लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह
लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं
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उत्तरी भारत के अग्रणी राजस्थान विश्वविद्यालय की सम्पूर्ण शिक्षा जगत में प्रसिद्धि थी। विश्वविद्यालय के विख्यात कुलपति डा. जी.एस.महाजनी, डा. जी.सी.चटर्जी, डा.मोहन संह मेहता आदि की राष्ट्रीय छवि थी। विश्वविद्यालय में नियमित सुचारू एवं कानून कायदों में बिना हस्तक्षेप समयबद्ध कार्य होते थे। कुलपति की एक छवि होती थी। वे कभी विवादों के घेरे में नहीं आते थे। वे जो कहते थे, करते थे और अपने आदर्श स्वयं प्रस्तुत करते थे। उनहें कभी अपने पद की चिंता नहीं थी। वे जोड़ तोड़ ओर तिकडमबाजी में विश्वास नहीं करते थे। बड़े से बड़े नेता उनके पद की गरिमा के अनुरूप शिष्टाचार के साथ विचार विमर्श हेतु उनको आमंत्रित करते थे। उन्होंने कभी किसी स्तर पर नियमों एवं आदर्शो के विरूद्ध सरकारी अथवा राजनैतिक नेताओं के आदेशों का पालन नहीं किया। उनमें किसी प्रकार के संकोच या डर की भावना नहीं होती थी। पूर्णकालीक रूप से अपने कार्यालय एवं कुलपति के आफिसियल निवास में रहकर प्रतिदिन विश्वविद्यालय का कार्य स्वयं की देखरेख में संपादित कराते थे। विश्वविद्यालय की गरिमा को देखते हुए छा़त्र एवं विश्वविद्यालय के उत्सवों में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्री, प्रमुख शिक्षाविद, माननीय न्यायाधिपति, सर्वश्रेष्ठ कलाकार व साहित्यकार आदि आते थे।
छात्र संघ अध्यक्ष के नाते मैंने पं. जवाहर लाल नेहरू को आमंत्रित किया था। आयोजित कार्यक्रम में कुलपति को आमंत्रित कर विचार प्रकट करने को कहा। उन्होंने हंस कर कहा था ‘‘वे शिक्षक है। विश्वविद्वालय प्रशासन व सफल संचालन को देखना ही उनका कर्तव्य है।’’ उन महानुभावों ने कभी भाषण, उद्घाटन, शिलान्यास, संगोष्ठी या दुनियाभर की मीटिंगों अथवा शिक्षकोत्तर गतिविधियों में भाग नहीं लिया। उनके चरित्र पर कोई उंगली नहीं उठा सकता था। उन पर कभी कोई भ्रष्टाचार या पक्षपात के आरोप नहीं लगे। विश्वविद्यालय में नियमित सुचारू एवं कानून कायदों के अनुसार समयबद्ध कार्य होते थे।
कुलपति का चयन शिक्षाशास्त्री व शैक्षिक जगत के प्रमुख प्रशासक, उच्चकोटी के विद्वान एवं प्रतिष्ठित महानुभावों द्वारा किया जाता था। जिसमें जातिगत आधार, व्यक्तिगत संबंध, राजनैतिक निष्ठा व प्रतिबद्धता का कोई स्थान नहीं था। कुलपति चयन व नियुक्ति में, उनके द्वारा की गई अनियमितताएं, भ्रष्टाचार, जोड़-तोड़, तिकडमबाजी और राजनैतिक संबद्धता ही चयन का आधार बन जाये तो किस प्रकार विश्वविद्यालय में शैक्षिक वातावरण बन सकता है? जब कुलपति कार्यालय का कार्य रिमोट कंट्रोल से हो और कुलपति केवल ‘‘हुकुम’’ कहकर आदेशों की पालना करें तो कैसे विश्वविद्यालय का प्रशासन सुदृढ़ हो सकता है।
पूर्व में कालेजों के प्राचार्यो, प्राध्यापकों की बात ही कुछ और थी। उनके प्राचार्यो का प्राध्यापकों व छात्रों में इतना खौफ व अनुशासन था कि उनके कहे अनुसार कार्यक्रम बनाते थे, नियमानुसार आदेशानुसार दिलोजान से काम करते थे। प्राध्यापक भी कानून कायदों अथवा अनुशासन के विपरीत किसी आदेश की पालना नहीं करते थे। उस समय एक प्रिंसिपल ने प्रवेश संबंधी मुख्यमंत्री के आदेश को ठुकराते हुए इस्तिफा तक प्रस्तुत कर दिया था। ऐसे भी प्राचार्य थे जो भारत के गृह मंत्री को कह सकते थे ‘‘यदि उनको मालूम होता कि भारत का गृह मंत्री काले झंडों से डर जाता है तो वे उनको अपने कालेज में छात्रों के बीच आमंत्रित नहीं करते।’’ शिक्षकों का खुले रूप से राजनीति में भाग लेना तो दूर राजनैतिक चर्चाओं में भी भाग नहीं लेते थे और अपने राजनैतिक विचार खुलेआम जाहिर नहीं करते थे।
आज प्राध्यापक खुलेआम राजनैतिक संगठनों से जुड़े हुए है। चुनावों में खुलकर भाग लेते है, अपने-अपने दल व संगठनों के छात्रसंघों का संचालन करते है। पढ़ाई की बात तो दूर राजनैतिक आकाओं की मदद से कालेज प्रोजेक्ट हाथ में लेकर, आर्थिक सहायता प्राप्त करने हेतु संगठन से जुडत्रे रहते है। खुलेआम एक दूसरे पर कीचड उछालते है। स्थानान्तरण का उन्हें डर नहीं है, प्रशासनिक कार्यवाही की डर नहीं है। नैतिकता का स्तर गिरता जा रहा है। जब इन्हें महत्व दे तो क्यो शिक्षक विश्वविद्यालय जायेगा? जब उसको तनख्वाह मिलती रहती है, कोई कार्यवाही नहीं होती तो क्यों पढ़ाने में दिलचस्पी लेगा?
कुलपति सचिवालय भी टेªड यूनियनों के अखाडे बन गये है। कार्यालय में बैठकर नियमित रूप से अनुशासित रहकर पूर्णकालीक कार्य करने की उनकी इच्छा अब समाप्त हो गई है। प्रतिदिन छात्रों, प्राध्यापकों व आम नागरिकों की कहासुनी, झड़पे, हड़तालें, अवैध , अनियमित होते रहते है। पहले विश्वविद्यालय कैम्पस में पुलिस दिखाई नहीं देती थी, अब विश्वविद्यालय पुलिस छावनी बना रहता है। बगैर पुलिस सहायता के ऐसा लगता है कि विश्वविद्यालय में कुछ हो ही नहीं सकता।
शिक्षकों की अनुशासित व सुचारू व्यवस्था नहीं होने से छात्रों का एक बड़ा हिस्सा तो क्लासेज में उपस्थित ही नहीं होता। जिन छात्रों को नौकरी नहीं मिलती वे आगे पढ़ते रहते है। निराशा और कुंठा में अपना समय व्यतीत करते रहते है। जो छात्र आते है वे शिक्षकों की अनुपस्थिति देखकर वापस लौट जाते है। आज इसीलिए विश्वविद्यालय में छात्रों की रूचि टयूटोरियल, नियमित क्लासेज, सेमीनार, पुस्तकालय में नहीं रही। शिक्षण प्रणाली को शिक्षक व विद्यार्थी दोनों कोसते रहते है। यही कारण है कि एम.ए., एम.काम., एम.एससी., पी.एचडी. पास युवक चपरासी, एलडीसी, सिपाही, पटवारी, ग्रामसेवक आदि की नौकरियों की तलाश में भटकते रहते है। छात्रावासों की व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है। छात्रावासों में अनेक वर्षो से ऐसे छात्र रहते पाये गये है जिनको प्रवेश नहीं मिलता। वर्षो उत्तीर्ण नहीं हो रहे है। अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है। असामाजिक तत्वों का प्रवेश विश्वविद्यालय परिसर तक में चलता रहता है।
स्पष्ट है कि विश्वविद्यालयों में जब कार्य नियमानुसार नहीं हो बल्कि राजनैतिक आकाओं व सामाजिक नेताओं के आदेश पर हो, कुलपति व प्राध्यापकों को नैतिकता नाम की किसी चीज की चिंता नहीं हो, येन-केन-प्रकारेण पद पर बने रहने का प्रयास चलता रहे तो विश्वविद्यालय में शैक्षिक माहौल बन ही नहीं सकता। आजकल ऐसे डीन नियुक्त होते है जिनके स्वयं के विरूद्ध साहित्य चोरियों के आरोप है। गवर्निंग बॉडी सिंडीकेट में ऐसे सदस्य चुने जाते है जिनके विरूद्ध अनियमिताओं एवं भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप है। सिंडीकेट में चाहे गर्वनर के मनोनीत सदस्य हो, चाहे राज्य सरकार अथवा चाहे कुलपति द्वारा सभी राजनेताओं से जुड़े होते है अथवा स्वयं राजनीतिज्ञ होते है। विख्यात शिक्षाविद की जगह राजनीतिज्ञ या उनसे जुड़े हुए व्यक्ति मनोनीत होते है और इसीलिए अनेक वर्षो तक लोग एक ही पद पर जमे रहते है और कार्यवाही नहीं हो पाती, शिक्षण में गुणवत्ता नहीं आ पाती। एडोहक तरीके से, अनचाहे तरीके से, झूंठे एवं गलत प्रमाण पत्रों के अनुसार ऐसे लोगों को नियुक्ति दी जाती है और पदोन्नति दी गई है जिनको राजस्थान लोक सेवा आयोग ने रिजेक्ट किया है। ऐसे में किस प्रकार शैक्षिक स्तर उपर हो सकता है?
अभी हाल ही में जिन लोगों को पेपर लीक मामले में गिरफ्तार किया है उनमें ऐसे महानुभाव है जो वर्षो तक कंट्रोलर ऑफ एक्जामिनेशन रहे है। प्राध्यापक स्वयं के कोचिंग क्लासेज चल रहे है, उनमें पढ़ाते है। अनेक विषयों में कोई रेगूलर फैकल्टी नहीं है केवल अन्य विषयों के प्राध्यापकों को हायर कर, बड़ी और मोटी फीस देकर कोर्स चलाये जा रहे है। चाहे एलएलएम का 5 वषीर्य कोर्स हो, चाहे एमबीए का हो चाहे एमएड हो, चाहे सीसीटी का हो, चाहे पर्यावरण हो, चाहे जर्नलिज्म का उनमें योग्यता प्राप्त शिक्षक नहीं है। अनुशासन नहीं फैले, विरोध नहीं हो इसीलिए बगैर पढ़ाई, बगैर परीक्षा सीधे डिग्रीयां दी जा रही है। वर्तमान में विश्वविद्यालय का बजट लगभग 250 करोड़ है जिसके संबंध में अनियमितता व भ्रष्ट्राचार के आरोप लगतेे रहते है। आरटीई के तहत मिली स्पष्ट जानकारी के अनुसार क्लासेस नहीं हुई। अकाउटेंट नहीं है इसलिए आडिट नहीं हुई।
ऐसी स्थिति में शिक्षा का यह मंदिर नेताओं के रहमों करम पर चल रहा है। कालेज में प्राध्यापक एवं परीक्षा समितियों पर खुलेआम भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे है। समाज में सुयोग्य नागरिकों के स्थान पर निराश युवकों की फौज बढ़ती जा रही है। विश्वविद्यालय में अध्ययन अध्यापन का कोई वातावरण ही दिखाई नहीं दे रहा है। इसमें गुणात्मक सुधार के कोई भी सामूहिक प्रयास नहीं किये जा रहे है। परीक्षाओं से संबंधित पेपर लीक के अलावा कापीयों के कवर बदलकर फेल को पास व पास को फेल करना, मार्कशीट में फेरबदल कर उसका रिजल्ट तैयार करना विश्वविद्यालय प्रशासन में कोई मुश्किल काम नहीं है।
राज्य सरकार, प्रबुद्ध नागरिक, मीडिया, प्रमुख शिक्षाविद एवं ज्यूडिशियरी के हस्तक्षेप से ही विश्वविद्यालय के वर्तमान शैक्षिक माहौल में तब्दीली की जा सकती है। ऐसी उच्चस्तरीय ‘‘रेगूलेटरी कमेटी ’’बने जिनमें पूर्व कुलपति, पूर्व शिक्षाविद, सार्वजनिक जीवन में कार्य करने वाले प्रबुद्ध नागरिक एवं प्रशासनिक अधिकारी हो। जो इसके संबंध में विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत करें। कुछ साल पहले पूर्व कुलाधिपति न्यायाधिपति जस्टिस एन.एल.टिबरेवाल ने पूर्व कुलपतियों, शिक्षाविदों व प्रशासकों की प्रशासनिक व वित्तीय समितियां बनाकर उनके सुझावों पर उनसे रिपोर्ट प्राप्त की थी परन्तु उनके कार्यकाल के पश्चात उन पर कोई कार्यवाही नहीं हो सकी व रिर्पोटें कही धूल चाट रही होंगी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)