7 मई जन्म दिवस पर
लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह
लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है
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राष्ट्र कवि रविन्द्र नाथ टैगोर प्रमुख भारतीय व मानवादी थे। सत्तावाद तथा सर्वाधिकारवाद, धर्मान्धवाद एवं अंधविश्वास, पुष्टिवाद तथा कट्टरवाद के विरूद्ध थे। भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही दुःख, हताशा तथा द्वन्द की स्थिति का अवलोकन किया। उनके चिंतन में दुःख एवं पीड़ा, असमानता तथा अशिक्षा, पारम्परिक संघर्ष एवं ईर्ष्या, निर्धनता तथा शोषण आदि की स्थितियों की प्रतिक्रिया हुई। इसलिए उनके हृदय में मानव उत्थान के लिए प्रगाढ प्रेम था। उन्होंने गयात्मक सक्रियता, बौद्धिक निर्णय तथा सृजनात्मक चिन्तन पर बल दिया।
टैगोर की मानव के रचनात्मक स्वभाव में आस्था थी। टैगोर के अनुसार ‘‘रचनात्मकता मानव अस्तित्व का सार है।’’ राजनीति के प्रति टैगोर का नैतिक दृष्टिकोण था। उन्होने जातिगत उग्रवाद एवं साम्राज्यवादी निरंकुशता की अभिव्यक्तियों की निदा की। राजनैतिक क्रिया को सुविधा व अवसरवाद साथ जोड़ने से इन्कार किया। मानववाद में अटूट आस्था व मनुष्य के बीच प्रेम के प्रति विश्वास से समाज परिवर्तन के दृष्टिकोण का विकास हुआ। टैगोर ने लौकिक स्थितियों में नैतिकता के महत्व को अभिव्यक्त किया। नैतिक दृष्टिकोण को अपनाया जिससे दार्शनिक आदर्शवादी मानववाद का विकास हुआ।
1930 में टैगोर ने रूस की यात्रा की। उन्होंने वहां की प्रत्येक बात की प्रशंसा की, प्रभावित हुए परन्तु सम्पत्ति, सामूहिकतावादी धारणा अच्छी नहीं लगी। उन्होंने कहा ‘‘आदमी सदैव के लिए व्यक्ति विहिन सामूहिकता की अवास्तविकता को कभी सहन नहीं करेगा।’’ उन्होंने राज्यवाद की तानाशाही को पसंद नहीं किया। भारतीय किसानों की दयनीय अवस्था पर दुःखी होकर कहा कि किसानों का भूमि के उपर अधिकार हो व सहकारी पद्धतियों का प्रयोग करें।
टैगोर ने शिक्षा को व्यैक्तिक प्रगति और सामाजिक पुर्निमाण का माध्यम माना। उन्होंने स्वीकार किया कि भारतीय समाज जो निर्धनता, महामारी, अन्धविश्वास, औद्योगिक पिछड़ापन, जातिवाद, छुआछूत में फंसा है, वह शिक्षा के अभाव के कारण है। टैगोर ने धर्म को मानव बन्धुत्व के रूप में स्वीकार किया।
टैगोर सामाजिक, राजनैतिक अधिकारों के साथ आर्थिक कल्याण के समर्थक भी थे। उनकी इच्छा थी भारत तानाशाही के मार्ग पर ना चलकर जनतंत्र के मार्ग पर चले। उनके अनुसार आदमी के दो पहलू, व्यैक्तिक एवं सामाजिक होते है, एक दूसरे के बिना वे अवास्तविक है। सामाजिक जीवन में व्यैक्तिकता की अनुभूति आवश्यक है।
टैगोर ने राष्ट्रवाद की विचारधारा का आध्यात्मीकरण किया और कहा ‘‘आदमी का असीम व्यक्तित्व विश्व की अनुभूति करें। समन्वयवाद, सार्वभौमवाद उनकी धारणा थी। टैगोर के अनुसार जाति व्यवस्था एक सामूहिकता है जो आदमी में निहित सत्य का गला धोंटती है, जाति रचनात्मक नहीं है, मात्र संस्थागत है। वह व्यक्ति के नकारात्मक पहलू, उसकी पृथकता पर बल देती है। जाति व्यवस्था पृथकता के नियम को बढ़ा चढ़ाकर मानती है और परिवर्तन तथा सामाजिक लचक के नियमों को उपेक्षित करती है। जाति व्यवस्था में छुआछूत व्यवहार से टैगोर को बड़ा दुःख था। उनके विचार विदेशी दासता, आर्थिक शोषण, जाति तथा छुआछूत, सती प्रथा, बाल विवाह, शिशु हत्या तथा बेगार जैसी बुराईयों के विरूद्ध थे।
रविन्द्रनाथ टैगोर सामाजिक सुधार की प्राथमिकता के पक्ष में थे लेकिन वे सामाजिक प्रतिवादी नहीं थे। उनके अनुसार वास्तविक समस्या उन परम्पराओं और रीति रिवाजों को हटाने की थी जिनके कारण लोग आत्म सम्मान खो चुके है। लज्जाजनक स्थिति का मूल कारण जाति व्यवस्था व परम्पराओं का अन्धानुकरण है। ये परम्पराएं असामाजिक है कोई सामाजिक उपयोगिता नहीं है। दमनकारी सामाजिक प्रतिबन्ध अनिवार्यता झूंठ व पाखण्ड का वातावरण पैदा कर रहे है।
टैगोर विश्व शांति के कट्टर समर्थक थे। वे नहीं चाहते थे कि राष्ट्रों के बीच परस्परिक अविश्वास एवं युद्धोन्मादी प्रवृति हो। उन्होंने राष्ट्रों से कहा था ‘‘परस्पर सहयोग, मित्रता, सांस्कृतिक समन्वय तथा शांति का अनुसरण करें। विश्व शांति के राष्ट्रों की पारम्परिक एकता की भावना पैदा करें। उन्होंने कहा था ‘‘आदमी की मुक्ति त्याग और तपस्या में नहीं बल्कि पारम्परिक मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों में है जिससे लोगों में प्रेम तथा आनन्द की भावनाएं जागृत हो।
कविवर रविन्द्रनाथ गांधी के असहयोग आन्दोलन के जोश खरोश और प्रवाह को देखकर आशंकित थे। असहयोग की निषेधात्मक नीति उन्हें अच्छी नहीं लगी। वे पश्चिम के विचारों से अपने को काट लेने को संकीर्णता और बौद्धिक दरिद्रता मानते थे। पूर्व व पश्चिम के मिलन में विश्वास करते थे, दूसरों से अलग कर देश मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता? 1931 में रविन्द्रनाथ ने एक लेख लिखा ‘‘सत्य का आव्हान’’ जिसमें उन्होंने लिखा कि भारत की समस्या बहुत बड़ी है जिसकी समस्या के समाधान का भार को एक ही नेता (गांधी) के हाथ सौंप देने से काम नहीं चलेगा।
देश में जागृति के लिए पूरे उद्यम से सब ओर से जगाना होगा। गांधी ने उसका उत्तर ‘‘यंग इंडिया’’ में दिया, परन्तु दोनों मे ंएक दूसरे के प्रति स्नेह, आदर था व सम्मान करते थे, परन्तु 1940 में ‘‘स्वदेशी समाज’’ निबंध में लिखा ‘‘गांव-गांव में स्वराज परिव्याप्त था, राज्य शासन ने उस पर अधिकार कर लिया। विदेशी आधुनिकता ने हमारे मर्म पर आघात किया, पाश्चात्य राज्य शासन में भारत को आघात मिला। ‘
‘गीतांजली’’ की एक कविता (2010) में गुरूदेव गांधी एक ही भाव लोक से प्रेरणा पाते दिखाई देते है। उसका एक ही उद्देश्य था, भारतीय नवजागरण को जनजागरण का रूप प्रदान करना। कवि का मार्ग सौम्य था, महात्मा जी का उग्र। रविन्द्रनाथ ठाकुर जिस मानव समाज के विकास की बात करते हैं उसमें भय का कोई स्थान नहीं है। गुरूदेव के शब्द पूरे राष्ट्र की भावना व्यक्त करते थे। बंगाल की यात्रा के दौरान गांधी शांति निकेतन पहुंचे। दोनों मित्रों में असहमती या सहमती रही, फिर भी एक दूसरे से प्रेम, एक दूसरे का सम्मान करते थे। महात्मा गांधी ने गुरूदेव को ‘‘शाश्वत प्रकाश’’ कहा था।
टैगोर के अनुसार हृदय की स्वाधीनता ही सच्ची स्वाधीनता है। आधुनिक मन की स्वाधीनता ही वास्तविक है। उत्तरदायित्व के प्रति सचेतन हो जाइए, समस्याओं का संतोषजनक हल निकाल लेंगे। टैगोर आधुनिकता को मुख्य रूप से स्वीकार करते हुए तर्क बुद्धि के द्वारा विशेष रूप से समझाना होगा। रविन्द्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन कि स्थापना कर अंग्रेजी राज्य के प्रति असंतोष प्रकट किया।
गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था सिर्फ तर्क करने वाला दिमाग एक चाकू की तरह है जो प्रयोग करने वाले को घायल कर देता है, कलाकार प्रकृति का प्रेमी है। अतः उसका दास भी है और स्वामी भी है। हम महानता के सबसे करीब तब होते है जब हम विनम्रता में महान होते हैं। जिनके पास विपुल स्वामित्व है, उनके पास डरने को बहुत कुछ होता है। उच्चतम शिक्षा वह है जो हमें सिर्फ जानकारी ही नहीं देती बल्कि हमारे जीवन को समस्त अस्तित्व के साथ सद्भाव में लाती है।
हम यह प्रार्थना ना करें कि हमारे उपर खतरे नहीं आये, बल्कि यह करें कि हम उसका सामना करने में निडर हो। एक आशावादी होने का संकल्प ले व वर्तमान चाहे कितना अंधकारमय हो कुछ शानदार सामने आयेगा। कला के माध्यम से व्यक्ति खुद को उजागर करता है अपनी वस्तु को नहीं।‘‘ मैंने स्वप्न देखा कि जीवन एक आनन्द हैं, मैं जागा और पाया कि जीवन सेवा है, मैंने सेवा की और पाया कि सेवा ही आनन्द है। जो कुछ हमारा है, वह हम तक तभी पहुंचता है जब हम उसे ग्रहण करने की क्षमता विकसित करते हैं। प्रसन्न होना बहुत सरल है परन्तु सरल होना बहुत कठिन। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)