकी आशाएं और आशंकाओं को करीब से समझने का प्रयास किया जाए।  

कैब्रिज यूनिवर्सिटी, ब्रिटेन से वकालत पढ़कर अगस्त, 1992 में भारत लौटे नेहरू ने अपनी पूरी संपत्ती, ऐशो आराम को छोड़कर, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन की अगुवाई करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ना तय किया। उनके पिता मोतीलाल नेहरू और मोहनदास करमचंद गांधी के करीबी रिश्तों के चलते जवाहर लाल को गांधी का साथ और सानिघ्य मिला। उन्होंने गांधी को अपने गुरू के रूप में स्वीकार किया। लोकतांत्रिक समाजवाद में विश्वास रखने वाले नेहरू के विचार स्पष्ट थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी के चलते नेहरू को नौ बार जेल भेजा गया और उन्होंने अपने जीवन के 3259 दिन (लगभग 9 साल) जेल में बिताए।

जवाहर लाल नेहरू एक ऐसे नेता और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ के रूप में उभरे जिन्होंने बतौर भारत के पहले प्रधानमंत्री, इस देश को एक संप्रभु, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य के रूप में स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। 

लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था में उनकी गहरी आस्था और विश्वास का इससे नायाब उदाहरण कोई नहीं हो सकता कि वे संसद में विपक्षी सांसदों के साथ-साथ अपनी ही पार्टी के सांसदों, मंत्रियों को अपनी और अपनी सरकार की आलोचना करने के लिए प्रेरित करते थे। उनका स्पष्ट मत था लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना जरूरी है। दूरदर्शी और अधिनायकवाद-विरोधी सोच के चलते नेहरू ने मजबूत विपक्ष व स्वतंत्र मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के प्रयास किए। उनकी हमेशा कोशिश रही की संविधान की रचना करने वाली संविधान सभा में सभी विचारधाराओं को जगह मिले, इसीलिए अनेक वैचारिक असहमतियों के बावजूद भीमराव अम्बेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी संविधान सभा व मंत्रिमण्डल में रहे। उनके व्यक्तित्व में आलोचना का महत्व इस हद तक शुमार था कि वे अपने सबसे प्रिय ’बापू‘ की आलोचना करने और अपनी आलोचना को स्वीकार करने में जरा भी नहीं कतराते थे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होने के नाते उन्होंने समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के आधार मूल्यों पर स्वतंत्र भारत को ढालने का काम किया। इन मूल्यों को लेकर उन्हें कई बार न सिर्फ अपने साथी राजनीतिज्ञों बल्कि करीबी लोगों की आलोचना भी झेलनी पड़ी।

इस दौर में सबसे करीबी लोग ही एक दूसरे के सबसे बड़े आलोचक हुआ करते थे। गांधी नेहरू के और नेहरू गांधी के, पटेल नेहरू के और नेहरू पटेल के, टैगोर गांधी के और गांधी, टैगोर व नेहरू ने कभी अपनी आलोचनाओं को अपने स्वाभिमान पर चोट की तरह नहीं लिया। वे सीखने चले गए और शायद इसीलिए उनकी सोच-समझ, उनके विचार समय के साथ और बेहतर होत गये और उनका व्यक्तित्व समय के साथ और निखरता गया। महात्मा गांधी ने कहा था ”जहां जवाहर लाल नेहरू एक योद्धा के समान साहस और सफलता है, वही एक राजनीतिज्ञ सी बुद्धिमता और दूरदृष्टि भी है, वे निर्दोष व निडर सरदार है, राष्ट्र उनके हाथों में सुरक्षित है।“ 

विभाजन के दौरान हुई हिंसा खून-खराबा और विध्वंस से बाकी हिन्दुस्तानियों की तरह नेहरू भी आहत थे। विभाजन के दौरान हुई साम्प्रदायिक हिंसा से विचलित नेहरू को आजादी के बाद भी साम्प्रदायिकता का डर सताता रहता था। जो विभाजन के समय हुआ वे उसे आजाद भारत में नहीं देखना चाहते थे। उन्हें अंदेशा था बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों की भावना साम्प्रदायिक सौहार्द को नष्ट कर सकती है और इसीलिए वे मानते थे कि बहुसंख्यको नरम और सहनशील होना चाहिए। इसके लिए उन्हें गलत समझा जाता रहा व उन्हें बहुसंख्यक विरोधी कहा जाता रहा है व अल्पसंख्यकों के प्रति उनके रवैये को लोगों द्वारा ज्यादातर तुष्टिकरण समझा गया। वे धर्म और राजनीति को अलग रखना चाहते थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता का अर्थ था कि भारतीय गणराज्य हर धर्म से उचित दूरी बनाए रखेगा और धार्मिक गतिविधियों से अपने आप को दूर रखेगा। 

विदेश नीति और अर्न्तराष्ट्रीय सम्बन्धों में उनकी खासी रूचि थी। वे अर्न्तराष्ट्रीय राजनीति में विश्व बन्धुत्व, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और गुट-निरपेक्षता जैसे मूल्यों के पक्षधर थे। जिस समय पूरा विश्व अमेरीका और सोवियत संघ के बीच चल रहे शीत युद्ध की वजह से दो गुटों में बटा हुआ था, उस समय नेहरू ने भारत ही नहीं बल्कि तीसरी दुनिया के अन्य देशों को साथ लाकर गुट-निरपेक्षता के सिद्धान्त को विश्व राजनीति में स्थापित किया।     

नेहरू के अनुसार जब तक कोई भी विकासशील देश अपने आप को हर प्रकार से सैन्य दौड़ और युद्ध-मुठभेडो से मुक्त नहीं कर लेता तब तक उसका सामाजिक आर्थिक विकास होना नामुमकिन है। नेहरू मानते थे कि पड़ोसी देशों में शांति स्थापित करने हेतु परस्पर विश्वास होना बहुत जरूरी है, इसी के चलते उन्होंने पड़ोसी देश चीन के साथ ’पंचशील‘ समझौते पर हस्ताक्षर किए और तब तक सिद्धान्तों का पालन किया जब तक कि उन्हें पंचशील समझौते की आड़ में चीन के नापाक इरादों के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हो गए। चीन  के धोखे व 1962 के युद्ध में भारत की हार और उससे हुए नुकसान से बहुत आहत थे और युद्ध के बाद उनकी तबीयत लगातार बिगड़ती चली गई। 2 साल बाद उन्होंने इस दुनिया से विदा ली। 

साम्यवाद से प्रेरित और समाजवादी विचारधारा के पैरोकार नेहरू ने भारत की आर्थिक नीतियों में अपनी छाप-छोडी और देश काल परिस्थितियों को देखते हुए समाजवादी अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया। नवरत्न कंपनियों की स्थापना की, और अनेक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को आगे बढ़ाया। योजना आयोग की स्थापना और पंचवर्षीय योजनाओं को आधार बनाकर भारत को आर्थिक मजबूती प्रदान की। शिक्षा के क्षेत्र में आईआईटी, आईआईएम, जैसे अतुलनीय संस्थाओं की स्थापना करने वाले नेहरू का जोर वैज्ञानिक सोच और तार्किक पर रहा है। वे चाहते थे कि भारत की शिक्षा व्यवस्था यहां की सामाजिक रूढ़िवादी सोच से हटकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किकता पर आधारित हों। 

उन्होंने बहुउद्देशीय सिंचाई उर्जा योजनाए, लोह-इस्पात के कारखाने, हरित क्रान्ति, रेल्वे व रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण, पंचायतराज की स्थापना, सहकारिता आन्दोलन, जागीरदारी जमीदारी का उन्मूलन, स्वास्थ्य व शिक्षा के क्षेत्र में वृहद आधुनिक संस्थाओं, संवैधानिक संस्थाओं की स्थापना द्वारा देश को प्रगति के पथ पर खड़ा किया। नेहरू के शासनकाल के सम्बन्ध में रविन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है ”जवाहर लाल नेे राजनीतिक संघर्ष के क्षेत्र में जहां बहुधा छल और प्रंवचना चरित्र को विकृत कर देते है शु़़द्ध आचरण का निर्माण किया।“

आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण और सकारात्मक भूमिका अदा करने वाले नेहरू को देश की हर समस्या की जड़ बताया जा रहा है। जरूरी है देश की जनता अपने पहले प्रधानमंत्री के योगदान से पुनः सम्पूर्ण जानकारी की जाए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार हैं)