मुद्दा विधेयकों पर राज्यपालों के सहमति का

लेखक : लोकपाल सेठी

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनितिक विश्लेषक 

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संविधान के निर्माताओं ने संविधान सभा में लम्बे विचार विमर्श के बाद  देश और राज्य में कानून  बनाने के प्रक्रिया तय की थी। इसके अनुसार देश की  संसद विधेयक बनाकर राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजती है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ही विधेयक कानून बन पाता है। राज्यों में  यही काम  विधानसभाओं और राज्यपालों का होता है। इन विधेयकों पर सहमति का कोई समय निर्धारित नहीं किया गया है। केवल यह कहा गया का यथा समय  सहमति दी जा सकती है। यह भी प्रावधान है कि अगर राष्ट्रपति या राज्यपाल संबंधित विधेयक में कोई खामी पाते है तो उसमें सुधार अथवा परिवर्तन के सुझावों के बाद राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल सरकारों को भेज सकते है। सहमति देने से पूर्व राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल इस बात को को पुख्ता करते है की विधेयक संविधान के प्रावधानों के अनुरूप है। 

संविधान के निर्माताओं ने यह शायद यह कल्पना भी नहीं की थी कि इस मुद्दे को लेकर कभी राष्ट्रपति और केंद्र सरकार में कोई टकराहट भी हो सकती है। ठीक ऐसे ही टकराव राज्यों में भी हो सकती है। संविधान में “यथासमय” शब्द की व्याख्या नहीं की गई तथा यह मान लिया गया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल  बिना विलम्ब के अनुमति दे देंगे। संविधान के निर्माताओं ने कभी यह सोच नहीं होगा की किसी समय केंद्र में और राज्यों में अलग अलग दलों की सरकारे भी बन सकती है और राज्यपालों के अधिकारों को लेकर टकराव हो सकता है। देश में पिछले नो साल से केंद्र में बीजेपी की सरकार है तथा लगभग आधा दर्जन से भी अधिक राज्यों में गैर बीजेपी वाले राजनीतिक दल सत्ता में है। कुछ गैर बीजेपी वाली सरकारों के मुख्यमंत्री यह मह्सूस करते है कि सभी राज्यों में बीजेपी दवारा नियुक्त किये गए राज्यपाल है जो इन गैर बीजेपी सरकारों के काम काज में रोड़े अटका रहे है। 

विधान सभा दवारा पारित विधेयकों पर सहमति या तो दी नहीं जाती या फिर बहुत अधिक विलम्ब हो रहा है। उधर गैर बीजेपी सरकारों वाले राज्यपाल यह तर्क दे रहे है कि राज्य सरकारों ने विधानसभा में कुछ ऐसे प्रस्ताव पारित करवा कर भेजे है जो संविधान सम्मत नहीं है। संविधान का रक्षा के उत्तरदायित्व को सामने रखते हुए वे ऐसे विधेयकों पर अपने सहमति नहीं दे सकते। इस मुद्दे को लेकर दक्षिण के गैर बीजेपी राज्यों में टकराव की स्थिति बन गई है। तमिलनाडु, जहाँ द्रमुक की सरकार है, की विधान सभा ने कुछ दिन एक प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रपति से यह आग्रह किया था कि वे विधेयकों पर राज्यपाल की सहमति लिए समय की  एक सीमा निर्धारित करे दें। इस प्रस्ताव का मूल भाव यह था की राज्यपाल एक निर्धारित समय में विधान सभा दवारा पारित विधेयक पर अपने हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य हो। 

उधर तेलंगाना और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने इस मुद्दे को लेकर सर्वोच्च न्यायलय में याचिकाएं पेश की है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री  एम के स्टालिन इस मुद्दे को लेकर केरल के राज्यपाल विजयन पिनराई तथा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी से बात भी कर चुके। स्टालिन का कहना था कि अपनी अपनी  राज्यों की  विधानसभाएं से भी इसी आशय के प्रस्ताव पारित करें ताकि केंद्र पर दवाब बनाया जा सके। स्टालिन इस मुद्दे को  लेकर छत्तीसगढ़ सहित कई अन्य गैर बीजेपी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के संपर्क में है। वे  इस बात की कोशिश में लगे है गैर बीजेपी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक बैठक होनी चाहिए ताकि इस मामले पर गंभीरता विचार कर समस्या का समाधान निकाला जा सके। 

केरल में राज्य के वाममोर्चा सरकार ने कुछ माह पूर्व विधान सभा में एक प्रस्ताव पारित कर राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान से राज्यों के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार ख़तम कर दिया था। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल में विधान सभा ने एक विधेयक के जरिये राज्य के विश्वविद्यालयों  के कुलपतियों की नियुक्तियों का अधिकार राज्य के शिक्षा मंत्री को दे दिया था। 

केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान तथा पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल जगदीप धनकड़, जो अब उप राष्ट्रपति है, तथा वर्तमान राज्यपाल आनंद बोस का कहना ही कि संविधान के अनुसार राज्यों के व विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति केवल और केवल राज्यपाल ही कर सकते है, चूँकि इन  दोनों सरकारों दवारा पारित करवाए गए विधेयक संविधान के प्रावधानों के विपरीत है इसलिए वे इन पर अपनी सहमति नहीं दे सकते। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)