विश्व पशु चिकित्सा दिवस 29 अप्रेल
लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह
लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी एवं पूर्व निदेशक, पशुपालन, मत्सय एवं डेयरी हैं
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राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कृषि के साथ पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन के लिए बजट प्रावधान बढ़ाकर सहायता व कर्ज का प्रवाह बढ़ाने पर जोर दिया है। इसकी आवश्कता लम्बे समय से महसूस की जा रही थी। सरकार ने पशुसंवर्धन पर जोर देकर दूग्ध प्रोडक्शन को दुगुना करने की घोषणा की है। पशु संवर्धन, पशु चिकित्सा, पशु बीमा, मुफ्त इलाज के जरिये पशु पालन व दुग्ध उत्पादन को लाभदायक बनाने का प्रयास किया है। गौशाला प्रबन्धन, उत्पादकों को अनुदान बढ़ाया गया है । चिकित्सालयों की सख्यां में वृद्धि की गई है। भारत में ऐसी अर्थव्यवस्था रही है जिसे अपनाकर प्रत्येक गांव अपनी आधारभूत जरूरत के लिए आत्मनिर्भर थे। कृषि प्रधान सदियों पुरानी भारतीय संस्कृति के अनुरूप, पशु मुख्यतः गाय, सदैव कृषि कार्यो में सहायक रहे है। पशुपालन व्यवसाय प्राथमिक व निंरतर रहा है। राष्ट्रीय आय का 50 प्रतिशत योगदान कृषि से है तो उसमें 20 प्रतिशत पशु से है। देश में लगभग 44 करोड़ से अधिक गाय, भैंस, ऊंट, बकरी, मुर्गीया व भेडे है। भारत के पांच लाख 80 हजार गावों में लगभग 74.2 करोड़ लोग आबाद हैैं। इनमें कृषक, खेतीहर मजदूर, पशुपालक, लघु व्यापारी, शिल्पियों व सेवा करने वाले परिवारों का बाहुल्य हैै।
राजस्थान में गत पशुगणना के अनुसार पशुओं की संख्या 543.48 लाख थी जिसमें 56.49 प्रतिशत भेड, बकरीयां थी। राजस्थान में मुर्रा भैंस, गायों में राठी, हरियाणा, थार-पारकर मालती, गीर, साहीवाल, नागौरी, काकरेज, हालिस्टन, जर्सी आदि प्रमुख ब्रीड है। भेडों की आठ मुख्य नश्ल है। जिससें मुख्यतः ऊन व मांस उत्पादन होता है। पश्चिमी व उत्तरी पश्चिमी राजस्थान में भेंड पालन मुख्य जीविका हैं। बकरी गरीब वर्ग को दूध व मांस की मांग पूरी करती है। राजस्थान में ऊंट बोझाडोने व रेगिस्तानी क्षेत्र में सर्वाधिक उपयोगी पशु है। कुक्कट पालन से लगभग 25 लाख अन्डें व मांस प्रतिदिन मिलता है।
देश में दुधारू पशुओं की विशाल आबादी, पशु विश्व जनसंख्या की लगभग 29 प्रतिशत है। भारत में दूध जमा करने का मजबूत ढ़ांचा, अन्य देशों के मुकाबले सस्ताश्रम व संवर्धन सुविधायें व 1970 में श्वेत क्रान्ति के कारण विश्व का एक तिहाई (लगभग 7.81 करोड़ टन) दूध का उत्पादन होता है। पशुओ का उपयोग कृषि, परिवहन, चमड़ा, ऊन उद्योग, वस्त्र उद्योग, डेयरी उद्योग, आदि में होता है। पशुपालन द्वारा स्वरोजगार के अवसर पैदाकर, गरीबी निवारण हेतु कमजोर व पिछडे़ वर्गाे, बालको, महिलाओं, वृद्धों व विकलांगों को खाद्यान रक्षा व बुनियादी सुविधायें मुहैया कराने तथा सामाजिक असंतुलन को दूर करने के लिए किया जा सकता है। राजस्थान में पशुपालन एक जीवन शैली है, राजस्थान के बड़े शुष्क व अर्धशुष्क भूभाग में महत्वपूर्ण सहायक उद्योग है व राजस्थान की अर्थव्यवस्था व रोजगार में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। पशुधन का सर्वांगीण विकास व विस्तार एक अनिवार्यता है। पशुधन का विकास कृषि की सर्वांगीण प्रगति का आवश्यक अंग है।
कृषि पशुपालन के साथ सामंजस्य अत्यन्त आवश्यक है। पश्चिमी शुष्क क्षेत्रों में कृषकों का स्वास्थ्य, आर्थिक जीवन, पशुओं की संख्या व किस्म पर निर्भर करता है। पश्चिमी क्षेत्र में जीविका का मुख्य साधन है यद्यपि अकाल व प्राकृतिक विपदाओं में प्रतिकूल असर पड़ता है। रोजगार, परिवहन, अकाल, कृषि कार्य, चमड़ा व खाल, पोष्टिक पदार्थाें की उपलब्धता में पशुपालन की महत्वपूर्ण भूमिका है। राजस्थान में विकासशील अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए राज्य के पशुधन को रोजगार एवं दुग्ध उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। अतः विभिन्न योजनाओं से रोजगार वृद्धि के लिए पशु सम्पदा को विकास व डेयरी व्यवसाय को उच्च प्राथमिकता प्रदान की जानी चाहिए। नहरी इलाकों में भेड़पालन यह ऊन व्यवसाय का माध्यम है।
डेयरी उद्योग निजी, सहकारी, सार्वजनिक तीनों क्षेत्र में है। असंगठित क्षेत्र की इकाईयों व सहकारी क्षेत्र का उल्लेखनीय योगदान है। पशुओं के लिए क्रय-विक्रय बाजार का अभाव, अशिक्षा, चरागाह की कमी, पूंजी का अभाव, उत्तम चारे का अभाव, संतुलित आहार व खनिज तत्व की कमी, रोग विरोधी टीके व उपचार की कमी के कारण कठिनाईयां उत्पन्न होती है। दुधारू पशुओं में कम दूध की मात्रा, अनुपयोगी पशुओं की बड़ी संख्या, पशु रखने की मजबूरी अच्छी नस्ल व चारे का अभाव, देशी नस्ल सुधार का दोषपूर्ण अभिजनन, अस्वास्थकर स्थान, समय पर सुलभ उचित इलाज का अभाव है।
वैज्ञानिक व कृत्रिम गर्भाधान, नियमित प्रजनन, संतुलित पशु आहार, संक्रमण रोगों से बचाव, विपणन में सुधार तथा पशुपालकों को शिक्षा प्रसारण की कमी है। देशी नस्ल की अनार्थिक गाय-भैसों की बहुतायत, दोषपूर्ण अभिजनन अनार्थिक अस्वास्थकर स्थान, उचित इलाज नहीं होना किसान की निर्धनता, सरकारी विभागों की उपेक्षा व उदासीनता प्रमुख कमियां हैं।
गाय, भैसों की बहुतायत, अपर्याप्त पोषाहार, पशु स्वास्थ्य व वैज्ञानिक प्रबन्ध के अभाव के कारण सरकारी कार्यक्रम का पूरा लाभ नहीं मिलता। संघन मवैशी कार्यक्रम व परियोजनाएं, गौशाला विकास, चारा पोषाहार विकास योजनायें, संघन व समन्वित ग्रामीण विकास की सफल क्रियान्विति से इस व्यससाय को प्रोत्साहन दिया जा सकता है। बेकार पशु, देशी नस्ल की गाय, भैसों में विकसित संाड व भैसों से गर्भाधान, सहकारी समितियों का गठन, पशु प्रदर्शनियों व मेलों का आयोजन, बेरोजगारी कम करने व तुरन्त आवश्यक सेवाएं प्रदान करने के लिए गोपालन योजना का सफल क्रियान्वयन/डेयरी विकास के साथ सुअर विकास, बकरी विकास, भेंड विकास, ऊन विकास कार्यक्रमों से भी ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक बदलाव किया जा सकता हैं।
गौशाला विकास, पशुरोग सर्वेक्षण व रोग निदान, पशुआहार व विपणन लम्बे समय सुरक्षित रखने हेतु भंडारण, प्रसंस्करण, परिवहन, पैकिंग में सुधार आदि कदमों से पशुपालन को अधिक लाभप्रद बनाया जा सकता है। राज्य में कुक्कुट पालन व मत्सय पालन, बतख उत्पादन की असीम संभावनायें है। बड़ी मात्रा में राज्य से बाहर अंडे, चूजें, भेजे जाते है। भेंड बकरीयों में भी अच्छी नस्ल का अभाव है। क्रासब्रीडिंग से उनकों भी उन्नत बनाया जा सकता है। बीमारियों की रोकथाम की कमी है विभागीय उदासीनता के साथ बजट का अभाव रहा है। राज्य में मत्सय पालन का शानदार इतिहास रहा है।
लगभग 725 बडे़ व छोटे जलाशय है। बडे़ नदी बेसिन चम्बल, इन्द्रागांधी नहर, कोटा, उदयपुर, बनास के तालाबों में बडे़ पैमाने पर मत्सय उत्पादन होता रहा है जिन्हें सुचारू प्रबन्धन व उत्तम मत्सय बीज से बढाया जा सकता है व आय के साथ रोजगार प्रदान किया जा सकता है। राज्य की उत्तम रोहू कतला आदि मछलियों की दिल्ली, कलकत्ता आदि बडे़ शहरों में बहुत मांग है। रेगिस्तानी अर्थव्यवस्था में बदलाव करने, बेरोजगारी दूर करने में पशुपालन व दुग्ध व्यवसाय को विकसित कर, कुक्कुट पालन व मत्सय पालन की व्यापक संभावनाओं का विद्रोहन कर रोजगार के अवसरों में वृद्धि की जा सकती है। प्रवासी राजस्थानीं विकसित प्रदेशों से लोट रहें है, अनेक शिक्षित है, व्यापक दृष्टिकोण है, हम उन्हें आवश्यक मदद व प्रोत्साहन के साथ इन व्यवसायों से जोड़ सकते है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)